हर देशभक्त और आस्थावान मुसलमान का धन्नीपुर (अयोध्या) में निर्माणाधीन मस्जिद का वास्तुशिल्प और स्वीकृत-नाम बदल डालने से मर्माहत हो जाना लाजिमी है। 12 अक्टूबर 2023 को बांद्रा (मुंबई पश्चिम) के रंगशारदा हॉल में कुल-हिंद राबता-ए-मस्जिद तथा इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ने निर्णय लिया कि इस मस्जिद का नाम अब “मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह” के नाम होगा। उस पर गुंबद भी नहीं होगी। अमूमन हर मस्जिद में एक या अधिक गुंबद होते हैं। उन्हें अरबी में क़ुब्बा कहा जाता है। बाबरी मस्जिद जो 1527 में बनी थी अपनी गुंबदों के लिए मशहूर थी। अब उसके आधुनिक रूप में वैसा गुंबद नहीं होगा। मगर इस निर्जीव शिल्पकला से कहीं ज्यादा पीड़ा हर भारतप्रेमी को हुई जब पता चला कि इस इबादतगाह का नाम अब बदल दिया जाएगा। हर मस्जिद पैगंबर की ही होती है। करीब चार साल पूर्व (अगस्त 2019 में) कानपुर के मकरानपुर में अंतरराष्ट्रीय सूफी सम्मेलन हुआ था। वहां प्रस्ताव पेश हुआ था कि धन्नीपुर की इस प्रार्थनास्थल का नाम सूफी मस्जिद रखा जाए। मदारिया सूफी फाउंडेशन के सदर जनाब हाजी मोहम्मद समीर अजीज की राय थी कि इस सूफी मस्जिद से गंगा-जमुनी सरस्वती बलवती होगी। चार साल बीत गए। इस इल्तिजा पर गौर तक नहीं किया गया।
तीन साल पूर्व आम राय से निर्णय लेकर घोषणा की गई थी कि मस्जिद का नाम मौलवी अहमदुल्लाह शाह पर रखा जाएगा। इस ऐलान से प्रत्येक राष्ट्रप्रेमी सेक्युलर भारतीय को हर्ष हुआ था। फैज़ाबाद के मौलवी के रूप में प्रसिद्ध अहमदुल्लाह शाह (1787 जून से 1858) प्रथम के भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख योद्धा थे। उन्हें 1857 के लाइटहाउस के रूप में जाना जाता था। एक मुस्लिम होने के नाते, वह फैजाबाद की धार्मिक एकता के प्रतीक भी थे और नाना साहिब और खान बहादुर खान के साथ थे। अहमदुल्ला के परिवारिक सदस्य हरदोई जिले के गोपामऊ गांव के मूल निवासी थे। उनके पिता गुलाम हुसैन खान मैसूर के सुल्तान हैदर अली की सेना में एक वरिष्ठ अधिकारी थे। मौलवी एक सुन्नी मुस्लिम थे और समृद्ध परिवार के थे। वह अंग्रेजी अच्छी जानते थे। अपनी पारंपरिक इस्लामी शिक्षा प्राप्त करने के बाद, मौलवी का भी प्रशिक्षण मिला था। उन्होंने इंग्लैंड, रूस, ईरान, इराक़, मक्का और मदीना की यात्रा की और हज भी किया। मौलवी का मानना था कि सशस्त्र विद्रोह की सफलता के लिए जनता का सहयोग बहुत महत्वपूर्ण था। उन्होंने दिल्ली, मेरठ, पटना, कलकत्ता और कई अन्य स्थानों की यात्रा की और आजादी के बीज बोये। मौलवी और फजल-ए-हक खैराबादी ने भी अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद घोषित किया। “फतेह इस्लाम” नामक एक पुस्तिका भी लिखी थी।
अवध की विद्रोही सेना का नेतृत्व बरकत अहमद और मौलवी अहमदुल्लाह शाह ने किया था। चिनहट की लड़ाई में, बरकत अहमद को विद्रोहियों के मुख्य सेना अधिकारी बनाया गया था। ब्रितानी सेना का नेतृत्व हेनरी मोंटगोमेरी लॉरेंस ने किया था, जिनका रेजीडेंसी (लखनऊ) में निधन हो गया था। बरकत अहमद और मौलवी के नेतृत्व में विद्रोही सेना ने यह भयंकर लड़ाई जीती थी। मौलवी अकेले थे जो सर कॉलिन कैंपबेल को दो बार पराजित करने की हिम्मत कर सकते थे। ब्रिटिश कभी मौलवी को जिंदा नहीं पकड़ सकते थे। उन्होंने मौलवी पर पुरस्कार के रूप में 50,000 टुकड़े चांदी की घोषणा की। पवन के राजा जगन्नाथ सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाने के लिए अहमदुल्लाह शाह को अपने महल में आमंत्रित किया। जब मौलवी अपने युद्ध के हाथी पर अपने महल के द्वार पर पहुंचे तो राजा ने एक तोप शॉट से गोली मारकर उनपर हमला किया। इस हिन्दू विश्वासघाती राजा ने मौलवी को मार डाला।
यदि इस मुस्लिम स्वाधीनता सेनानी (1857) के नाम पर किसी को हिचक हो, तो दूसरा नाम है खानजादा राजा हसन खान मेवाती। वे उजबेकी लुटेरे जहीरूद्दीन बाबर से खंडवा (कंवाहा) के मैदान में लड़े थे। चित्तौड़ के राजा संग्राम सिंह के साथ थे। इसीलिए बाबर को राजपूत और सुन्नी-अफगान संयुक्त सेना से मुकाबला करना पड़ा था।
राजा हसन खान का जन्म अलावल खां मेवाती के घर मे हुआ था। उनके वंशज करीब 200 साल मेवात की रियासत पर राज करते रहे। बाबर उस समय हसन खां मेवाती से ही भयभीत था। हसन खां का क्षेत्र (मेवात) दिल्ली के समीप था। इस कारण हमेशा ही वह बाबर की आंखों में चुभता रहा। अतः बाबर ने राजा हसन खां को दोनों का एक ही धर्म होनी की बात कही। उसे लालच दिया, ताकि मेवात की रियासत की गद्दी पर कब्जा किया जा सके। लेकिन राजा हसन खां बाबर के लालच में न आए। उन्होंने कहा था : “तू विदेशी हमलावर है, इसलिए मैं अपने वतन के भाई राणा सांगा का साथ दूंगा।” खंडवा के मैदान में भयंकर युद्ध शुरू हुआ था। राजा हसन खां मेवाती अपने लाव-लश्कर और 1,200 सैनिकों को साथ लेकर राणा सांगा की मदद के लिए युद्ध के मैदान में कूद पड़े। लड़ते हुए हसन खां व उनके बेटे नाहर खान 15 मार्च 1527 को मैदान में शहीद हो गए। बाबर ने राजा हसन खान मेवाती को पत्र लिखा था : “बाबर भी कलमा-गो है और हसन ख़ान मेवाती भी कलमा-गो है, इस प्रकार एक कलमा-गो दूसरे कलमा-गो का भाई है। इसलिए राजा हसन ख़ान मेवाती को चाहिए की बाबर का साथ दे।”
राजा हसन ने बाबर को खत में लिखा : “बेशक़ हसन ख़ान मेवाती कलमा-गो है और बाबर भी कलमा-गो है, मग़र मेरे लिए मेरा मुल्क(भारत) पहले है और यही मेरा ईमान है इसलिए मैं राणा सांगा के साथ मिलकर बाबर के विरुद्ध युद्ध करूगा।” भारतीय मुसलमानों को सदैव याद रखना होगा कि इब्राहिम लोदी भारतीय बादशाह था। भारत में जन्मा, पला और सुल्तान बना। उसे उज्बेकी डाकू जहीरूद्दीन बाबर ने मार डाला था। बाबर ने इब्राहिम पर जेहाद बोला था। क्या विकृति थी ?