अतिपराक्रमी नेताजी सुभाष चंद्र बोस

रामबहादुर राय

नेताजी सुभाष चंद्र बोस अनोखे पराक्रम के प्रेरक पुरूष हैं। वे इतिहास पुरूष भी हैं। उन्हें इस रूप में प्रस्तुत करने की विशेष और बहुविध पहल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की। उसके परिणामस्वरूप नेताजी के अतिपराक्रम से देशवासी पुनः पुनः परिचित होते जा रहे हैं। नेताजी की 128वीं जयंती इस बार उनके जन्म स्थान कटक में पराक्रम दिवस के रूप में मनाई गई। पहले नेताजी की जयंती बहुत थोड़े लोगों के लिए एक यादगार का दिन होता था। वे लोग आजाद हिन्द फौज से जुड़ हुए होते थे। अब नेताजी की जयंती जगह-जगह उसी तरह से धूमधाम से मनाई जाने लगी है जैसा कि एक महानायक के जन्मदिन को महोत्सव के रूप मानाया जाना चाहिए। इस बार पराक्रम दिवस के दो आयोजनों ने देश-दुनिया का ध्यान खींचा। पहला आयोजन संविधान सदन में हुआ। जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य नेताओं ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आदर्शों को पुनःस्मरण किया। उन्हें अपनी ऋद्धांजलि दी। उनके महान योगदान से देश को परिचित कराया।

दूसरा आयोजन उड़ीसा प्रदेश के कटक नगर में था। हम जानते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म वहां हुआ था। इस बार नेताजी के जन्म स्थान की नगरी में पराक्रम दिवस का महोत्सव हुआ। जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑनलाइन संबोधित किया। उन्होंने लोगों से कहा कि नेताजी के जीवन पर लगी उस विशाल प्रदर्शनी को देखना चाहिए। जिसे देखकर अपने जीवन में प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने स्वतंत्रता के लिए युद्ध लड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कहा कि अब हमें विकसित भारत के लिए उसी प्रेरणा से कार्य करना है। यह याद रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन मात्र अवसर पर अभिव्यक्त किया गया एक विचार मात्र नहीं है। यह उनकी अडिग आस्था है। जिसे बताने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। कुछ ही वर्ष हुए हैं, जब नेताजी के जन्मदिन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पराक्रम दिवस घोषित किया।

यह 23 जनवरी, 2021 की बात है। उस दिन नेताजी की 125वीं जयंती थी। उससे पहले 19 जनवरी, 2021 को पराक्रम दिवस मनाने की अधिसूचना जारी की गई थी। इस तरह विधिवत पराक्रम दिवस घोषित हुआ। इंडिया गेट पर आज  नेताजी की भव्य प्रतिमा लगी हुई है। वह मनमोहक है। प्रेरक है। उस संघर्ष गाथा की प्रतीक है जिसके धागे से नेताजी का जीवन बंधा हुआ था। वह धागा हर भारतीय का है। वह भारतीयता का है। वह देशभक्ति का है। इस बार नेताजी के जन्मदिन पर शिक्षामंत्री धमेंद्र प्रधान ने ‘दी मार्निंग स्टैंडर्ड’ अखबार में एक लेख लिखा। उसका शीर्षक है, ‘पराक्रम दिवस: आनरिंग नेताजी’एस लीगेसी इन द हर्ट ऑफ उड़ीसा’एस हिस्ट्री।’ उन्होंने नेताजी के जीवन को तीन प्रतीकात्मक शब्दों में पुनः याद किया है, इतफाक (एकता), इतमाद (विश्वास) और कुर्बानी (त्याग)। ये शब्द नेताजी के हैं। इन्ही तीन शब्दों में अपने जीवन का रक्त संचार कर नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को युद्ध में उतारा था। 

नेताजी की स्मृति अमिट है। उन्होंने अपनी आजाद हिन्द फौज को प्रेरणा के तीन शब्द मंत्र रूप में दिए तो देश को ‘जय हिन्द’ दिया। 23 जनवरी, 2000 को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब नेताजी को याद करने के लिए खड़े हुए तो उन्होंनेइस तरह शुरूआत की, ‘सबसे पहले मेरे साथ तीन बार जय हिन्द का नारा लगाइए। जय हिन्द! जय हिन्द!! जय हिन्द!!! यह जय हिन्द का नारा नेताजी ने देश को दिया था। इस नारे में बड़ी प्रेरणा है, सबको जोड़ने की शक्ति है। आजाद हिन्द फौज स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए, जिसका गठन नेताजी ने किया था, इसी नारे को लगाते हुए आगे बढ़ी थी, युद्ध में उतरी थी। आज यह नारा सारे भारत का नारा बन गया है। नेताजी ने अगर आजाद हिन्द फौज का गठन न किया होता और उसके पहले अगर हमारी नियमित फौज में बगावत न हुई होती तो शायद अंग्रेज को भारत से जाने में और भी वक्त लगता।’ संस्कृति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने नवभारत टाइम्स में एक लेख लिखा है। उसका शीर्षक है, ‘नेताजी का कमाल एटली ने भी माना।’ यह शीर्षक उस घटना की याद दिलाता है जिसमें ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली से पूछा गया था कि भारत को स्वतंत्रता कैसे मिली। एटली ने माना था कि आजाद हिन्द फौज के कारण भारत की सेना में विद्रोह हुआ। वही स्वतंत्रता का सबसे बड़ा कारण बना।

ऐसे महानायक पर वर्षों से विवाद के घने बादल थे। सबसे बड़ा प्रश्न था, क्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु हुई? यह विवाद 70 साल चला। अनेक कहानियां गढ़ी गई। बहुत सारी पुस्तकें लिखी गई। उनमें नेताजी के जीवन को जितना रहस्यमय चित्रित किया गया उससे ज्यादा उनकी मृत्यु पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए। यह नेताजी के प्रति गहरे अनुराग का द्योतक था? क्या वह कुछ लोगों का कमाऊ धंधा था। क्यों भारत सरकार चुप थी? क्यों वे दस्तावेज नहीं सार्वजनिक किए जाते थे, जिनमें इन रहस्यों को भेदने के लिए प्रमाण थे? ऐसे अनेक प्रश्न हैं। वे भविष्य में धीरे-धीरे स्वयं बोलेंगे और उत्तर देंगे। तब पूरी सचाई से पूरा देश अवगत हो सकेगा। लेकिन नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु का सच समस्त रहस्यों को भेदते हुए प्रकट हो चुका है।

इसका भी श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को है। कैसे? यह जानना चाहिए। इस वर्ष के इंडियन एक्सप्रेस में 24 जनवरी को एक लेख छपा है। यह लेख अनिता बोस का है। वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बेटी हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली सरकार ने जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस से संबंधित गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक कर दिया और उसी क्रम में पश्चिम बंगाल की सरकार तथा नेताजी के परिवार ने भी अपने-अपने गोपनीय दस्तावेज भी सार्वजनिक कर दिए तो इसका यह परिणाम हुआ कि लोग इस मत के हो गए कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना में हुई थी।’ वह दुर्घटना दूसरे विश्वयुद्ध के समाप्त होने के तीसरे दिन हुई थी।

नेताजी का जीवन चमत्कारों से भरा रहा है। इसलिए विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु पर देशवासियों ने सहज विश्वास नहीं किया। इसके राजनीतिक कारण भी थे। फिर तरह-तरह की कहानियां चल पड़ी। यह मांग उठी कि जांच हो। जांच हुई भी। हर जांच से एक नया रहस्य निकलता था। तीन जांच आयोग गठित हुए। पहला, 1956 में। दूसरा, 1979 में। तीसरा, 1999 में। तीसरे जांच आयोग ने संदेह को बढ़ा दिया। इन संदेहों का एक बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि नेताजी की अस्थियां भारत नहीं आई। उन अस्थियों को जापान के रनकोजी मंदिर में सुरक्षित रखा गया है। उनका निधन ताईपेह में हुआ था। जो उस समय जापान के कब्जे में था। यह तथ्य प्रमाणित हो गया है कि विमान ने उड़ान भरी ही थी कि उसमें आग लग गई। जिससे नेताजी बुरी तरह झुलस गए और प्राण त्याग दिया। 

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की दुर्घटना में मृत्यु पर किसी को अगर भरोसा नहीं होता तो इसका कारण उनके जीवन की वे घटनाएं भी हैं जो किसी चमत्कार से कम नहीं है। उनके एक नाम से पूरा जगत परिचित है। वह है, सुभाष चंद्र बोस। इस नाम में चमत्कार इसलिए जुड़ा क्योंकि जिन दूसरे नामों से उन्होंने वे काम किए जो कोई सोच भी नहीं सकता था। 1941 में अंग्रेजों ने उनको उनके घर में कैद कर दिया। जिसे

आमतौर पर नजरबंद कहा जाता है। नजरबंदी से निकल जाना किसी चमत्कार से क्या कम है! यही नेताजी ने किया। वे अंग्रेजों की खुली आंखों पर पर्दा डालने में सफल हुए। जिसे आंखों में धूल झोंकना कहते हैं। वे उनके पहरे से निकले। उसी तरह जैसे छत्रपति शिवाजी औरंगजेब के पहरे से निकले थे।

यह जानना चाहिए कि उस समय उन्होंनेअपना नाम रखा, मौलवी जियाउद्दीन। उन्होंने जियाउद्दीन का रूप धारण किया। नेताजी बन गए जियाउद्दीन। अंग्रेज हाथ मलते रह गए। वे अंग्रेजी साम्राज्य को ललकारते हुए वहां पहुंचे जहां चाहते थे। फिर जर्मनी पहुंचे। वहां दूसरा नाम धारण किया, औरलेंडो मेजेरेटा। यह जर्मन नाम था। दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। भारत की स्वतंत्रता के लिए वे जर्मनी से जापान गए। पनडुब्बी में बैठे। सोचिए, पल-पल खतरा था। सागर पार करना था। वह भी एक नहीं अनेक! अपने लक्ष्य तक पहुंचना उनका अडिग ध्येय था। फिर नाम बदला। इस बार वे कमांडर मक्सूदा बने। यह उनके चमत्कारिक रणनीति का सुविचारित पथ था। ऐसे अनोखे पथिक की दुर्घटना में मृत्यु पर कौन भरोसा करेगा! लेकिन वह अनहोनी हुई। वह एक इतिहास की त्रासद दुर्घटना थी। उसे मन मसोस कर मान लेने में ही यथार्थ बोध है। इतिहास का यह सबक है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कीर्ति पताका जो बधी हुई थी वह खुल गई है। आकाश में फहरा रही है। अपना संदेश दे रही है। वह देशभक्ति का संदेश है। देशभक्ति में संपूर्ण समर्पण का संदेश है।

वह दिन अब दूर नहीं है। जब नेताजी की अस्थियां भारत आएंगी। उसे देशवासी अपने माथे पर लगाएंगे। जो संदेह थे वे मिट गए हैं। देश नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बलिदान से प्रेरणा प्राप्त कर विकसित भारत के लिए उनके मंत्रों को अपना जीवन ध्येय बनाएगा। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक चौथाई सदी पहले कहा था कि ‘जापान में रनकोजी के मंदिर में जो अस्थियां रखी हुई हैं, अगर सारे देश की एक राय हो जाए कि उन्हें लाना चाहिए तो हम उन्हें सम्मान के साथ लाकर लालकिले में प्रतिष्ठापित करने के लिए तैयार हैं।’ वह समय अब आ गया है।

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