अभिव्यक्ति का अधिकार: रुश्दी साहब! हम शर्मिंदा हैं

  शिवेंद्र सिंहपुलित्ज़र एवं नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमेरिकी उपन्यासकार टोनी मॉरिसन लिखती हैं, “निराश होने के लिए समय नहीं है, चुप रहने की ज़रूरत नहीं है, भय की कोई गुंजाइश नहीं है। हम बोलते हैं, हम लिखते हैं, हम भाषा को बरतते हैं। इस तरह सभ्यताओं के जख्म भरते हैं!” पर उन जख्मों का क्या जो इस प्रक्रिया में लेखकों के ऊपर लगते हैं.
  12 अगस्त की रात न्यूयॉर्क में एक कार्यक्रम के दौरान मशहूर लेखक एवं पत्रकार सलमान रुश्दी पर एक इस्लामिक कट्टरपंथी हदी मतार ने प्राणघातक हमला किया. वज़ह थीं व्हिटब्रेड पुरस्कार (कोस्टा बुक पुरस्कार) से सम्मानित 1988 में प्रकाशित उनकी किताब  ‘द सैटेनिक वर्सेज़’, जिसे इस्लामिक जगत ने ईशनिंदा माना है. 1989 में रुश्दी की हत्या का आह्वान करते हुए फ़तवा जारी कर दिया गया. यह हमला उसी फतवे को अंजाम देने का प्रयास था.
   दुःखद है कि पंथनिरपेक्षता, बहुलतावाद एवं सहिष्णुता की भूमि माना जाने वाला भारत सैटेनिक वर्सेज़’ को प्रतिबंधित करने वाला पहला देश था. इसके बाद ही इस्लामिक देशों ने इस पर प्रतिबंध लगाया. उस समय सलमान रुश्दी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को पत्र लिखकर इस पर ऐतराज जताया था. 1990 में एक लेख में रुश्दी ने भारत में अपनी किताब पर प्रतिबंध के लिए कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति कों जिम्मेदार बताया था.
  इस वीभत्स घटनाक्रम पर भारतीय साहित्य एवं पत्रकारिता जगत की आश्चर्यजनक चुप्पी समझ से परे है. क्या पत्रकारिता जगत की आत्म-चेतना इतनी कुंठित हो गई है कि एक लेखक पर मुस्लिम कट्टरपंथी द्वारा किये गये प्राणघातक हमले के प्रतिरोध का साहस नहीं जुटा पा रही है? क्यों आज सनातन समाज द्वारा की गई गलतियों के विरुद्ध आग उगलने वालों की कलम रुक गई है, आवाज रुंध गई है, लहू का जोश ठंडा पड़ गया है? कहीं यह परंपरागत चयनित विरोध एवं समर्थन की संस्कृति का ही अंग तो नहीं है? अथवा दक्षिणपंथी तबके द्वारा देश के पत्रकारिता एवं लेखकीय जगत पर वामपंथ से प्रेरित होकर इस्लामिक कट्टरपंथ के सामने मौन एवं सनातन धर्म के विरुद्ध अनावश्यक आक्रामकता प्रदर्शित करने के आरोप सत्य हैं?
   जहाँ तक याद आ रहा है, यही पत्रकारिता-लेखकीय जगत गौरी लंकेश एवं एम.एम. कलबर्गी की हत्याओं पर उबल पड़ा था. देश में फासीवाद के आगमन की चेतावनी तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एकजुटता के नारे लग रहे थे. फिर आज ऐसा क्या हो गया कि एक प्रतिभावान लेखक की सार्वजनिक रूप से क्रूरतापूर्ण हत्या के प्रयास पर पत्रकारिता जगत की आत्मा बिल्कुल नहीं कराहती. वो मौन है. क्या लेखकीय स्वतंत्रता का समर्थन अथवा विरोध चयनित तरीके से किया जाएगा. यदि आलोचना सनातन धर्म, भारतीय सभ्यता- संस्कृति की हो तो उसे बाधित करना पाप है. परन्तु यही आलोचना इस्लाम सहित अन्य शामी पंथों की हो तो यह समाज एवं राष्ट्र को तोड़ने का फासीवादी षड़यंत्र हैं.
 यह एक सामान्य अनुभव का विषय है, जब भी व्यक्ति अपने जीवन का शासन भौतिक मनोभावों को करने की छूट देता है तो धर्म और परंपरा से प्राप्त नियमों को परे हटा दिया जाता है. ऐसा ही बौद्धिक जगत के साथ हुआ है. भारतीय पत्रकारिता जगत पत्रकारिता मूल्यों को तो छोड़िए, अपने सांस्कृतिक-सामाजिक संस्कारों का भी सम्मान नहीं कर पाया. जहाँ ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’, ‘मुंडे-मुंडे मतिभिन्न’ के सिद्धांत स्वीकृत हैं. इसका कारण बौद्धिक जगत के तथाकथित प्रगतिशीलता एवं निरपेक्षता के तमगे से अलंकृत खोखले व्यक्तित्वों का पंथ विशेष की कट्टरता के सम्मुख खड़े होने के साहस का अभाव है. साथ ही अपने भौतिक लाभों की चिंता तो है ही.
  संभवतः सबसे बड़े दोषी रुश्दी साहब स्वयं हैं, क्योंकि उन्होंने इस्लाम की समीक्षा का प्रयत्न किया. उसी वक्त से यह हमला उनकी नियति बन चुका था. अगर वे इससे भी कटु आलोचना सनातन धर्म की करते, तब उन पर हमला तो दूर, उनके साथ कोई बदजुबानी भी नहीं होतीं. यदि आवेश में कोई ‘हिंदू’ ऐसी हरकत कर देता तो भारत ही नहीं पूरा विश्व देखता की किस प्रकार यहाँ का बौद्धिक जगत इसके  विरोध में ‘संसद से सड़क’ तक भूचाल ला देता. ध्यात्व है, 24 जून को केरल के वायनाड में कांग्रेस दफ़्तर में घुसकर एसएफआई (सीपीएम की छात्र शाखा) के कार्यकर्ताओं ने गाँधी जी तस्वीर तोड़ डाली. राष्ट्रपिता के इस अपमान पर वामपंथ प्रेरित बौद्धिक वर्ग बिलकुल खामोश है. कल्पना कीजिये की ये हरकत एबीवीपी के कार्यकर्त्ताओं की होती तो फासीवाद के नाम कोहराम मच गया होता.
  रुश्दी साहब भूल गए हैं कि इस देश का बौद्धिक जगत किस तरह से सुविधानुसार समर्थन एवं विरोध की अनैतिक परंपरा का वाहक बन चुका है. मकबूल फिदा हुसैन द्वारा हिंदू देवियों की नंगी और अभद्र तस्वीरें बनाना, वेंडी डोनिगर द्वारा अपनी पुस्तक ‘द हिंदूज – ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ में सनातन सभ्यता-संस्कृति का अपमान रचनात्मकता और उत्कृष्ट कलात्मकता है. किंतु इसका विरोध गैर-प्रगतिशीलता, रचनात्मकता-विरोधी तथा कलाकार की अभिव्यक्ति की क्षमता को कुंठित करने का प्रयास है. जबकि सलमान रुश्दी द्वारा डेढ़ हजार साल पुरानी ‘आसमानी’ किताब पर लेखन, तस्लीमा नसरीन का इस्लामिक कट्टरवाद के यथार्थ का वर्णन अक्षम्य अपराध है, लेखकीय मर्यादा का हनन है. तब तो रुश्दी साहब के साथ जो हुआ, वह अनुचित नहीं है तथा तस्लीमा नसरीन के साथ जो हो रहा है, संभवत: उसमें भी विरोध करने जैसा कुछ नहीं है.
 वास्तव में सलमान रुश्दी पर होने वाले इस हमले की कड़ी भर्त्सना की जानी चाहिए. यह संपूर्ण सभ्य समाज के लिए शर्मिंदगी का विषय हैं. जहाँ लेखकीय स्वतंत्रता के प्रयोग के कारण एक रचनाकार की सार्वजनिक रूप से क्रूरतापूर्ण हत्या का प्रयास किया जाता है. यह संपूर्ण बौद्धिक जगत को अपमानित एवं आतंकित करने करने का प्रयास है.
  इस दुष्कृत्य के मूल संदर्श को समझना आवश्यक है. इसी सन्दर्भ से सम्बंधित एक ऐतिहासिक घटना है. गांधी जी के अफ्रीका प्रवास के दौरान एक बार सड़क पर टहलते हुए उन्हें एक गोरे पुलिस वाले ने गैर-कानूनी ढंग से अकारण ही बिना किसी चेतावनी के लात मार दी. मिस्टर कोट्स नामक एक यूरोपीय इस घटना का चश्मदीद गवाह था. उसने गांधी जी से कहा कि वे इस पुलिस वाले के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कराएं और वह स्वयं उसके विरुद्ध गवाही देगा. लेकिन महात्मा गांधी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. उनका कहना था, ‘यह पुलिस वाला एक अन्यायी और अत्याचारी व्यवस्था का अंग है. अतः मुझे यह लात पुलिस वाले ने नहीं बल्कि उस व्यवस्था ने मारी है.’
 
 तात्पर्य यह है कि सलमान रुश्दी पर हमले का प्रतीक हदी मतार अवश्य है, लेकिन चाकू चलाने वाले हाथ उस वैचारिक-पंथीय व्यवस्था के थे. जिसे तर्क और वाक्-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वीकार्य नहीं है. जो समीक्षा के अधिकार की महत्ता को नहीं जानता. जिसे मानवीय गरिमा का अर्थ नहीं पता. जो सभ्यता के निर्माण में लेखक एवं कलाकारों के योगदान का मूल्यांकन करने में अक्षम है. प्रश्न यह है कि क्या मतार को गिरफ्तार करने या उसे सजा देने से इस समस्या का समाधान हो जाएगा? नहीं, मूल विषय उस व्यवस्था, प्रणाली और विचारधारा को समझना और उसमें सुधार का प्रयास करना है, जो विचार प्रकटन अथवा तर्कों के उपयोग मात्र से किसी व्यक्ति को मृत्युदंड का पात्र बना देती है.
  सलमान रुश्दी पर हमले का कारण बताते हुए हदी मतार का कहना था कि ‘वह कोई है जिसने इस्लाम पर हमला किया, उसने उनकी मान्यताओं, विश्वास प्रणालियों पर हमला किया है.’ हद है, अरे! ये कितनी कमजोर धार्मिक-विश्वासी प्रणालियां है, जो किसी लेखक की लेखनी मात्र से ध्वस्त होने लगती हैं. अगर ये प्रणालियां इतनी कमजोर हैं तो फिर विश्व को मुक्ति का मार्ग दिखाने में सक्षम कैसे होंगी?
 मतार अमेरिका में जन्मा है. एक ऐसे मुल्क में, जिसे सामान्यतः आधुनिकता का पर्याय , स्वच्छन्दता की जन्नत, संभावनाओं की भूमि, व्यक्तिवाद का स्वर्ग, भौतिकता का मानक एवं मानवीय सभ्यता की प्रगति का अनुपम उदाहरण माना जाता है. ऐसे वातावरण में पला-बढ़ा व्यक्ति अगर अपने पंथ के मध्ययुगीन सिद्धांतों को आधार बनाकर किसी लेखक की हत्या करने पर उतारू हो जाये तो उस पंथीय समाज को आत्मावलोकन एवं आत्मचिंतन की महती आवश्यकता है. अगर तर्क एवं विचारों का प्रतिउत्तर तलवारों से दिया जाएगा तो एक दिन पूरी दुनिया में इंसान नहीं सिर्फ तलवारें बचेंगी और सभ्यता आदिम स्थिति में पहुंच जाएगी.
   कट्टरता पर व्यंग्य करती पाकिस्तानी शायर सुलेमान हैदर की चर्चित कविता ‘मैं भी काफिर, तू भी काफिर’ की पंक्तियाँ हैं- 
      “मंदिर में तो बुत होता है, मस्जिद का भी हाल बुरा है
 

 कुछ मस्जिद के बाहर काफिर, कुछ मस्जिद के अंदर काफिर
 मुस्लिम देशों में मुस्लिम भी काफिर, गैर मुस्लिम तो हैं ही काफिर 
काफिर-काफिर मैं भी काफिर, काफिर-काफिर तू भी काफिर, 
काफिर-काफिर हम दोनों काफिर, काफिर-काफिर सारा जहाँ ही काफिर।”
 ये काफिरनामा और काफिरों-मुशरिकों को मिटाने की पंथीय कुंठा आखिर कहाँ जाकर रूकेगी.
  वैश्विक इतिहास में सूफ़ी मंसूर हल्लाज (9वीं-10वीं सदी), कवि गंग (16वीं सदी), जियोर्दानो ब्रूनो (16वीं सदी), स्वामी श्रद्धानंद (19वीं-20वीं सदी) जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं स्वमत के प्रति दृढ़ता के कारण प्राण गँवाये. सन् 1922 में अपने द्वारा लिखित राष्ट्रगीतों के कारण गिरफ्तार होने पर विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम ने ब्रिटिश न्यायालय से कहा था, “विनाश का यह नृत्य नये सृजन की पृष्ठभूमि है….. मैंने असीम शक्तिशाली शिव की तेज चुभती आवाज़ सुनी, मैंने उनके लाल नेत्रों के निर्देश को समझा…. मैं फिर से आश्वासन देना चाहता हूँ कि मैं भयभीत नहीं हूँ और न कोई पछतावा है. मैं अमर पिता का पुत्र हूँ. मैं जानता हूं कि सत्य को पीड़ित करने का अंत समय आ चुका है. अतः सत्य में ही मेरा भविष्य है.” पत्रकारिता एवं लेखन के मूल संस्कारों से आबद्ध किसी भी कलम के सिपाही को नजरुल इस्लाम की इस गर्जना को याद रखना चाहिए. साथ ही यह उन लोगों के लिए भी आवश्यक है जिन्हें ये भ्रम है कि हिंसा और हथियारों की शक्ति के बलबूते वे कलम की आवाज़ को दबा देंगे.
  संकीर्ण एवं कट्टर धार्मिक विश्वासों के विरुद्ध लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मसला हो तो वाल्तेयर का जिक्र लाजमी है. 18वीं सदी के फ्रांसीसी लेखक ‘वाल्तेयर’ चर्च के धार्मिक अंधविश्वास एवं कट्टरता के घोर विरोधी थे. उनका प्रसिद्ध कथन है, “इन बदनाम चीजों को नष्ट कर दो.” वाल्तेयर ने अपनी किताब ‘ट्रिटाइज ऑन टॉलरेन्स’ में तत्कालीन दौर में मानव जीवन के हर क्षेत्र, यथा-धर्म, समाज, राजनीति, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में व्याप्त असहिष्णुता एवं असहनशीलता की कटु आलोचना की. वह प्रश्न करते हैं, “ईश्वर ने क्या यह हाथ दूसरों की हत्या करने और सोचने के लिए दिये हैं?” “जिस ईसाई धर्म में दुश्मनों को भी प्यार करने की बात कही गई है, क्या वही ईसाई अपने भाइयों के हत्यारे नहीं है?” वाल्तेयर ने कई दशकों तक यूरोप को मध्यकालीन सड़ी-गली पंथीय मान्यताओं से निकालने के लिए कड़ा संघर्ष किया. फ्रेडरिक नीत्शे स्वयं ईसाईयत के गहरे आलोचक हैं. वे व्यंग्यपूर्वक कहते हैं, ईसाई अपने दुश्मन से इसलिए प्यार करता था कि वह चाहता था कि वह इसी आधार पर स्वर्ग जाये और दुश्मन को नरक की आग में जलता देखकर ख़ुश हो. इसीलिए उसने सारे सामाजिक मूल्यों और नैतिक मर्यादाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाया है.
 अतः समझने की जरुरत है कि आलोचना, समीक्षा, तर्क एवं परिवाद ऐसे मूल्य हैं जो किसी सभ्यता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं. ईसाई समाज की  प्रगतिशीलता एवं उन्नत यूरोपीय सभ्यता इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. मानव जाति का इतिहास बताता है कि उसने ऐसे विडंबनापूर्ण-संकीर्ण दौर के विरुद्ध संघर्ष करके ही प्रगति हासिल की है. विकास का चक्र सदैव अग्रगामी होता है. समय कभी वापस लौट कर नहीं आता है. जिस वर्ग, समुदाय या पंथ को इस बात की गलतफहमी है कि इस सभ्यता के चक्र को पीछे लौटाना संभव है, वह ‘स्वनिर्मित यूटोपिया’ के विभ्रम में जी रहा है. हाँ, ये जरूर है कि, ज़ब भविष्य में इस दौर की समीक्षा की जाएगी, तब तर्क के अधिकार एवं वाक्-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण एक प्रतिभावान लेखक की हत्या के प्रयास जैसे कुकृत्य के विरोध में मौन रहने वाले इतिहास के न्यायिक कटघरे में खड़े होंगे. उन्हें कम से कम अपने समर्थन में तर्क, माफ कीजियेगा, ‘कुतर्क’ तो तलाश ही लेने चाहिए.

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