कांग्रेस के राजकुमार एवं भारतीय जनतन्त्र पर जबरन मुसल्लत किये गये राहुल गाँधी और उनके नेतृत्व में विपक्ष लगभग दो वर्षों से अधिक समय से संविधान के संकटग्रस्त होने का आरोप लगाता रहा है. 2024 के आम चुनाव में विपक्ष का पूरा कैंपेन मुख्यतः इसी मुद्दे पर आधारित था. अब चुंकि चुनाव बीत गया है और विरोध का उन्माद भी, जनता का आदेश परिणाम के रूप में देश के समक्ष हैं. इसलिए ये सवाल राष्ट्रीय समाज के समक्ष अनिवार्य रूप से विचारणीय है कि राहुल गाँधी के नेतृत्व में बारम्बार लगाए जाने वाला यह आरोप सत्यता के कितने निकट है? क्या विपक्षी आरोपों के अनुरूप वास्तव में संविधान खतरे में है?
ध्यात्वय है कि जिस समय राहुल गाँधी संविधान में बदलाव एवं समाप्ति का नारा लगाते हूँ देश भर में रैलियां कर रहे थे, उसी समय दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में जेपी आंदोलन के तपे-परखे छात्र नेता रहे एवं वर्तमान में पद्मश्री से सम्मानित प्रतिष्ठित पत्रकार तथा संविधानविद् रामबहादुर राय संविधान पर संभाषण कर रहे थे. राय साहेब के अनुसार, न्यायशास्त्र में आधारहीन या अप्रमाणिक आरोप को ‘वितंडा’ कहते हैं. इसलिए राहुल गाँधी और उनके अनुगामी विपक्षी गठबंधन के नेता ‘वितंडावादी’ हैं. चुनावी अभियान में उनका यह अनर्गल प्रलाप यह जुगुप्सा और नकारात्मक उत्तेजना के प्रसार द्वारा जनता में सरकार विरोधी भावना के प्रसार का प्रयास रहा है.
आपातकाल के पूर्व और उसके बाद राय साहब के संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है. आईये इसे संक्षिप्त रूप में जानते हैं. आपातकाल सेनानी रामबहादुर राय उन दिनों अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय सचिव और बिहार के प्रभारी थे. 1970 में इंदिरा गांधी सरकार के अहंकारी रवैये के विरुद्ध काला झंडा दिखाते हुए रामबहादुर राय पहली बार गिरफ्तार किए गए थे. 1971 में जब जयप्रकाश नारायण मुक्ति वाहिनी के संघर्ष हेतु जनजागरण करते हुए वाराणसी पहुंचे तब उन्होंने शेख मुजीबुर्र्र रहमान के संघर्ष का अध्ययन करने के लिए रामबहादुर राय को 40 दिनों के लिए ढाका भेजा, जहां उन्होंने मुक्ति वाहिनी के संघर्ष पर नोट तैयार किया जो ‘आज’ अखबार में तीन किस्तों में छपा था. 16 नवंबर 1973 को राय साहब ने अहमदाबाद में विद्यार्थी परिषद की बैठक में घोषणा की थी कि देश में एक छात्र आंदोलन आवश्यक है. 1973 को पटना विश्वविद्यालय में विभिन्न छात्र संगठनों के सम्मेलन में ‘वारसा संधि’ के नाम पर वामपंथी छात्र संगठनों को बाहर निकालने की योजना के सूत्रधार भी रामबहादुर रहे थे. वे फरवरी, 1974 को पटना में आयोजित बिहार राज्य छात्र सम्मेलन में 12 सूत्री मांगू को लेकर बनाई गई छात्र समिति में के सदस्य होने के साथ ही 18 मार्च, 1974 को बिहार विधानसभा घेराव का ब्लू प्रिंट बनाने वाली टीम का भी हिस्सा रहें हैं.
9 अप्रैल 1974 को पटना से गिरफ्तार किए गए राम बहादुर राय सबसे पहले मीसा बंदी थे जो 11 नवंबर 1974 तक बांकीपुर जेल में कैद रहे थे. इसके विरुद्ध डॉ. एन.एम.घटाटे ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की. जिसके बाद 12 नवम्बर, 1974 को न्यायालय ने इस गिरफ्तारी को असंवैधानिक ठहराते हुए कहा था कि, ‘किसी शांतिपूर्ण प्रतिरोधकर्त्ता को बंदी बनाना असंवैधानिक है.’ स्वयं जयप्रकाश नारायण ने 18 नवंबर, 1974 को अपने भाषण में रामबहादुर राय की गिरफ्तारी का विरोध किया.
जेल से छूटने के बाद वे पुनः लोकतंत्र संरक्षण अभियान में लग गए. आपातकाल लागू होने के दौरान वे बनारस में थे, जब कांग्रेस के एम.पी. सुधाकर पांडे की मुखबारी के आधार पर पुलिस ने उन्हें विश्ववेश्वरगंज से राजघाट जाते हुए रास्ते में घेरकर गिरफ्तार कर लिया. यहीं से उन्हें शिवपुरी जेल भेज दिया गया जहां वे मध्य नवंबर, 1976 तक डी.आई.आर. में बंद रहे थे. जेल से छूट कर पहले भूमिगत रूप से और बाद में 77 के आम चुनाव में उन्होंने एक बड़ी भूमिका निभाई.
अतः यह प्रत्यक्ष प्रमाणित है कि लोकतंत्र के आताताई सर्वाधिकारवादी सत्ता के वंशवादी प्रतिनिधि के दुष्प्रचार के विरुद्ध रामबहादुर राय प्रश्न करने का पूर्ण सामर्थ्य रखते हैं, ना सिर्फ देश के एक सम्मानित नागरिक की हैसियत से बल्कि इसलिए भी क्योंकि वे इस अधिनायकवादी परिवार के क्रूर षड़यंत्र के प्रत्यक्षदर्शी भी हैं तथा भुक्तभोगी भी और साथ ही आपातकाल विरोधी दुर्घष संघर्ष के सेनानी भी हैं. अतः राय साहेब के प्रतिवाद को राहुल गाँधी को सुनना चाहिए.
राय साहेब ने अपने सम्बोधन में राहुल गाँधी से तीन सवाल किये. पहला, देश का संविधान यदि कांग्रेस, सोनिया एवं राहुल गाँधी समेत पूरे विपक्ष के अनुसार खतरे में है तो किस बात का खतरा है यानि इस आक्षेप का आधार क्या है? दूसरा, क्या इसका कोई स्पष्ट उदाहरण है कि पिछले 10 सालों में भाजपा सरकार ने संविधान की कोई अवहेलना की है, जैसा कि नेहरू, इंदिरा गाँधी से लेकर राजीव गाँधी तथा मनमोहन सिंह तक के कार्यकाल में किया गया? उनके शासन काल में संविधान का जिस तरह अपमान हुआ उसके तो प्रत्यक्ष उदाहरण उसके भरे पड़े हैं. नेहरू ने बोलने की आजादी छिनी तो इंदिरा ने जीने की आजादी. राजीव गांधी ने डाकघर (संशोधन) विधेयक के रूप में प्रेस एवं व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी छिनी तो वही मनमोहन सिंह ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए सच्चर आयोग के आधार पर संविधान की मूल अवधारणा का ही ध्वन्स करना शुरू कर दिया. उन्होंने अल्पसंख्यकों को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का. पराया किया. राय साहेब का तीसरा प्रश्न कांग्रेस एवं राहुल गाँधी से यही है कि वे यह बताएं कि क्या संविधान केवल माइनॉरिटी का है या सबका है? कांग्रेस सरकार में जामिया मिलिया और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी समेत बहुतेरे संस्थानों से दलितों-पिछड़ों का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे दिया गया.
राहुल गाँधी के आरोपों की निरर्थकता के विरुद्ध राय साहेब एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, वर्तमान सरकार ने 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम पारित करवाया जिसे दोनों सदनों ने भारी बहुमत से स्वीकार किया लेकिन तब इसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मूल ढांचे का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया गया इसके बावजूद भाजपा सरकार ने संयत रुख अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा को कायम रखा. हालांकि विधि मंत्री के रूप में किरण रिजीजू ने विभिन्न मंचों पर न्यायालय के रुख का सार्वजनिक विरोध किया जिसके कारण उन्हें अपनी कुर्सी गवानी पडी. उपराष्ट्रपति धनखड़ ने भी राज्यसभा में इस बात को उठाया. लेकिन सरकार ने इस पर न्यायपालिका का सम्मान बनाये रखा.
‘पाञ्चजन्य’ में पिछले दिनों लिखें एक लेख में रामबहादुर राय ने राहुल गाँधी को अनपढ़ तक कह दिया. अब पता नहीं राहुल गांधी कितने शिक्षित हैं, परन्तु एक बात तो तय है कि वे देश के आधुनिक इतिहास से परिचित नहीं है. और वही क्यों वंशवाद-परिवारवाद की उपज ये विपक्ष के बिना संघर्ष के नेताओं का भी इतिहास बोध निम्न है इसलिए उन्हें संविधान को अपमानित करने एक संवैधानिक मूल्यों का हनन करने वालों का इतिहास जानने की आवश्यकता है जो राय साहेब ने अपने प्रश्नों में बताने का प्रयास किया है.
संविधान ख़त्म करने और उसके मूल ढांचे को परिवर्तित करने के लिए सत्ताधारी पार्टी का सांगठनिक ढांचा एकात्मक, अंधव्यक्तीवादी एवं उसके मुखिया का चरित्र अधिनायकवादी होना चाहिए. फिलहाल उन्हें समझने की आवश्यकता है कि यह अवगुण भाजपा में नहीं है लेकिन यह हमेशा से उनके अपने दल कांग्रेस एवं नेहरू परिवार के डी.एन.ए.में मौजूद रहा है. जिसकी. प्रमाणिकता कुछ उदाहरणों से समझी जा सकती है.
सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के द्वारा देश पर जबरन थोपे गये प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बात जिन्होंने शुरुआत से ही संवैधानिक आदर्शो के प्रति तिरस्कारपूर्ण भाव रखा. इसका विवरण रामबहादुर राय ने अपनी किताब ‘संविधान:अनकही कहानी’ में दिया है. 16 मई, 1951 को प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू प्रेस और न्यायपालिका के मुखरता से कुपित होकर लोकतंत्र का गला दबाने की आतुरता में संविधान संशोधन का प्रस्ताव लेकर आये. यह पहला संशोधन मूल संविधान के पुर्नलेखन का प्रस्ताव था. तमाम विरोधों के बावजूद अपने अधिनायकवादी रवैये और षडयंत्रों के माध्यम से अंततः नेहरू जनमत की आवाज दबाने में सफल रहे, जिसके परिणामस्वरुप 18 जून, 1951 को संविधान संशोधन लागू हुआ.जिसके अनुसार अनुच्छेद 15, 19, 85, 87, 174, 176, 341, 342, 376 अतःस्थापित अनु.-31 (क), 31 (ख) और नौवीं अनुसूची संविधान में जोड़ी गई. अनुच्छेद 19 को संशोधित करते हुए ‘युक्तियुक्त’ परंतुक जोड़ा गया. साथ ही अब भारतीय दंड संहिता की धारा-124 और 153 ए, वापस अस्तित्व में आ गई थी.
इस असंवैधानिक कृत्य के माध्यम से तानाशाह नेहरू ने न्यायपालिका के निर्णय के पलटने की शुरुआत की. यह संविधान पर कालिक पोतने के पहले चरण की शुरुआत थी, जिसे बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने नए आयाम तक पहुंचाया. वैसे भी नौवीं अनुसूची के माध्यम से सरकार के रूप में उन्हें हर तरह के संवैधानिक निर्णय को लागू करवाने का अधिकार मिल ही चुका था तो अब वह आधार बन चुका था जिसपर आगे उनकी बेटी संविधान के मूल ढांचे को ध्वस्त करने वाली थी.
इस कृत्य के पीछे की मूल वजह का विवरण देते हुए रामबहादुर राय लिखते हैं, ‘ सरदार पटेल का निधन होना, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और केसी नियोगी का नेहरू-लियाकत समझौते के विरोध में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे देना, अर्थशास्त्री डॉक्टर मथाई का आर्थिक नीतियों पर मतभेद के कारण मंत्रिमंडल से बाहर आ जाना जैसी घटनाओं के कारण नेहरू सरकार और कांग्रेस पार्टी में निरंकुश हो गए थे. इसके अतिरिक्त संविधान से प्राप्त मौलिक अधिकारों को लोग न्यायपालिका से अर्जित करने लगे थे. ब्रिटिश शासन के काले कानून को अदालत में एक के बाद दूसरी और निरंतर चुनौतियां मिलने लगी थी. “
ऐसे में वंशवाद की अयोग्य उपज नेहरू कैसे चुप रह जाते. संशोधनों पर जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लोकसभा में कहा था, ‘नेहरू सरकार ने संविधान के मौलिक सिद्धांतों को पलट दिया है, जिससे नागरिक स्वतंत्रता में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ेगा. अलोकतांत्रिक कदम उठाए जाएंगे.’ नेहरू उन अधिकारों मौलिक अधिकारों की हत्या कर रहे थे जिनके लिए 1895 से ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने लड़ाई लड़ी थी. जिसके लिए 1929 में रावी के तट पर पूर्ण स्वराज का संकल्प लिया गया था, यानी यह स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के बड़े हिस्से का अपमान था. जैसे की राय साहब लिखते हैं, ‘अनेक पीढ़ियों की आकांक्षा जिस संविधान में साकार हुई थी, संविधान के पहले संशोधन से पं. नेहरू उसकी हत्या कर रहे थे.’ इसके माध्यम से लोकतंत्र में पत्रकारिता की आवाज दबाई गई रमेश थापर के क्रॉस रोड्स जैसे कम्युनिस्ट पत्र ही नहीं बल्कि राष्ट्रवाद की मुखर आवाज ऑर्गेनाइज जैसे पत्रिकाओं को भी प्रतिबंधित किया गया.
संविधान के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया नहीं बल्कि नेहरू लोकतंत्र की गरिमा का भी सम्मान नहीं करते थे. ऐसे वाकये हैं ज़ब उनके संज्ञान में चुनाव में धांधली हुईं. 1963 में अमरोहा लोकसभा उपचुनाव में आचार्य कृपलानी को हराने के लिए उतारे गये हाफ़िज मोहम्मद इब्राहिम का नामांकन पत्र तय समय बीत जाने के बाद भी स्वीकार किया गया और इसके लिए जिलाधिकारी ने घड़ी की सुईया पीछे करवा दीं.इस घटना की रिपोर्ट अंग्रेजी साप्ताहिक “करन्ट” (28-30 अप्रैल 1963) में प्रमुखता से छपी थी कि कैसे कांग्रसी उम्मीदवार के अवैध नामांकन पत्र को घड़ी घुमाकर वैध किया गया.
उनकी बेटी इंदिरा भी बाद में अपने पिता के ही नक़्शे-कदम पर चलीं. उनके नेतृत्व काल में लखनऊ विधानसभा क्षेत्र के आम चुनाव (1974) में चन्द्रभान गुप्त (कांग्रेस (निजलिंगप्पा) के प्रत्याशी) की जमानत जब्त हो गईं. बाद में तब के इन्दिरा-कांग्रेस के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने स्वीकार किया कि उनकी जमानत जब्त कराने के लिए मतपेटियों में हेराफेरी की गईं. थे।
नेहरू जो कि खुद को ‘एक्सीडेंटल’ हिंदू मानते थे, सनातन धर्म विरोध का प्रामाणिक इतिहास भी जानिए. स्वतंत्रता के पश्चात् सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार (जो नेहरू की नजर में गैर-जरुरी था) के बाद नेहरू सरकारी खर्च से अयोध्या के बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण करवाना चाहते थे. तब सरकार पटेल ने इसका कठोर विरोध करते हुए. नेहरू को रोक की सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण स्वतंत्र न्यास ने किया है. किसी सरकारी धन से यह नहीं हुआ है.
22 फरवरी 1949 को जब बी. टी. रणदिवे के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने भारत पर कब्जा करने के लिए हथियारबंद विद्रोह प्रारंभ किया तो गृह मंत्री सरदार पटेल ने कठोर कार्रवाई की जबकि नेहरू कम्युनिस्ट षड्यंत्र की वकालत करते हुए उन्हें नैतिक समर्थन देने के प्रयास में लगे थे. यही नहीं सरदार पटेल के निधन के बाद गिरफ्तार कर जेल में डाले गए इन कम्युनिस्ट विद्रोहियों को सम्मान के साथ ऐसे बाहर लाया गया जैसे वह कोई क्रांतिकारी हो.
सर्वविदित है कि भारत के लिए नासूर बन चुके कश्मीरी अलगाववाद के लिए नेहरू ही जिम्मेदार थे लेकिन उनकी चारित्रिक हीनता का प्रमाण देखिए कि जब जम्मू-कश्मीर की स्थिति बिगड़ने लगी तब 24 जुलाई 1952 को लोकसभा में झूठा बयान देते हुए उन्होंने सारी समस्या को सरदार पटेल के ऊपर डालने की कोशिश की और कहा कि, ‘सरदार पटेल ही जम्मू-कश्मीर का सब काम देख रहे थे.’
अन्यत्र ज़ब भारत विभाजन के खलनायकों में से एक लार्ड माउन्टबेटन की पत्नी एडविना, जिनके नेहरू से अनैतिक सम्बन्धों के कई काले पन्ने हैं, की 1960 में मृत्यु हुई तो उन्हें उनकी इच्छानुसार समुद्र में दफनाया गया. तब राष्ट्रीय चचा नेहरू ने भारतीय नौसेना के फ्रिगेट आईएनएस त्रिशूल को एस्कॉर्ट के रूप में और साथ ही उनकी याद में मैरीगोल्ड के फूलों की पुष्पांजलि देने के लिए भेजा. इतना ही नहीं अपनी विदेशी महिला मित्र के लिए सारे संवैधानिक तकाजों को ठोकर मारकर संसद में मौन रखवाया.
नेहरू के ऐसे दुष्कृत्यों का पूरा चरित-काव्य है लेकिन अब भारत ही नहीं बल्कि 20वीं सदी की पहली महिला तानाशाह इंदिरा गाँधी के संविधान सम्मान की गाथा पर एक दृष्टि डाल लें. राहुल गाँधी अक़्सर भाजपा पर दलित-आदिवासी विरोधी होने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन बताते चलें कि मध्यप्रदेश में आदिवासियों के हितरक्षक राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की 25 मार्च 1966 की रात को इंदिरा गाँधी द्वारा प्रश्रय प्राप्त द्वारका प्रसाद मिश्र के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार के निर्देश पर हुईं पुलिस फायरिंग में मृत्यु हो गईं. रामबहादुर राय इसे विशुद्ध रूप से कांग्रेस सरकार द्वारा प्रायोजित हत्या बताते हैं. इसके बाद ही बस्तर के जंगलों में नक्सली संघर्ष की शुरुआत हुईं. इस घटना के विरोध में संसद में तत्कालीन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा आवाज उठाई गईं थी.
बांग्लादेश युद्ध के पश्चात् 1972 तक इंदिरा भारतीय राजनीति पर छा गईं थीं, विपक्ष में कोई ऐसा नहीं था जो उनके बरअक्स उन्हें चुनौती दे सके. दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता से लेकर कई राज्यों में अभी भी कांग्रेस की सत्ता थी. इंदिरा के मन में तब इस अहंकार ने घर कर लिया था कि वे देश को जैसे चाहे वैसे चला सकतीं हैं. इससे पूर्व कांग्रेस के पुराने नेताओं को पराभुत करने एक पार्टी को विभाजित करके उस पर एकाधिकार स्थापित करने के पश्चात् इंदिरा स्वयं को अपरिमित एवं अजेय मानने लगीं थीं.
1969 के राष्ट्रपति चुनाव में वी. वी. गिरी को जिताने के लिए जो दल-बदल और पार्टी को धोखा देकर जनप्रतिनिधियों की ‘आत्मा की आवाज़’ मतदान की जो घृणित परंपरा प्रारम्भ हुईं उसकी जनक इंदिरा गाँधी ही थीं. अपने पिता के नक़्शे कदम पर चलते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री एवं पार्टी अध्यक्ष, दोनों पदों पर कब्ज़ा जमा लिया. पूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी मानते हैं कि, ‘1969 में कांग्रेस पार्टी का विभाजन कर अपना वर्चस्व स्थापित करने के निर्णय के पीछे मुख्य कर्म में से एक असुरक्षा थी. जनसंघ पर उनकी हत्या करने के लगाए गए आरोप के प्रत्तिउत्तर में इंदिरा गांधी के साथ अघोषित निष्फल और निराशाजनक बैठक से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वह सत्ता-लोलुप थीं, जो स्वयं को जवाबदेह तथा विवेक के सामान्य मानदंडों से भी ऊपर मानती थीं. इतिहास में सभी निरंकुश को शासकों में ऐसे लक्षण दिखे हैं.’
लेकिन इंदिरा गाँधी के संविधान और लोकतंत्र के विरुद्ध अमर्यादित मानसिकता का सबसे विकृत रूप आपातकाल में परिलक्षित हुआ. 26 जून, 1975 से लेकर 23 मार्च, 1977 तक का कालखंड भारतीय लोकतंत्र के चेतना के हर स्वरुप चाहे वह चेतन हो या अवचेतन, में एक वीभत्स याद के साथ गहरे तक पैठा है. इसका मुख्य कारण था कि इंदिरा गांधी निर्देशित प्रजातंत्र का एक नया ढांचा विकसित करना चाहतीं थीं. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर लिखते हैं, “उस वक्त कुछ शक्तियां थी जो नया सिद्धांत लागू करके इस देश में कम्युनिज्म धीरे-धीरे सरकारी तंत्र का उपयोग करके लाना चाहती थी. उन्होंने ही इमरजेंसी के लिए इंदिरा जी को सलाह दी और उनका साथ भी दिया.” वैसे भी संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करके इंदिरा अपने इरादे जाहिर कर ही चुकी थीं और पं. नेहरू की भांति उनका वामपंथ की और झुकाव सर्वविदित ही है. बीजू पटनायक से इंदिरा गांधी ने स्वयं कहा था कि उन्हें वैसे ही अधिकार चाहिए हैं जैसे मार्शल टीटो (युगोस्लाविया) और नासिर( मिस्र) को मिले हुए थे.
व्यक्ति पूजा की निकृष्टता की चरम सीमा को छूते हुए दिल्ली में 23 जून 1975 को आयोजित एक रैली में कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा तेरे सुबह की जय, इंदिरा तेरे शाम की जय, इंदिरा तेरे काम की जय, इंदिरा तेरे नाम की जय’ का गायन किया. उनके बेटे और इस अधिनायकवादी सत्ता के भागीदार संजय गांधी को ‘नए दौर का स्वामी विवेकानंद’ कहा जाने लगा.आपातकाल में संजय गांधी समानांतर सत्ता के संरक्षक और नायक बन गए थे. शाह आयोग ने इस प्रक्रिया को ‘चारों तरफ रातोरात तानाशाहों का उगना’ कहा था. संजय गाँधी, जो दून स्कूल से अधूरी पढ़ाई छोड़कर निकले और इंग्लैंड में रोल्स-रॉयस कंपनी में एक मोटर मैकेनिक का काम कर चुके थे उनके पास कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं थी लेकिन राजनीति में आने के लिए व्यग्र थे. ठीक राहुल गाँधी की भांति जिन्हें सोनिया गाँधी ने भारतीय राजनीति वैसे ही थोपा जैसे इंदिरा गाँधी ने अपने दौर में संजय गाँधी को थोपा था.
वैसे बताते चलें कि पद एवं गोपनीयता की संवैधानिक मर्यादा को भंग करके सरकारी तन्त्र को परिवार की जागीर बनाने की परंपरा भी इंदिरा गांधी ने ही प्रारम्भ की जिसका निर्वहन मनमोहन सरकार में सोनिया गाँधी करती रहीं थीं. इंदिरा गाँधी के वफ़ादार बी.एन.टंडन, जो पी. एम. ओ. में संयुक्त सचिव थे, के अनुसार प्रधानमंत्री कार्यालय का कार्य संजय गाँधी देखते थे. गुप्त आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भी आपातकाल के बहुत पहले ही प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का आदेश था कि सभी फाइलें संजय गाँधी के आदेश के बाद ही जायेंगी. यानि इंदिरा ने अपने बेटे को अनाधिकृत रूप से प्रधानमंत्री के पद और अधिकारों का प्रयोग करने की इजाजत दे रखी थीं. संजय गाँधी ने स्वयं क़ानून मंत्री एच. आर. गोखले से कहा था कि कोई भी उनसे ऊपर नहीं है.
ख़ैर नेहरू-गाँधी परिवार द्वारा लोकतान्त्रिक मर्यादा को अपमानित करते हुए लागू किये गये आपातकाल के परिणाम का एक संक्षिप्त अवलोकन करिये. सरकारी दस्तावेजों के अनुसार आपातकाल के दौरान मीसा जिसे ‘इंदिरा-संजय सुरक्षा क़ानून’ कहा जाता था, के अंतर्गत 34,988 तथा डी.आई.एस.आई.आर. के अंतर्गत 75, 818 व्यक्ति गिरफ्तार किए गए. ध्यात्वय है कि मीसा क़ानून मूलतः संसद द्वारा विदेशी ताकतों के एजेंटों की खुफिया गतिविधियों को रोकने के लिए 1971 में बनाया गया था. जिसे आपातकाल के दौरान संशोधित करते हुए नागरिकों विशेष कर विरोधी दल के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का मुख्य आधार बना दिया गया. कुख्यात नसबंदी अभियान के दौरान देशभर में 1975-76 में 26 लाख 24 हजार 755 व्यक्ति प्रभावित हुए वहीं 1976-77 में यह संख्या तीन गुना बढ़कर 81 लाख 32 हजार 209 हो गई. सहायक के अनुसार नसबंदी के कारण कल 1774 मौतें हुई.
इस दौरान प्रशासनिक व्यवस्था में निरंकुशता के कारण 25,000 सरकारी कर्मचारियों को जबरन सेवा मुक्त किया गया. सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 2 नवंबर, 1975 को पारित संविधान के 42वें संशोधन के जरिए 59 प्रावधानों को परिवर्तित करते हुए इन्होंने न्यायपालिका की समीक्षा के अधिकार से बाहर कर दिया गया. इसी समय संविधान की प्रस्तावना को अपमानित करते हुए उसमें जबरन समाजवाद तथा धर्मनिरपेक्ष जैसे गैर-भारतीय अवधारणा अवधारणाएं जोड़ी गईं. संविधान की धारा 19 को स्थगित करके नागरिकों को धारा 14, 21 और 22 द्वारा प्राप्त सभी संवैधानिक अधिकार निरस्त कर दिए गए. 39वें संविधान संशोधन के जरिए जन-प्रतिनिधित्व कानून,1951 को बदल दिया गया. गुजरात और तमिलनाडु की गैर-कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया. नगरों के सुंदरीकरण के नाम पर 4000 से अधिक गरीब बस्तियों को उजाड़ दिया गया.
प्रेस को दुरुस्त करने का हुक्म दिया गया, जिसे ना मानने पर आई.के. गुजराल को हटाकर उनकी जगह सूचना और प्रसारण मंत्री बनाए गए विद्याचरण शुक्ल ने विद्युत आपूर्ति बाधित करने से लेकर सेंसरशिप के नियम कड़े करने जैसे कई कारनामों से प्रेस की कमर तोड़नी शुरू की. ओपिनियन, सेमिनार, जनता, इंडियन ओपिनियन, हिम्मत, पॉइंट ऑफ़ व्यू, पांचजन्य मदरलैंड जैसे कई पत्र-पत्रिकाएं बंद कर दिए गए. सरकार ने लगभग 40 अखबारी संवाददाताओं का मान्यता-पत्र रद्द कर दिया.
भारतीय लोकतंत्र में संगिनों के बूते सत्ता पर काबिज होने का तरीका भी राहुल गाँधी की दादी इंदिरा ने ही ईजाद किया था. आम जनता में भय पैदा करने के लिए पुलिस के साथ-साथ युवक कांग्रेस के लम्पटों द्वारा हथियारों एवं गोलीबारी के द्वारा आतंक पैदा किया गया. इससे जेपी जैसे लोकनायक भी नहीं बख्शे गये. 5 जून, 1974 को गांधी मैदान से राजभवन के लिए निकल गए जेपी जुलूस में दिल्ली रोड के भाई और अवस्थित ऑफीसर्स फ्लैट के द्वितीय तल से कुछ लोगों ने जुलूस पर फायरिंग की जिसका निशान जयप्रकाश नारायण थे. इसमें कई प्रदर्शनकारी घायल हुए. जांच के बाद पता चला कि यह फ्लैट कांग्रेस विधायक फुलेना राय का सरकारी आवास था जहां से इंदिरा बिग्रेड का काम का चलाया जाता था. तलाशी में यहां जिंदा और खाली कारतूस के अतिरिक्त दो बंदूके और 11 अपराधियों को पकड़ा गया. बाद में जेपी द्वारा पुलिस को दिये गये एक पत्र की जांच से पता चलता है कि इंदिरा गाँधी द्वारा प्रश्रय प्राप्त तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को षड्यंत्र की पूरी जानकारी थी.
वर्तमान में राहुल गाँधी के संविधान खतरे में हैं का भ्रामक नारा लगाना उनके ‘पारिवारिक जीन’ का असर है. राजनीतिक वितंडा यानि निराधार आरोप लगाने में इंदिरा गाँधी भी माहिर थीं. उनके राजनीतिक षड्यंत्र एवं जुबानी कुप्रवृत्तियों के बहुत से किस्से मशहूर है. भुवनेश्वर की एक सभा में. उन्होंने जेपी के ऊपर पूंजीपतियों से पैसा लेने का आरोप लगाया. उन जेपी पर जो एक बड़ी नैतिक सत्ता के मालिक थे, जिन्हें धन एवं राजनीतिक सत्ता का आकर्षण छू तक नहीं पाया था. इतना ही नहीं वे जयप्रकाश नारायण, पीलू मोदी जैसे नेताओं को सी.आई.ए. का एजेंट कहकर बदनाम करतीं थीं.
रामबहादुर राय लिखते हैं, ‘ यह सच है, जवाहरलाल नेहरू अपनी बयानबाजी के लिए कांग्रेस में कुख्यात थे. मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी उनके एक बयान को भारत विभाजन का कारण माना था.’ तो नेहरू की बेटी ने अगर जेपी पर अशोभनीय बात कही तो इसमें कौन सी अनोखी बात थी. एक बार उन्होंने प्रत्यक्ष आरोप लगाते हुए कहा कि, ‘जनसंघ मेरी हत्या की योजना बना रहा है.’ एक जिम्मेदार राजनीतिक दल पर ऐसे तुच्छ एवं घटिया लगाने पर जनसंघ के नेताओं ने उनसे मिलने का निर्णय लिया किन्तु तब वे अपने आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं प्रस्तुत कर सकीं और ना ही अपने अहंकार के वशीभूत होकर उन्होंने अपना आरोप वापस लिया. उस बैठक में शामिल पूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी कहते हैं, ‘ उसे बैठक ने मुझे इंदिरा गांधी का आकलन करने के लिए मजबूर किया कि उनके निरंकुश व्यक्तित्व के दो पहलू हैं, असुरक्षा और घमंड.’
आज न्यायपालिका के रक्षक बन रहे राहुल बाबा एन्ड कंपनी को ज्ञात होना चाहिए कि इस देश में न्यायिक प्रणाली को सुनियोजित रूप से इंदिरा गाँधी ने भ्रष्ट करना शुरू किया ताकि उन्हें ‘अपने लिए प्रतिबद्ध’ न्यायापालिका प्राप्त हो सके. आपातकाल में न्यायपालिका की कमर तोड़ दी गई थी. इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने जिन्होंने समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए 12 जून 1975 को अपने फैसले में इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को रद्द करते हुए 6 वर्ष के लिए किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था, उन्हें ‘ठीक करने’ का संदेश भेजा गया. उनकी अब तक के करियर से जुड़ी सभी कागजातों की बड़ी बारीकी से जांच की गई. उनके सगे-संबंधियों को परेशान किया गया और चौबीस घंटे उनकी जासूसी की गई. इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की मांगों पर खरा ना उतरने वाले 16 न्यायाधीशों का तबादला कर दिया था. बहुत कम ऐसे न्यायाधीश थे जिनमें सही और निडर फैसला देने की हिम्मत थी. न्यायमूर्ति एस.रंगराजन और न्यायमूर्ति आर.एन.अग्रवाल जैसे कुछ ही न्यायाधीश थे जिन्होंने कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी को गलत बताते हुए उन्हें रिहा कर दिया. इसके बाद इंदिरा गाँधी ने प्रतिशोध लेते हुए उन दोनों न्यायाधीशों को कर्तव्य पालन का दंड दिया. रंगराजन का सुदूर गुवाहाटी में तबादला किया गया. तथा अग्रवाल जो दिल्ली के सिर्फ कार्यकारी न्यायाधीश थे उन्हें वापस सेशन जज बना दिया गया. पुनः बन्दी प्रत्यक्षीकरण संबंधित याचिकाओं की सुनवाई के लिए गठित पांच सदस्य संवैधानिक पीठ में जस्टिस एच.आर. खन्ना को छोड़कर बाकी सभी जजों ने सरकार के रुख का पक्ष लिया जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ के पिता वाई.वी.चंद्रचूड़ समेत ए.एन. रे, एम.एच.बेग, पी.एन.भगवती शामिल थे. वाई. वी. चंद्रचूड आपातकाल के बाद अपने फैसले पर खेद प्रकट करने लगे की उन्होंने गलती से सरकार का पक्ष लिया. वही जस्टिस खन्ना को उनके संवैधानिक निष्ठा के लिए दण्डित करते हुए सुपरसीड करके उनके जूनियर जस्टिस बेग को भारत का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया. न्यायधीशों का आचरण इतना पतनशील हो गया कि चीफ जस्टिस रे ने इंदिरा गांधी के परोक्ष प्रोत्साहन के बाद संविधान के मूल ढांचे में छेड़छाड़ करने के लिए खुद ही उसके मूल ढांचे की समीक्षा करने के लिए 11 न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ गठित कर दी. इस समय नानी पालखीवाला की जोरदार बहस ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.
इन संविधान एवं जनतंत्र विरोधी कारनामों के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू एवं उनकी बेटी इंदिरा आत्मश्लाघा से संक्रमित ऐसे विचित्र प्राणी थे कि इन दोनों ने अपनी अध्यक्षता में गठित कमेटी के माध्यम से खुद को ही ‘भारत रत्न’ से (क्रमशः 1955 तथा 1971 में) पुरस्कृत कर लिया. यह नेहरू परिवार की संवैधानिक मूल्यों के प्रति क्षुद्र समझ का प्रमाण है. सितंबर 1973 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ठीक ही लिखा था, जब मैं देश की नाजुक दशा को देखता हूं तो यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि यह सब गिरते नैतिक मूल्यों का नतीजा है. सार्वजनिक जीवन का कोई भी क्षेत्र, चाहे वह राजनीति हो या सरकार या शिक्षा या कार्यालय, व्यापारिक संगठन या सामाजिक संगठन, ऐसा नहीं है जो गिरते मूल्यों से अछूता हो.”
एक बार साहित्यकार जॉर्ज ऑरवेल ने कहा था, ”लगभग पूरी दुनिया में यह समझा जाता है कि जब हम किसी देश के प्रजातांत्रिक होने की बात करते हैं तो उसकी तारीफ कर रहे होते हैं, इसलिए हर तरह के तानाशाह प्रजातांत्रिक होने का दावा करते हैं.” आज इसी तानाशाह परिवार का युवराज सरकार के विरुद्ध छद्म तानाशाही विरोधी मोर्चे लगाकर लोकतान्त्रिक मूल्यों के रक्षण का दावा कर रहा है जिसने कभी यूपीए सरकार के जनप्रतिनिधि संशोधन अध्यादेश 2013 की सार्वजनिक रूप से प्रतियाँ फाड़ी थीं.
ख़ैर अब इस संविधान संरक्षक ‘आधुनिक युवराज’ के माता-पिता के संविधान के प्रति सम्मान के स्तर के विषय में भी जान लेना चाहिए. पायलट की नौकरी से सीधे कांग्रेसी सत्ता पर लाद दिये जाने वाले उनके पिता राजीव गाँधी ने अपने भाई संजय गाँधी की मृत्यु के पश्चात् एम. फोतेदार, पी.शिवशंकर, पी. सी. एलेक्जेंडर, अरुण नेहरू, कमलनाथ आदि सदस्यों वाली ‘1,अकबर रोड’ गैंग की कमान संभाल जो पंजाब में हिन्दू-सिख विवाद एवं खालिस्तान षड़यंत्र की मुख्य प्रवर्तक थी. ऑपरेशन ब्लू स्टार से लेकर सिख नरसंहार तक के सुनियोजित षड़यंत्र की आख्यायिका राहुल गांधी को पता ही होगी और उन्हें ये भी याद होगा कि राजीव गाँधी ने 19 नवम्बर, 1984 को देश के प्रतिष्ठित सिख समुदाय का तिरस्कार करते हुए कहा था कि, ‘जब कोई विशाल वृक्ष गिरता है तो उसके आसपास की जमीन स्वाभाविक रूप से हिलती ही है.’ उनके इस स्वाभाविक कम्पन के कारण सिख-विरोधी दंगों में दिल्ली में लगभग 2,800 एवं पूरे देश में कुल 3,350 सिखों की हत्याएं हुईं. कुछ अन्य स्रोत के अनुसार यह संख्या 15,000 है. इसी सन्दर्भ में बताते चलें कि खालिस्तान आंदोलन जिसके दंश से आज भी राष्ट्रीय एकता पीड़ित है, उसके प्रारम्भ से लेकर सिख नरसंहार की पटकथा का लेखक भी यही नेहरू-गाँधी परिवार है.1947 से ही कांग्रेसियों ने सिखों को छोटे-छोटे मसलों पर भड़काया. नेहरू ने पंजाबी भाषा के आधार पर पृथक पंजाब के गठन की मांग को निरंतर ख़ारिज किया जबकि इसी बीच आंध्रप्रदेश से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र तक का भाषाई आधार पर गठन हुआ. नेहरू ने प्रताप सिंह कैरो को अनावश्यक प्रश्रय देकर सिखों के असंतोष को भड़काया. इंदिरा गाँधी ने अपनी और अपने बेटे संजय की छवि बनाने एवं अकालियों के प्रभाव को सीमित करने के लिए भिंडरावाले एवं खालिस्तान को बढ़ावा दिया. ऑपरेशन ब्लू स्टार की उत्तेजक कार्यवाही एवं इंदिरा की हत्या से लेकर सिखों के कत्लेआम तक कांग्रेसी षड़यंत्र का परिणाम रहा है. साथ ही यह नेहरू खानदान के असंवैधानिक षड़यंत्र का एक सर्वप्रमुख कुत्सित प्रमाण है.
गाँधी परिवार में हमेशा से सेना समेत किसी भी राष्ट्रीय संस्था के प्रति सम्मान का भाव शून्य रहा है. 1987 में राजीव गाँधी अपने निजी उपयोग के लिए भारतीय नौसेना के युद्धपोत आईएनएस विराट का इस्तेमाल किया. उन्होंने सेना के युद्धपोत को अपने परिवार जिसमे सोनिया गाँधी की इतावली मूल के रिश्तेदार भी शामिल थे एवं कुछ सिनेमाई लोगों के साथ 10 दिनों की छुट्टियां मनाने में इस्तेमाल किया.
यही नहीं, दिसंबर, 1984 में भोपाल गैस त्रासदी जिसमें हजारों भारतीयों की अकाल मृत्यु हुईं, के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को देश से भगाने, 1986 में मानकों की अनदेखी करते हुए स्वीडिश कंपनी से हॉवित्जर तोपों की खरीद में करोड़ों की दलाली खाने के आरोपी राजीव गाँधी की ‘क्लीननेश’ के किस्सों की लम्बी-चौड़ी लिस्ट है. राहुल के यही संविधान रक्षक पिता 1986 में इंडियन पोस्ट ऑफिस (एमेंडमेंट) बिल लेकर आये जिसके कारण प्रेस की स्वतंत्रता ही बाधित नहीं होती बल्कि आम आदमी की जबान पर भी सरकारी निगरानी की तैयारी थी. इसे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने पॉकेट वीटो का इस्तेमाल कर रोक लिया. लगे हाथ उनकी माँ और ‘जगत माता’ के कारनामें भी याद करते चलें.
2004 से 2014 तक राहुल गाँधी की माँ सोनिया गाँधी ने सारे संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर ‘पेटीकोट शासन’ चलाया. शायद राहुल जी पेटीकोट शासन का अर्थ नहीं समझते होंगे. यह मध्यकाल से प्रचलित एक प्रतीकात्मक शब्द है. बैरम खान के पतन के पश्चात् 1960 से 1962 के कालखंड में हरम की औरतों ( महम अनगा, हमीदा बानो बेगम और उनके चाटुकारों अतका खान एवं पीर मुहम्मद) ने शासन संचालन में अनाधिकृत हस्तक्षेप किया जिससे शक्ति के दुरूपयोग, कुचक्र तथा षडयंत्रों का एक दौर चला एवं इससे सत्ता की राजनीति दूषित हुईं. मनमोहन सिंह ने अपने मिडिया सलाहकार संजय बारू के समक्ष ख़ुद स्वीकार किया था कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती गाँधी के पास सत्ता का केंद्र है और उनकी सरकार पार्टी के प्रति जवाबदेह है. इस हस्तक्षेप को एक उदाहरण से समझिये कि तत्कालीन संयुक्त सचिव पुलक चटर्जी को सोनिया के कहने पर प्रधानमंत्री कार्यालय में नियुक्त किया गया था और वे प्रतिदिन उनसे मिलकर उनको पीएमओ में हो रहे कार्यकलापों के बारे में जानकारी देते थे और उनसे ज़रूरी फ़ाइलों के बारे में निर्देश भी लेते थे. इसके अतिरिक्त अहमद पटेल, दिग्विजय सिंह जैसे दरबारी थे ही जो 10, जनपथ की परिक्रमा से केंद्र सरकार को पार्श्व रूप से प्रभावित करने की मुहीम का हिस्सा रहे हैं.
संजय बारू मानते है कि मनमोहन सिंह से ग़लतियाँ तभी हुईं जब सोनिया गांधी और कांग्रेस ने उनके फ़ैसलों में हस्तक्षेप करना शुरू किया. जैसे ए राजा और टीआर बालू को मंत्रिमंडल में शामिल करना. 10, जनपथ की सरकार में हनक ऐसी थीं थी कि 2009 में मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के रूप में सीवी रंगराजन की नियुक्ति की इच्छा को दरकिनार कर ‘मैडम’ ने उनसे बिना पूछे प्रणव मुख़र्जी को इस पद पर बैठा दिया. ऐसे उदाहरणों की एक लम्बी सूची है कि कैसे पुरे एक दशक तक (2004-2014) तक 10, जनपथ के सरकारी आवास में इतावली मूल की महिला ‘एंटोनियो माइनो’ (बाद में सोनिया गाँधी) के निर्देशन में भारत के लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं संवैधानिक आदर्श का ‘चीरहरण’ होता रहा और देश एकता- भाईचारे एवं पंथनिपेक्षता की नींद सोता रहा. और आज उसी राजीव-सोनिया गाँधी का बेटा, जिसकी भारतीय नागरिकता सम्बन्धी विषय को संदिग्ध मानकर कई बार मिडिया में सवाल उठाया जा चुका है, संविधान बचाने की भ्रामक घोषणाएं एवं आंदोलन कर रहा है.
डॉ. आंबेडकर अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान'(1940) ‘ग्रावामिन पॉलिटिक’ शब्दावली का प्रयोग करते हैं, जिसका तात्पर्य है कि, ‘मुख्य रणनीति यह हो कि शिकायतें पैदा करके सत्ता हथियाई जाए.’ उन्होंने अपनी किताब में मुस्लिम राजनीति को ग्रावामिन पॉलिटिक कहा है ‘जो निरंतर शिकायतें करते हुए कपटपूर्वक एक दबाव बनाती है. जो दिखावे के लिए निर्बल की आशंका का रूप बनाती हैं, किंतु वास्तव में वह एक ताकतवर, संगठित समुदाय की राजनीति रणनीति है’. इस्लामी कट्टरपंथ एवं ईसाईयों की राष्ट्रीय एकता विरोधी गठजोड़ की गोद में बैठे कांग्रेस नेता राहुल गांधी ग्रावामिन पॉलिटिक की राह पर हैं. वे संविधान संरक्षण के नाम पर देश में काल्पनिक भय का एक ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहते हैं, जिसके माध्यम से भाजपा सरकार विरोधी एक आभासी आंदोलन पैदा करने का दिखावा कर सके और देर-सबेरे सत्ता पर काबिज हो जाएं.
आरोप अकसर आधार के बिना पर लगते हैं तभी सामाजिक रूप से स्वीकृत होते हैं. यदि वे निराधार हों तो आरोप लगाने वाला समाज के समक्ष अविश्वसनीय एवं हास्यास्पद हो जाता है. यही कारण है कि अविवेकी-अविचारी भाषणों के लिए कुख्यात राहुल गाँधी उपहास के पात्र बने रहते हैं. अब वे स्वयं को संविधान संरक्षक बताने में व्यस्त हैं. लेकिन चला उनके परिवार का संविधान विरोधी एवं सामाजिक विघटनकारी इतिहास अभी तक भूली नहीं है इसीलिए लगातार चुनावों में जनता द्वारा पददलित किये जा रहें हैं. अतः कांग्रेस श्रेष्ठ राहुल गाँधी से निवेदन है, ‘हे संविधान अपमानकर्त्ता परिवार के वंशवादी प्रतिनिधि कृपया एक बार अपने परिवार के जनतन्त्र-विरोधी इतिहास का अध्ययन करें, तत्पश्चात् संविधान संरक्षण के आंदोलन की दिशा में बढे ताकि समझ सकें कि कथनी और करनी का भेद मिटाकर आम भारतीय से तादात्म्य किस प्रकार जोड़ा जा सकता है?
ओशो कहते हैं, ‘सत्य अपने आप में कठोर नहीं है, लेकिन तुम इतना असत्य में जिए हो, इसलिए सत्य कठोर मालूम होता है. तुमने अपना सारा जीवन असत्य कर लिया है इसलिए सत्य की चोट गहरी पड़ती है.’ राहुल गाँधी असत्य में जीते रहे हैं और अब तक जी रहें हैं यदि उन्हें वास्तव में लोकतान्त्रिक आदर्शो एवं संवैधानिक मूल्यों में आस्था प्राप्त करनी है तो सर्वप्रथम अपने परिवार के संविधान विरोधी कृत्यों के लिए देश से क्षमायाचना करें और आम जन-तन्त्र के वास्तविक संघर्ष से नाता जोड़े. तब संभवतः उन्हें भविष्य का सही मार्ग दिखाई देने लगे.