“गांव उठेगा, देश उठेगा” कवि कल्याण सिंह

अपनी सघन और गहरी अनुभूतियों को कल्याण सिंह बिना कीसी शास्त्र या अनुशासन का पालन किये शब्द देते हैं। कतार के आखिरी आदमी की पीड़ा उनकी कविता के आशय में देखी जा सकती है जहां अभिव्यक्ति की सहजता अपने ओजस्वी आवेग के साथ व्यक्त होती है। पड़ताल के लिए हम कल्याण सिंह की “गांव उठेगा, देश उठेगा” शीर्षक कविता को बतौर बानगी यहां अविकल रूप से उद्घृत कर रहा हूं।

गांव उठेगा, देश उठेगा

सावधान करता जवान को, कहता बात किसानों से।

देश की खुशहाली का रास्ता, गांव-गली-गलियारों से।।

फूटे घर-घरौंदे तेरे, टूटी छान छपरिया रे।

सूराखों से पानी टपके, भीगें तेरी खटिया रे।।

अंधियारें में कटी जिंदगी, बिना दिया, बिन डिबिया रे।

तेरी घरवाली के तन पर, फटी फटाई अंगिया रे।।

इस सड़ांध में आग लगा दे, क्रांति भरे अंगारों से।

देश की खुशहाली का रास्ता, गांव गली गलियारों से।।

कर्जे में तू पैदा होता, कर्जे में ही पलता है।

जीवन भर कर्जे का बोझा, कर्जे में ही मरता है।।

तेरी इज्जत, तेरी मेहनत, कोड़ी मोल बिकती क्यों?

तेरी मेहनत की दौलत पर, दुनिया मौज उड़ाती क्यों?

नंगे पैरों मालिक चलता, नौकर चलता कारों से।

देश की खुशहाली का रास्ता, गांव-गली-गलियारों से

दुनिया भर का तन ढकता है, फिर भी तू ही नंगा क्यों?

भरता है तू पेट सभी का, फिर भी तू भिखमंगा क्यों?

तेरे ही बच्चों की फीकी, होली और दिवाली क्यों?

रोता हुआ दशहरा तेरा, ये बीहड़ बेहाली क्यों?

कंगाली के दाग मिटा दे, तीज और त्यौहारों से।

देश की खुशहाली का रास्ता, गांव-गली-गलियारों से।

तेरा बहुमत, तेरी ताकत, लेकिन राज अमीरों का।

इस साजिश का तू शिकार है, कैदी तू जंजीरों का।।

भीख नहीं अधिकार चाहिए, यही लड़ाई लड़नी  है।

हर पीड़ित की पीर मिटानी, फटी बिवाई भरनी है।।

तू अपनी तकदीर बदल दे, इन्कलाब के नारों से।

देश की खुशहाली का रास्ता, गांव-गली-गलियारों से।।

 

(बालेश्वर त्यागी की पुस्तक “कल्याण सिंह व्यक्तित्व और विचार” से)

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