स्वाधीनता आंदोलन में मुसलमान…..भाग – ४

रामबहादुर राय

1857 की घटनाओं में सैयद अहमद खां न सिर्फ एक सरकारी मुलाजिम की हैसियत से शरीक थे, बल्कि वे सबसे पहले भारतीय थे, जिन्होंने उसके बारे में लिखा, उसका विवेचन किया।

क्यों, यह जानना जरूरी है। इसलिए कि ‘सैयद (अहमद खां) की जिंदगी में यह सबसे नाजुक दौर था। दिल्ली की तबाही और अपने नाते-रिश्तेदारों की मौत ने उनके दिलो-दिमाग को झकझोर दिया था। इसका परिणाम होना ही था। ‘अंग्रेजी हुकूमत और अपनी कौम के बीच वे एक गहरे तनाव से घिर गए। उसी में उन्होंने ‘रिसाला-ए-असबाबे बगावते हिन्द’ लिखा। इसमें उनका 1857 पर विवेचन-विश्लेषण है। क्या वे भारत के मुसलमानों की भावना व्यक्त कर रहे थे? इसे पूरा समझने के लिए यह जानना जरूरी है, ‘जीवन में सैयद अहमद अजलाफ अथवा पसमांदा मुसलमानों को पसंद नहीं करते थे। बेशक वे अशरफ मुसलमान थे, आभिजात्य वर्ग के हितैषी थे। उनके संस्कार और सोच में यह बात मौजूद थी।  इसके अलावा यह भी जानना चाहिए कि ‘दरअसल, सैयद अहमद खुद एक दौर में शाह वलीउल्लाह की विचारधारा और उससे प्रेरित वहाबी आंदोलनकारियों (जेहाद के नेताओं) से काफी प्रभावित थे।

सर सैयद अहमद खां के व्यक्तित्व के जिस पक्ष पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, उसे अपनी किताब ‘बगावत और वफादारी, नवजागरण के इर्द-गिर्द’ में वीर भारत तलवार इस तरह लिखते हैं, ‘इसी प्रभाव के तहत 1850 में उन्होंने ‘सुन्नत-दर-रद्द बिद्अत’ किताब लिखी थी। वीर भारत तलवार ने सर सैयद अहमद खां में आए बदलाव को समझाने के लिए के. एम. अशरफ के कथन का इस प्रकार उल्लेख किया है, ‘1846 से पहले सैयद खुद जेहाद का ऐलान करने वाले नेताओं के प्रति बहुत आदर भाव रखते थे। जामिया मिलिया के एक प्रोफेसर राहुल रामगुंडम सैयद अहमद खां की 1857 पर जो किताब है, उसको एक पर्चा बताते हैं। जिसमें वे गहरे उतर कर पाते हैं कि इस पर्चे में सत्ता की भाषा है।

शुरू से ही मुसलमानों में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान दो धाराएं थी। पहली में सत्ता की भाषा है, जिसमें मजहब की चिंता है। दूसरी में स्वतंत्रता और उससे उत्पन्न खुशहाली का लक्ष्य है। पहली धारा अशरफ जमात की है, तो दूसरी में वे हैं, जिनके पूर्वज हिन्दू थे, जिन्हें अजलफ की श्रेणी में मुस्लिम समाज में मान जाता है। सर सैयद अहमद खां ने एक और किताब लिखी है, ‘दी लॉयल मोहम्मडन ऑफ इंडिया।’ जिसमें वे साबित करने की कोशिश  कर रहे हैं कि 1857 के संग्राम में मुसलमानों ने अंग्रेजों की जान बचाने में सबसे आगे बढ़कर अपना फर्ज निभाया था। इस तरह उनकी भूमिका बदली। वह दोहरी थी। एक तरफ वे अंग्रेजों के प्रति मुसलमानों को निष्ठावान  बनाने के लक्ष्य से कार्य करने लगे, तो दूसरी तरफ मुसलमानों के दिमाग में अंग्रेजों के प्रति बैठी कुछ धाराणाओं को दूर करने की कोशिश शुरू  की।

सर सैयद अहमद खां के चिंतन का आधार यहां समझ लेना चाहिए। एक बात जानना जरूरी है कि 19वीं सदी के अंत तक भारत में अंग्रेजी शासन को समाप्त करने का विचार प्रभावशाली नहीं था। ऐसी परिस्थिति में सर सैयद अहमद खां ने भी माना कि अंग्रेजी शासन तो स्थाई है। इसलिए उन्होंने मुसलमानों को अंग्रेजी शासन में प्रश्रय उपलब्ध कराने पर अपना ध्यान केंद्रित किया था। इसका दूसरा अर्थ भी है। वह यह कि वे जो कुछ कर रहे थे, वह मुसलमानों के कुलीन वर्ग के राजनीतिक हितों तक सीमित था। उन्होंने लिखा, ‘मुसलमान इस देश के मूल निवासी नहीं हैं। वे बाहर से आए हैं और अपने गुजर-बसर के लिए पूरी तरह से सरकारी नौकरियों पर निर्भर करते रहे हैं।’    

सर सैयद अहमद खां ने यह अनुभव कर लिया था कि अंग्रेजों को भारतीय मुसलमानों की निष्ठा  पर संदेह था। उनका विश्वास था कि कुलीन मुसलमान सरकारी नौकरियों पर निर्भर थे। उनकी प्रगति के लिए अंग्रेजों का आश्रय जरूरी था। इसलिए उन्होंने अपना स्वाभिमानी स्वभाव छोड़ा। खुद को बदला। अंग्रेजों के प्रति निष्ठा पैदा करने के लिए नए-नए तर्क दिए। उन्होंने ‘लाहौर में 1873 में भाषण  देते हुए कहा था कि मुसलमानों का अंग्रेजों से शत्रुता रखना वैसा ही होगा जैसे नदी में रहकर मगरमच्छ से वैर रखना। इसलिए उनके लिए यह आवश्यक  है कि वे उनसे मैत्री रखें। मुसलमानों के हितों के लिए सर सैयद अहमद खां ने जो तर्क विकसित किए उसे अलीगढ़ विचार पद्धति का नाम मिला। इसी तर्क से यह बात मुसलमानों के दिमाग में बैठाई गई कि लोकतंत्र मुसलमानों के लिए हितकर नहीं है। इसका कारण यह दिया गया कि लोकतंत्र में संसद बनेगी। उसमें दो दल होंगे। वे हिन्दुओं और मुसलमानों के होंगे। हिन्दू बहुसंख्यक है और मुसलमान अल्पसंख्यक है। ‘भारतीय राजनीति में इस प्रकार का तर्क पहली बार सर सैयद अहमद खां ने ही प्रस्तुत किया था।

इस दौर में ब्रिटिश समर्थक मुस्लिम नेताओं में अब्दुल लतीफ, सर सैयद अहमद खां और आमिर अली के नाम प्रमुख हैं। ‘ये सभी मुसलमानों, खासतौर पर ढहते हुए कुलीनतंत्र और उनके परिजनों तथा पुरोहित वर्ग, जिसे उलेमा कहा जाता है उनकी अथाह कुंठा के कारण संत्रासग्रस्त थे। लेकिन सर सैयद अहमद खां को जो स्थान इतिहास में प्राप्त है, वह किसी दूसरे मुस्लिम नेता को नहीं मिला। डा. ताराचंद ने ‘मुस्लिम दिमाग को ब्रिटिश समर्थक तथा ब्रिटिश विरोधी की जगह आधुनिक तथा पारंपरिक के रूप में विभाजित किया है। इतिहासकार शांतिमय रे ने अपने विशलेषण का सार-सूत्र इन शब्दों में यह लिखा है, ‘मुस्लिम नवजागरण केवल अंग्रेजी शिक्षा तक ही सीमित रह गया। उनके पास आम तौर पर किसी विचारधारात्मक संघर्ष का अनुभव नहीं था जिससे वे इस्लाम की सीमाओं से पार जा पाते।

सर सैयद अहमद खां की सोच कांग्रेस विरोध में भी दिखी। इसके लिए उनहोंने  ‘इंडियन पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ बनाया। अगर वे हिन्दू-मुस्लिम एकता की राह पकड़ते, तो उन्हें राष्ट्रीयता  का पितामह माना जाता। लेकिन वे चूक गए। उनसे उम्र में छोटे लेकिन प्रतिष्ठित बदरूद्दीन तैयब ने वह कमी पूरी की। वे 1887 में कांग्रेस के तीसरे अध्यक्ष हुए। यह ऐसा उदाहरण है, जो बताता है कि अलीगढ़ आंदोलन के समानांतर मुसलमानों में एक चिंतन प्रक्रिया चल रही थी। वह जहां राजनीतिक थी, वहीं वह मजहबी भी थी। राजनीति में नेतृत्व बदरूद्दीन तैयब जी कर रहे थे और मजहबी धारा को कासिम नानौवती, रशीद  अहमद गंगोही, मौलाना महमूद-उल-हसन शौखुल हिन्द और अहमद हुसैन मदनी कर रहे थे।

वे ‘परंपरावादी उलेमा’ थे। इनका बड़ा योगदान है। उस समय जो मुसलमानों में बाधाएं थीं उन्हें पार कर ये स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बने। इतिहास में उलेमाओं की दो तस्वीरें हैं। पहली देवबंद की और दूसरी शामली की। डा. ताराचंद ने लिखा है, ‘वस्तुतः शामली और देवबंद एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं। अंतर सिर्फ हथियारों में है। अब तलवार और भाले की जगह कलम और जुबान ने ले ली। जहां शामली में राजनीतिक स्वतंत्रता और धर्म तथा संस्कृति की आजादी के लिए हिंसा को माध्यम बनाया गया वहीं देवबंद में इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए शांतिपूर्ण  तरीकों के सहारे एक शुरूआत की गई। हालांकि रास्ता एक दूसरे से अलग जाता हुआ दिखता है लेकिन ये एक ही मंजिल की तरफ जाता है। यह बिलाशक एक महान उपलब्धि थी और उन मुसलमानों की जीवन्तता और उनका उत्साह काबिल-ए-गौर था, जो 1857 के दुर्भाग्यशाली दिनों के थोड़े दिनों के बाद और अत्यंत हतोत्साहकारी परिस्थितियों में भी अधिकारिक ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था द्वारा खतरे में डाल दिए गए अपने धर्म तथा अपनी संस्कृति की शिक्षा के लिए नए रास्ते तलाशने की नए सिरे से फिर से कोशिशों कर रहे थे। 

क्रमशः 

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