मलिक साहब अब भी समाजवादी हैं!

बीते 30 अप्रैल को मधु लिमये जन्मशती समापन समारोह का आयोजन दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में हुआ. ऐसे  वैचारिकी आयोजनों में सम्मिलित होना किसी पत्रकारिता के विद्यार्थी के लिए एक सुअवसर होता है. वैसे भी उक्त कार्यक्रम में वक्ताओं की सूची बड़ी आकर्षक थी. इसमें सतपाल मलिक भी शामिल थे. लेकिन वक्ताओं में कई ऐसे चेहरे भी शामिल थे जिनका मधु लिमये या समाजवाद से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था. बल्कि ये विपक्ष दलों से सम्बंधित विशुद्ध राजनीतिक लोग थे. अब वे क्यों और कैसे आए यह एक अलग अन्वेषण का विषय हो सकता है.
   पर इन दिनों सत्ताविहीन जमात के पास विशेष कुछ करने को है नहीं तो आजकल जहाँ मौका मिले राजनीति चमकाने के फेर में पड़े रहते हैं, चाहें विवाद ही पैदा करना पड़े. ऐसे लोगों को मंच देने से बचना चाहिए. पर समाजवादियों को कौन समझाये, उन्हें तो वैसे भी अनचाहे विवादों में गहन रूचि रही है. ख़ैर ऐसे अतिथियों में हमारी कोई रूचि नहीं थी. बल्कि अपना पूरा ध्यान मलिक साहब के भाषण पर था. जैसी उम्मीद थी उनका भाषण मधु लिमये के बजाय भाजपा सरकार विरोधी प्रवचन पर केंद्रित हो रहा.
समाजवादियों की एक बड़ी दिक्क़त है. वे निर्धारित विषय के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों पर बात करते हैं. अब टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों को देख लें. जैसे पूर्व में अतीक और मुख़्तार जैसे अपराधियों को प्राप्त राजनीतिक संरक्षण और उनके समक्ष पुलिस-प्रशासन की बेबसी पर सवाल पूछा जाएगा तो जवाब में वे बताते हैं कि योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्या पर भी मुक़दमे दर्ज हैं. वैसे ही कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के कार्यक्रम में समाजवादियों ने अपनी इस परंपरा को कायम रखा. कार्यक्रम मधु लिमये की स्मृति में था लेकिन अधिकांश समाजवादियों के भाषणों का केंद्र मोदी सरकार और भाजपा-संघ थे. और बाकी गैर-समाजवादी तो आये ही इसीलिए थे. मतलब आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास.
  ख़ैर कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में मलिक साहब के भाषण के दौरान श्रोताओं में बैठे कुछ समाजवादियों  ने टोका-टाकी शुरू कर दी और उनपर ईवीएम पर बोलने के लिए दबाव बनाने लगे. इतने में कुछ दूसरे प्रतिवादी आये. अंततः उनमें बहस इतनी तेज हो गई कि हम जैसे पिछली पंक्ति में बैठे लोगों को लगा कि झगड़ा शुरू हो गया है. ऊपर से मालिक साहब का सम्बोधन भी बाधित हुआ. वैसे इसमें नई बात नहीं है. हिंसा, वाचिक या शारीरिक, समाजवाद के डीएनए में है क्योंकि हिंसा के बिना समाजवाद आयेगा ही नहीं. यही तो सैद्धांतिक आधार है.
 हालांकि उनमें से किसी ने भी मलिक साहब या अन्य वक्ताओं से यह नहीं कहा कि चुंकि कार्यक्रम मधु लिमये के जन्मशती के उपलक्ष्य में आयोजित है. अतः वक्ताओं को अपने संभाषण को उनके विचार और जीवन वृत्त पर ही केंद्रित रखना चाहिए. लेकिन समाजवादियों का यह जुटान तो राजनीति से प्रेरित था. अतः भटकाव होना ही था. पर ऐसा भी नहीं था कि समाजवादियों ने पूरी तरह निराश किया. उनके अतिथियों के भाषणों से गायब कार्यक्रम के केंद्रित विषय की पूर्ति के लिए लिमये पर केंद्रित ‘जनता’ पत्रिका की प्रतियाँ बांटी ताकि निराश श्रोता इसके माध्यम से लिमये जी को स्वयं ही जान समझ लें.
 भारत में समाजवादी शापित माने जाते हैं. इसके कई कारण हैं. एक तो इनके सम्मेलनों का इतिहास हैं, जो बिना लड़ाई-झगड़े के पूरा ही नहीं होता. यहाँ तक कि कई दफ़े यह मारपीट में तब्दील हो जाता है. दूर अतीत में ना जाते हुए उत्तर प्रदेश के समाजवादियों को ही देखिये. ज़ब बाप-चाचा के विरुद्ध ‘बबुआ’ के  अधिकारिता संघर्ष के दौरान लोहियावाद के  उत्तराधिकारी सार्वजनिक मंचों से गुंडई वाली भाषा बोलते नज़र आ रहे थे. यहाँ तक कि ‘बबुआ’ समर्थकों के उत्पात से क्रुद्ध ‘नेताजी’ को स्वयं मंच से धमकाना पड़ा कि, हमको गुंडई मत दिखाना. तुमसे बड़े-बड़े गुंडे हमारे पास हैं.’
हालांकि भारतीय समाजवाद का अपना एक अलग ब्रांड है. यह समाजवादी सिद्धांतों की आड़ में विशुद्ध जातिवाद है और इसी जातिगत गोलबंदी के बल पर राजनीतिक गुंडई होती रही है. कहाँ तो समाजवादियों को आजाद भारत में समता मूलक समाज की रचना करनी थी लेकिन वे जातिवादी किले बनाने में व्यस्त हो गये. बिहार को ही देखिये. समाजवादियों ने पूरे डेढ़ दशक तक राज्य को ख़ूनी जातिगत संघर्ष में झोंक दिया और आज तक कमोबेश उसी ब्रांड के राजनीति से चिपके हुए हैं. वैसे भी स्वतंत्रता के पश्चात् समाजवादियों ने कभी कोई सार्थक संघर्ष नहीं किया है. अगर आप आपातकालीन संघर्ष का उदाहरण देंगे तो वह लोकतंत्रवाद से प्रेरित लोकतांत्रिक संघर्ष था जिसमें घुटे हुए मार्क्सवादी भी थे और घोर दक्षिणपंथी भी.
मलिक साहब भी अंततः समाजवादी ठहरे, तो समाजवाद के गुण-दुर्गुणों से कैसे मुक्त रह सकते हैं? सो अपने जमाती बंधुओं की भांति उनकी लड़ाई भी घूम-फिर के जाति पर ही आ गई है. आजकल वे भी परोक्ष रूप से केंद्र सरकार धमकाते हुए कह रहें हैं ‘मुझ पर यह सरकार हाथ नहीं डाल सकती. मेरी कम्युनिटी बड़ी है.’ मतलब सर्व-सिद्धांत का ज्ञान बघार लीजिये लेकिन पानी वही गिरेगा. यानि मलिक साहब भी अपनी लड़ाई सर्व-जनता को जोड़कर नहीं बल्कि जाति के आधार पर ही लड़ना चाहते हैं.
इस पूरे घटनाक्रम पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होता है कि जब मलिक साहब को भाजपा शासन में अपने भविष्य की उम्मीद सिमटती दिखी तो पहले उन्होंने किसान आंदोलन के मुद्दे पर तेवर दिखाकर सरकार को डराने की कोशिश की. किंतु जब उससे भी काम नहीं चला और सत्ताभोग का काल ख़त्म होने को हुआ तो अचानक से शहादत का दर्जा पाने को उद्यत हो उठे. यानि राज्यपाल के पद से मुक्ति के पश्चात् मलिक साहब पुलवामा के आधार पर सरकार को आरोपी बनाकर खुद को पाकसाफ साबित करने में लगे हैं क्योंकि विवाद का दूसरा मुद्दा यानि किसान आंदोलन, सरकार द्वारा अध्यादेश वापिस लिए जाने के कारण मौजूँ नहीं रहा. चुकी इसका एक परोक्ष लाभ यह है कि इस बगावती तेवर से विपक्षीयों की सहानुभूति और समर्थन तो मिलेगा ही, साथ ही यदि देर-सबेर सरकार बदले तो कुछ प्राप्ति की उम्मीद भी बनी रहेगी क्योंकि अंततः मलिक साहब के आरोप सरकार को घेरने में विपक्ष के काम तो आ ही रहें हैं.
वार-पलटवार की लड़ाई में भाजपाई भी कहाँ पीछे रहने वाले हैं. गृहमंत्री अमित शाह ने वाजिब बात कही कि, ‘हमसे अलग होने के बाद ही सब बातें क्यों याद आती हैं? आत्मा तब जागृत क्यों नहीं होती, जब सत्ता में बैठे होते हैं। इसकी क्रेडिबिलिटी के बारे में सोचना चाहिए। जब आपने जो कहा, वह सब कुछ सही है तो जब आप गवर्नर थे, तब क्यों चुप रहे? मलिक साहब को इसका तर्कसंगत उत्तर देना होगा.
उस समय मौन धारण करने वाले मलिक साहब पर आज कैसे यकीन कर लिया जाये कि उनका सत्य अनावरण कोई स्वांग नहीं बल्कि जमीर की आवाज़ है. ऐसा लगता है कि 2019 से सोई उनकी आत्मा यकायक राष्ट्रधर्म के लिए नहीं बल्कि सत्ताधर्म के लिए जागी है. ज़ब सत्ता में सहभागिता ख़त्म हुई तो सत्यनिष्ठा और जनतंत्र की मर्यादा याद आने लगी. सत्ता के साथ सुविधानुरूप सम्बन्ध रखने वाले लोगों का समाज में कोई इक़बाल नहीं होता.
  राजनीति असाध्य एवं दुर्दम्य रोग है, एक बार लग जाये तो मृत्युपर्यंत ही जान छूटती है. और भारत में राजनीति वैसे भी एक मात्र व्यवसाय, माफ कीजियेगा सेवा क्षेत्र है. जहाँ सेवानिवृति की कोई आयु ही नहीं निर्धारित होती. यहाँ सन्यास से वानप्रस्थ आश्रम की अवस्था में पहुंचे नेता भी कुर्सी त्यागने का मोह नहीं छोड़ पाते. अब शरद पवार को ही देखिये. राकांपा के अध्यक्ष पद को त्यागने का भावात्मक अभिनय किया फिर पार्टी नेताओं-कार्यकर्त्ताओं के ‘रिवर्स’ भावात्मक अभिनय के पश्चात् पुनः पदासीन हो गये.
 चुंकि समाजवाद में भौतिकता का निरोध नहीं है बल्कि इसकी खास सैद्धांतिक स्वीकार्यता है. इसलिए ज्यादातर खांटी समाजवादी घोर भौतिकतावादी भी हैं. यानि जो जितना बड़ा समाजवादी है वह उतना ही बड़ा पदभोगी-सुविधाभोगी भी है. अब उत्तर प्रदेश वाले नेताजी लाखों की बग्गी पर रामपुर में यात्रा करते रहे तो बिहार वाले ‘किंगमेकर’ चारा से लेकर रेलवे तक को लूट कर अपना आर्थिक साम्राज्य बनाते रहे. वैसे समाजवादियों में रूप-लावण्य एवं ललित कलाओं के प्रति भी गहरी आसक्ति है. एक जमाने में रांची में हुए महोत्सव में एक सिनेमाई हीरोइन को नचवा कर चारा घोटाले के पैसे बांटे गए. वहीं सैफई में ऐसा दिव्य नृत्य आयोजन होता रहा कि इंद्रलोक भी शरमा जाये. अच्छा ही हुआ कि जेपी और लोहिया ने समय से अपना पार्थिव शरीर का त्याग दिया. अन्यथा यदि जीवित रहते तो अपने इन राजनीतिक-वैचारिक उत्तराधिकारियों को देखकर लज्जा के मारे सार्वजनिक जीवन का ही परित्याग कर देते. वैसे तो इन्हें देखकर तो मार्क्स और लेनिन की आत्मा भी अपना सिर धुन रही होगी.
 अब यदि मान लें कि मालिक साहब के आरोपों में किंचित सत्यता है तो वे भी तो सत्ताजनित अक्षमता के कारण घटित उक्त निकृष्ट अपराध में बराबर के सहभागी हैं. इसलिए तर्कों एवं तथ्यों के सहारे खड़ा किया गया कोई भी आवरण उनका बचाव नहीं कर सकता. ये ना सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा अति गंभीर मामला था बल्कि सरकार की विश्वासनीयता से भी जुड़ा था. अतः मलिक साहब का वर्तमान जनतांत्रिक मर्यादा के रक्षार्थ संघर्ष विशुद्ध अवसरवादी वितंडा है.
 वैसे भी विवाद पैदा करने और अवसर के अनुकूल पलटी मारने में समाजवादियों का कोई जोड़ नहीं.  यूपी वाले नेताजी पूरे राजनीतिक जीवन धोबी पछाड़ लगाते रहे. कभी चंद्रशेखर जी को छकाया, कभी कांग्रेसियों को पटका, तो कभी बसपा को निपटाने में लगे रहे. वैसे जनता सरकार को डुबाने में चौधरी साहब तथा उनके हनुमान और दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर पार्टी को तोड़ने में लिमये के अतुलनीय योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है.
  उसी प्रकार पूर्व में समाजवादी फिर 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद दक्षिणपंथियों के साथ मिलकर उच्च संवैधानिक पदों का सुख भोग चुके मालिक साब कुर्सी जाते ही पुनः समाजवादी हो गये हैं. और अब पुलवामा की घटना(2019) को आधार बनाकर भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. पिछले चार वर्षों से सोई उनकी सत्यनिष्ठ आत्मा अचानक जागृत हो गई है. किंतु मालिक साहब का सत्य वाचन वैसा ही है जैसा अपने सहयोगियों द्वारा सत्ता में भागीदारी से वंचित किसी व्यक्ति का होता है जो लाभ का कोई और अवसर ना दिखने पर खुद को शहीद दिखाकर नाम कमाने के फेर में पड़ जाये.
   अपने बचाव में मालिक साहब के पास संवैधानिक पद की मजबूरियां, तत्कालीन संकट, पार्टी हित वगैरह जैसे बहुतेरे तर्क होंगे, किंतु इनमें से कोई भी तर्क उनके मानसिक पराभव और अवसरवाद को नहीं ढ़क सकता. यदि उनकी सत्यनिष्ठा इतनी ही अटल थी तो उन्हें सत्ता संरक्षण में प्राप्त कुर्सी को ठोकर मारकर जनतांत्रिक मर्यादा के साथ खड़ा हो जाना चाहिए था.
 लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘मेरा देश मेरा जीवन’ में लिखते हैं, ‘अकसर राजनीति दुरूह विकल्प चुनती है. यह दुरुहता ऐसे मुद्दों तथा स्थितियों की जटिलता में ही निहित होती है, जिनका हमें सामना करना होता है. कठिन विकल्प कभी-कभी अरुचिकर या अप्रिय होता है. लेकिन मेरा विश्वास है कि जब कोई किसी निर्णय को सही मानता है, तब इस निर्णय पर अडिग रहने में संकोच नहीं करना चाहिए.’ वास्तव में एक राजनेता (स्टेटमैन) को यही करना होता है. दुःखद है कि मालिक साहब ये अवसर चूक गये.
फिर भी पुलवामा जैसे वीभत्स हादसे को राजनीतिक नजरिये से देखने पर इसका संदर्श बिगड़ जायेगा. साथ ही उच्च संवैधानिक पद पर आसीन रह चुके व्यक्ति के आरोपों की अनदेखी उचित नहीं है. यदि आरोप लगा है तो जाँच होनी चाहिए.लोकतांत्रिक शुचिता से जुड़े किसी प्रश्न पर देश को अनुत्तरित नहीं रखा जा सकता. सेना और ख़ुफ़िया संगठनों की निगरानी में रहे कश्मीर के इस संवेदनशील क्षेत्र में इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोटक मिलना संशय उत्पन्न करता है. अतः पुलवामा हमले में हुई राष्ट्रीय क्षति की जवाबदेही तय करना अति आवश्यक है जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.

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