संवैधानिक है जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग

 

प्रमोद भार्गव
प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू कश्मीर में विधानसभा और संसदीय क्षेत्रों के परिसीमन को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया। इसी के साथ केंद्र शासित इस प्रदेश में चुनाव कराने के रास्ते की बड़ी बाधा दूर हो गई। अब चाहे तो केंद्र सरकार वहां चुनाव कराने का फैसला ले सकती है। न्यायालय ने यह भी साफ कर दिया है कि परिसीमन पर प्रतिबंध से इनकार वाले इस निर्णय का जम्मू-कश्मीर  पुनर्गठन कानून -2019 की वैधानिकता को चुनौती देने वाले प्रकरण की सुनवाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इसी परिप्रेक्ष्य में धारा -370 को शून्य किए जाने के केंद्र के फैसले के विरुद्ध शीर्ष अदालत की संविधान पीठ में अलग सुनवाई चल रही है। यह फैसला न्यायमूर्ति एस.के. कौल व ए.एस. ओका की पीठ ने हाजी अब्दुल गनी खान और मोहम्मद अयूब मट्टू की याचिका पर दिया है।

  अनुच्छेद-370 की वापसी भी अब दूर की कौड़ी है। क्योंकि यह एक अस्थाई अनुच्छेद था और बीते दशकों में इसके अनेक प्रावधान खत्म भी कर दिए गए थे। जवाहरलाल नेहरू भी इसके पक्ष में नहीं थे, इसलिए उन्होंने कहा भी था कि यह घिसते-घिसते स्वयं घिस जाएगा। सरदार पटेल और संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर भी इसके पक्ष में नहीं थे। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी इसे हटाने की कोशिश की थी। लिहाजा इसको हटाने की बात करने वाले नेता दिन में स्वप्न देख रहे हैं। इसीलिए पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने सरकार और न्यायालय पर एक तरह से कटाक्ष करते हुए कहा है कि ‘अनुच्छेद-370 हटाए जाने और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम-2019 के खिलाफ याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं और परिसीमन संबंधी याचिका पर न्यायालय निर्णय सुना रहा है। इससे सरकार की मंशा समझ सकते हैं। यह चुनाव से पहले ही धांधली की रणनीति का हिस्सा है,ताकि भाजपा को लाभ पहुंचाया जा सके। एक समय था जब अदालत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पद से हटा दिया था और आज लोगों को अदालत में जमानत तक नहीं मिल रही है।’ मसलन महबूबा ने अदालत और सरकार दोनों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।जबकि यही महबूबा कश्मीर में हिंदुओं पर अत्याचार और विस्थापन पर  मौन रहीं। याद रहे 1979-90 में घाटी में आतंक का उफान आया और दो-तीन दिन के भीतर ही करीब पांच लाख कश्मीरी पंडित, सिख, जैन और बौद्ध समुदाय के लोगों को खदेड़ दिया गया। जो आज भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। इस कठिन परिस्थिति में फारूख अब्दुल्ला संकट से मुंह मोड़कर लंदन प्रवास पर चले गए थे। जबकि वे राज्य के मुख्यमंत्री थेएक तरह से यह पलायन अलगाववाद के समक्ष घुटने टेकने का पर्याय था।
   जम्मू-कश्मीर के बंटवारे और विधानसभा सीटों के विभाजन संबंधी पुनर्गठन विधेयक-2019, 31 अक्टूबर 2019 को लागू कर दिया गया था।केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रायल ने 6 मार्च 2020 को परिसीमन अधिनियम 2002 की धारा-3 के तहत इसके पुनर्गठन की अधिसूचना जारी की थी।इसी में शीर्ष न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजनाप्रकाश देसाई की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग के गठन की बात कही गई थी।इसे भंग करने वाली याचिका में दावा किया गया था कि परिसीमन की कवायद संविधान की भावनाओं के विपरीत है।खैर, इसके लागू होने के बाद इस राज्य राज्य की भूमि का ही नहीं राजनीति का भी भूगोल बदल गया। नए सिरे से किए गए परिसीमन  के बाद यहां 7 विधानसभा  सीटों की बढ़ोत्तरी हुई है।
   बंटवारे के बाद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित राज्य हो गए हैं। दोनों जगह दिल्ली व चंडीगढ़ की तरह की तरह मजबूत उप राज्यपाल सत्ता-शक्ति के प्रमुख केंद्र के रूप में अस्तित्व में हैं,जो यहां आंतकवाद पर नियंत्रण, शांति,समरस जीवन और पर्यटन बहाली का मजबूत आधार बन गए हैं। लद्दाख में विधानसभा का प्रावधान नहीं है। परिसीमन के लिए गठित आयोग ने  राजनीतिक भूगोल का अध्ययन किया। राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में मौजूदा आबादी और उसका लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व का आकलन किया। साथ ही राज्य में अनुसूचित व अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों को सुरक्षित करने का भी अहम् निर्णय लिया। यानी सही मायनों में परिसीमन के नए परिणामों से भौगोलिक, सांप्रदायिक और जातिगत असमानताएं तो दूर हुईं ही,अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए सीटें भी आरक्षित कर दी गई हैं।
      परिसीमन आयोग के प्रस्ताव पर 6 मई 2022 को आयोग की अध्यक्ष रंजनाप्रकाश देसाई व अन्य दो सदस्यों ने हस्ताक्षर कर इस जटिल व चुनौती भरे काम को अंजाम तक पहुंचाया। प्रस्ताव के अनुसार अब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की सीटें 83 से बढकर 90 कर दी गईं हैं। पीओके के लिए इस प्रस्ताव में भी 24 सीटें खाली रखी गई हैं। जो 7 सीटें बढ़ाई गई हैं, उनमें से जम्मू और एक सीट कश्मीर में बढ़ाई गई है। यह इस राज्य की विधानसभा में राजनैतिक विसंगति दूर करने का अहम उपाय है। अभी तक जम्मू क्षेत्र में 37 विधानसभा क्षेत्र थे; जो अब 43 किए गए हैं। कश्मीर यानी घाटी क्षेत्र में 46 विधानसभा सीटें थीं, जो एक सीट बढ़ने के बाद 47 कर दी गई हैं। तय है, बड़ी जनसंख्या वाले जम्मू क्षेत्र का राजनीतिक महत्व बढ़ जाएगा। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2 सीटें कश्मीरी प्रवासियों के लिए आरक्षित की गई हैं। इसके जरिए, जो कश्मीरी पंडित राज्य से बाहर रहकर विस्थापन का दंश झेल रहे हैं, उन्हें विधानसभा में प्रतिनिधित्व का अवसर मिलेगा। आयोग ने इस राज्य के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार अनुसूचित जनजातियों के लिए 9 सीटें आरक्षित की हैं। इनमें 6 जम्मू और 3 कश्मीर क्षेत्र में हैं। अब तक कश्मीर में एक भी सीट पर जातिगत आरक्षण की सुविधा नहीं थी, जबकि इस क्षेत्र में 11 प्रतिशत गुर्जर बकरवाल और गद्दी जनजाति समुदायों की बड़ी आबादी निवास करती है। अब जब भी इस राज्य में चुनाव होगा, वह इसी रिपोर्ट के मुताबिक होगा,क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग के गठन की वैधता को सही ठहरा दिया है।
                जम्मू-कश्मीर का करीब 60 प्रतिशत क्षेत्र लद्दाख में है। इसी क्षेत्र में लेह आता है, जो अब लद्दाख की राजधानी हैं। यह क्षेत्र पाकिस्तान और चीन की सीमाएं साझा करता हैं। लगातार 70 साल लद्दाख, कश्मीर के शासकों की बद्नीयति का शिकार होता रहा है। अब तक यहां विधानसभा की मात्र चार सीटें थीं, इसलिए राज्य सरकार इस क्षेत्र के विकास को कोई तरजीह नहीं देती थी। लिहाजा आजादी के बाद से ही इस क्षेत्र के लोगों में केंद्र शासित प्रदेश बनाने की चिंगारी सुलग रही थी। अब इस मांग की पूर्ति हो गई है। इस मांग के लिए 1989 में लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन का गठन हुआ और तभी से यह संस्था कश्मीर से अलग होने का आंदोलन छेड़े हुए थी। 2002 में लद्दाख यूनियन टेरेटरी फ्रंट के अस्तित्व में आने के बाद इस मांग ने राजनीतिक रूप ले लिया था। 2005 में इस फ्रंट ने लेह हिल डवलपमेंट काउंसिल की 26 में से 24 सीटें जीत ली थीं। इस सफलता के बाद इसने पीछे मुडकर नहीं देखा। इसी मुद्दे के आधार पर 2004 में थुप्स्तन छिवांग सांसद बने। 2014 में छिवांग भाजपा उम्मीदवार के रूप में लद्दाख से फिर सांसद बने। 2019 में भाजपा ने लद्दाख से जमयांग सेरिंग नामग्याल को उम्मीदवार बनाया और वे जीत भी गए। लेह-लद्दाख क्षेत्र अपनी विषम हिमालयी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण साल में छह माह लगभग बंद रहता है। सड़क मार्गों व पुलों का विकास नहीं होने के कारण यहां के लोग अपने ही क्षेत्र में सिमटकर रह जाते हैं।
   जम्मू-कश्मीर में अंतिम बार 1995 में परिसीमन हुआ था। राज्य का विलोपित संविधान कहता था कि हर 10 साल में परिसीमन जारी रखते हुए जनसंख्या  के घनत्व के आधार पर विधानसभा व लोकसभा क्षेत्रों का निर्धारण होना चाहिए। इस परिसीमन का भी यही समावेशी नजारिया रहा। जिससे बीते 10 साल में यदि जनसंख्यात्मक घनत्व की दृष्टि से कोई विसंगति उभर आई है, तो वह दूर हो जाए और समरसता पेश आए। इसी आधार पर राज्य में 2005 में परिसीमन होना था, लेकिन 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने राज्य संविधान में संशोधन कर 2026 तक इस पर रोक लगा दी थी। इस हेतु बहाना बनाया कि 2026 के बाद होने वाली जनगणना के प्रासंगिक आंकड़े आने तक परिसीमन नहीं होगा।
               परिसीमन से पहले जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की कुल 111 सीटें थीं। इनमें से 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) क्षेत्र में आती हैं। इस उम्मीद के चलते ये सीटें खाली रहती हैं कि एक न एक दिन पीओके भारत के कब्जे में आ जाएगा। बाकी 87 सीटों पर चुनाव होता है। अब तक कश्मीर यानी घाटी में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं। 2011 की जनगण्ना के आधार पर राज्य में जम्मू संभाग की जनसंख्या 53 लाख 78 हजार 538 है। यह प्रांत की 42.89 प्रतिशत आबादी है। राज्य का 25.93 फीसदी क्षेत्र जम्मू संभाग में आता है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 37 सीटें आती हैं। दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की आबादी 68 लाख 88 हजार 475 है। प्रदेश की आबादी का यह 54.93 प्रतिशत भाग है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य के क्षेत्रफल का 15.73 प्रतिशत है। यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते थे। इसके अलावा राज्य के 58.33 प्रतिशत वाले भू-भाग लद्दाख में संभाग में महज 4 विधानसभा सीटें थीं, जो अब लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद विलोपित कर दी गई हैं।। साफ है, जनसंख्यात्मक घनत्व और संभागबार भौगोलिक अनुपात में बड़ी असमानता थी, जनहित में इसे दूर किया जाना, एक जिम्मेवार सरकार की जिम्मेवारी बनती थी कि वह इस असमानता को दूर करे। केंद्र सरकार द्वारा गठित आयोग ने यह करके संविधान और लोकतंत्र दोनों की ही रक्षा की है।
 [उपरोक्त लेखक के अपने विचार हैं. संस्थान का इससे सहमत होना आवश्यक नही है]

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