गांधी जी जो चाहते थे

रामबहादुर राय

दक्षिण अफ्रीका से वापस आने से पहले ही महात्मा गांधी ने समझ लिया था कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। यही कारण है कि मातृभाषा गुजराती और अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ होने के बावजूद उन्होंने हर मंच से हिंदी को बढ़ाया। यही नहीं, दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अपने 18 वर्षीय पुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेजा था। लेकिन अफसोस! हम बापू की बात तो करते हैं मगर वे जो चाहते थे वैसा करने से कतराते हैं। आखिर यह दोहरा रवैया क्यों? क्या हिंदी के हितकारी बापू की 150वीं जयंती पर हम अंग्रेजी के बजाय हिंदी को वरीयता देकर उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दे सकते? क्या ऐसा कर पाना वाकई कठिन है या हम यह करना ही नहीं चाहते? बापू के हिंदी प्रेम को रेखांकित करती इस बार की आवरण कथा।

संविधान में हिन्दी राजभाषा है। उसकी लिपि देवनागरी है। हिन्दी को यह स्थान इसलिए मिला क्योंकि हमारे ज्ञात इतिहास में इसके लिए भी स्वाधीनता संग्राम लड़ा गया। नेतृत्व महात्मा गांधी का था। वे दक्षिण अफ्रीका से भारत 1915 में आए। लेकिन हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है, इसे उन्होंने अपने राजनीतिक अनुभवों से पहले ही समझ लिया था। हिन्द स्वराज में उन्होंने लिखा कि ‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी में शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालना है।’ यानी शिक्षा अपनी भाषा में होनी चाहिए। यह महात्मा गांधी का शिक्षा सूत्र था।
उसी का विस्तार यह है कि भारत महादेश को एक रखने के लिए एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। वह हिन्दी ही हो सकती है। भारत की राष्ट्रीयता का एक उद्घोष इसे मानना चाहिए कि आचार्य केशव चंद्र सेन, स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, काका कालेलकर, सुभाष चंद्र बोस जैसे महान नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के लिए प्रयास किए। ये हिन्दी भाषी नहीं थे। गांधीजी ने तो 1906 में ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का बीड़ा उठा लिया था। राष्ट्रभाषा की आवश्यकता को जितना महात्मा गांधी ने समझा और समझाया वैसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। उनके भाषण और पत्र इसके साक्षात प्रमाण हैं।

कोई अभागा ही होगा जो यह न जानता हो कि भारत आने के बाद 1916 में पहली बार गांधीजी काशी में बोले। यह 4 फरवरी की बात है। उसके अगले दिन वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा में गए। वहां उन्होंने जो कहा वह आज भी प्रासंगिक है। ‘इस सभा के जो पदाधिकारी वकील हैं उन्हें अपना काम अदालत में हिन्दी में चलाना चाहिए।’ अगले दिन वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में थे। वहां वे बोले-‘मुझे इस महान विश्वविद्यालय में एक विदेशी भाषा में बोलना पड़ रहा है। यह बड़ी शर्म की बात है।’ उसी साल लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन था। वहां उन्होंने कहा कि ‘तमिल भाईयों ने मुझसे अपील की है कि मैं उनके सम्मुख अंग्रेजी में बोलूं। उनके आग्रह को अंशत: स्वीकार कर रहा हूं। किंतु मैं बदले में उनसे यह अपील करना चाहता हूं कि वे अगले साल भर में राष्ट्रभाषा सीख लें।’ यह बात है-28 दिसंबर, 1916 की। अगले दिन वहीं वे अखिल भारतीय एक भाषा सम्मेलन में बोले कि मेरी हिन्दी टूटीफूटी है। थोड़ी अंग्रेजी बोलने में भी मुझे ऐसा मालूम पड़ता है मानो मुझसे पाप हो गया है।

गांधीजी ने प्रयासपूर्वक हिन्दी सीखी। उन्हें सलाह दी गई थी कि वायसराय अंग्रेजी के सिवाय और कुछ नहीं समझते। इसलिए हिन्दी न सीखें तो भी कोई हर्ज नहीं है। इस पर गांधीजी ने जो तर्क दिया वह एक अमर सत्य है। उन्होंने कहा कि मेरे बोलने में कोई ऐसी बात रहेगी जिससे वायसराय लाभ उठा सकें तो अवश्य ही मेरी बात हिन्दी में बोलने पर भी सुन लेंगे। उनमें ऐसा आत्म विश्वास था। वे हिन्दी को राष्ट्र का पर्याय समझते थे। वे मानते थे कि हिन्दी के जरिए भारत एक राष्ट्र बन सकेगा। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्होंने अपने भाषण में कहा कि ‘राष्ट्र सेवा तब तक संभव नहीं, जब तक कोई राष्ट्रभाषा न हो।’ पंडित मदन मोहन मालवीय और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास के लिए हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना कराई।

उसका आठवां अधिवेशन इंदौर में हुआ। जिसके अध्यक्ष महात्मा गांधी चुने गए थे। उस अधिवेशन में जाने और बोलने से पहले उन्होंने रवींद्र नाथ ठाकुर को एक पत्र लिखा। उनसे तीन बातों पर सलाह मांगी। एक, क्या हिन्दी एक मात्र संभव राष्ट्रभाषा नहीं है? दो, क्या हिन्दी कांग्रेस के आगामी अधिवेशन में मुख्यत: उपयोग में लाई जाने वाली भाषा नहीं होनी चाहिए? तीन, क्या ऊंची शिक्षा देशी भाषाओं में नहीं होनी चाहिए? इन प्रश्नों पर वे विचार करना सबसे ज्यादा जरूरी समझते थे। इसीलिए सलाह मांगी। उस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा की स्पष्ट व्याख्या की। हिन्दीतर विशेष रूप से दक्षिण भारत के प्रदेशों में हिन्दी के प्रचार पर बल दिया।

उन्होंने जो तब कहा वह आज भी उतना ही महत्व रखता है। साहित्य का प्रदेश भाषा की भूमि जानने पर ही निश्चित हो सकता है। अगर हिन्दी भाषा की भूमि सिर्फ उत्तर भारत होगा तो साहित्य का क्षेत्र संकुचित होगा। हिन्दी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी तो साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। उन्होंने कहा कि भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जन समूह सहज ही समझ ले। वहीं पर उन्होंने अपील की कि हिन्दी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को हमें तैयार करना चाहिए। उनका दृढ़ निश्चय इन शब्दों में प्रकट हुआ-ह्यजब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उसका योग्य स्थान नहीं देंगे तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं। उससे पहले वे कानपुर के प्रताप अखबार में बोले कि ‘हिन्दी ही हिन्दुस्तान के शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है।

यह कैसे हो, केवल यही विचार करना है।’ इंदौर के सम्मेलन से पहले उन्होंने गुजरात शिक्षा सम्मेलन में अपना अध्यक्षीय भाषण दिया था। वहां उन्होंने राष्ट्रभाषा के लक्षण गिनाए। वे इस प्रकार हैं- एक, वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए। दो, उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज सरल होना चाहिए। तीन, उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों। चार, वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चाहिए। पांच, उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाए। गांधीजी ने न केवल हिन्दी को एक राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहा बल्कि वे उसे व्यापार, कारोबार, न्याय, प्रशासन और ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के पक्षधर थे।

गांधीजी ने न केवल हिन्दी को एक राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहा बल्कि वे उसे व्यापार, कारोबार, न्याय, प्रशासन और ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के पक्षधर थे। अंग्रेजी की जगह वे हिन्दी को स्थापित करना चाहते थे।

अंग्रेजी की जगह वे हिन्दी को स्थापित करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष पद संभालने के बाद सबसे पहले दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का संकल्प किया। कुछ लोगों को उनका विचार अटपटा लगा। लेकिन गांधीजी डिगे नहीं। पहले प्रस्ताव पारित कराया। फिर अपने अठारह वर्षीय बेटे देवदास गांधी और स्वामी सत्यदेव को (चेन्नई) मद्रास भेजा। एनीबेसेंट की अध्यक्षता में हिन्दी प्रचार का सूत्रपात हुआ। एक आंदोलन ही चल पड़ा। हिन्दी शिक्षकों को तैयार करने का केंद्र बना हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग। उन दिनों राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन तेज गति पकड़ रहा था। वह हिन्दी की लहर पर सवार था।

ऐसे लोग जो हिन्दी के लिए प्रचारक की भूमिका में थे उन्हें अंग्रेजों ने जेल में डाला। उनमें मोटूरी सत्यनारायण और भाल चंद्र आप्टे का नाम सबसे पहले आता है। उनके प्रयासों से ही दक्षिण के चारों राज्यों में हिन्दी के पठन-पाठन में लोगों की गहरी रूचि पैदा हुई। महात्मा गांधी ने महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, बंगाल और असम में हिन्दी सिखाने के लिए वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की। इसी समिति ने विदेशों में भी हिन्दी सिखाने का पराक्रम दिखाया। एक संयोग देखिए कि जिस कलकत्ता में गांधीजी ने छात्रों और अध्यापकों से कहा था कि अंग्रेजों से भी अंग्रेजी में न बोलें। उसी शहर में वे 15 अगस्त, 1947 को भी थे। स्वतंत्र भारत का वह पहला दिन था। एक अंग्रेज पत्रकार उनका संदेश चाहता था। गांधीजी ने उससे कहा-दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी भूल गया।

महात्मा गांधी ने मीरा बाई से सत्याग्रह सीखा, तुलसीदास के राम चरित मानस से रामराज्य ग्रहण किया, नरसी मेहता से वैष्णव जन पाया और विश्व बंधुत्व को आत्मसात किया तथा कबीर से चरखा पाया।

वे राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं थे। वे भारत के सुनहरे भविष्य के पक्षधर थे। गांधीजी ने तब इसकी पहचान की थी कि अंग्रेजी के पक्षधर कौन हैं? उन्होंने बताया था कि ये तीन हैं। एक, भारत सरकार। दो, राजनीतिक नेता। तीन, नौकरशाही। आज क्या कोई परिवर्तन आया है? महात्मा गांधी ने 21 सितंबर, 1947 को अपनी प्रार्थना सभा में कहा था-‘जिस तरह हमारी आजादी को जबरन छीनने वाले अंग्रेजों की सियासी हुकूमत को हमने सफलता पूर्वक देश से बाहर निकाल दिया है, उसी तरह हमारी संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी जुबान को भी हमें यहां से निकाल बाहर करना चाहिए।’ जिन महात्मा गांधी ने मीरा बाई से सत्याग्रह सीखा, तुलसीदास के राम चरित मानस से रामराज्य ग्रहण किया, नरसी मेहता से वैष्णव जन पाया और विश्व बंधुत्व को आत्मसात किया तथा कबीर से चरखा पाया उन महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर हिन्दी को उसका स्थान दिलाने का यही उचित समय है।

 

 

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