नेहरू ने नागरिक के मौलिक अधिकारों को राज्यतंत्र के पिजरे में बंद करवाया

वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय की पुस्तक ‘भारतीय संविधान-अनकही कहानी’ में नेहरू की तानाशाही रूख की कहानी भी दर्ज है। नेहरू ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को राज्यतंत्र के पिंजरे में कैसे बंद करवाया इसका भी किस्सा है। उसी से राजद्रोह की वापसी हुई। जिसकी चर्चा करते हुए नेहरू के वैचारिक उत्तराधिकारी नही थकते। निरंकुश नेहरू के लोकतांत्रिक नकाब को उठाती है ये पुस्तक

साल 2014 के बाद मौलिक अधिकारों के हनन की बात जोर शोर से उठाई जाने लगी। उठाने वाले लोग लंबे समय तक सत्ता में रहे थे। बाद में चलकर राजद्रोह के मामले भी बहस के केन्द्र में आये। अब यहां सवाल उठता है कि मूल संविधान में मौलिक अधिकारों की व्याख्या क्या थी? आखिर राजद्रोह की वापसी कब हुई? क्योंकि अंग्रेजों के समय का राजद्रोह तो मूल संविधान में था नहीं। फिर राजद्रोह की वापसी कब हुई? इसका एक सिरा मौलिक अधिकारों से जुड़ा था। अब एक सवाल और उठता है कि कौन से हालात पैदा हुए कि संविधान में यह बदलाव करने पड़े।

यह समझने के लिए अस्थाई लोकसभा का रूख करना पड़ेगा। संविधान सभा विसर्जित हो गई थी, लेकिन वही रूपांतरित होकर अस्थायी लोकसभा का कार्य कर रही थी। बात 16 मई 1951 की है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू प्रेस और न्यायपालिका से इतने कुपित हो गए थे कि लोकतंत्र की हर मर्यादा को भुलाकर संविधान संशोधन का प्रस्ताव लाए थे। उस प्रस्ताव पर बोलते हुए उन्होंने कहाकि ‘किसी तरह हमने पाया कि जिस भव्य संविधान का हमने निर्माण किया, कुछ दिनों बाद वकीलों ने उसका अपहरण कर लिया और उसे चुरा लिया।‘ दरअसल नेहरू वकीलों पर नही न्यायाधीशों पर प्रहार कर रहे थे। नेहरू आखिर क्यों संविधान मे संशोधन कर मौलिक अधिकारों को सीमित करना चाहते थे? अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना और प्रेस की स्वतंत्रता को घायल करना इतना अपरिहार्य हो गया था?

अब सवाल उठता है कि नेहरू किस कारण इतना कुपित थे? इसका जवाब है उस समय के न्यायायिक फैसलों के कारण वह कुपित थे। संविधान के मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद -15 नागरिक को समता का अधिकरा देता है। धर्म, मूल, वंश, जाति आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। इसी आधार पर संविधान लागू होते ही लोगों ने अपने अधिकारों के लिए ज्यादातर राज्यों में न्यायपालिका की शरण ली। जहां जहां अपने अधिकार के लिए रोड़ा बने कानून को चुनौती दी, वहां वहां फैसला सरकार के खिलाफ गया। उसी में से एक फैसला तमिलनाडु का था। यहां सरकारी आदेश से मेडिकल कालेज में दाखिलें का कोटा बना हुआ था। छात्रा चंपकम दोरईराजन और छात्र सी.आर.श्रीनिवासन प्रवेश से वंचित होने के कारण अदालत की शरण ली। मद्रास हाईकोर्ट ने छात्रों के पक्ष में फैसला सुनाया।

इन फैसलों से नेहरू की चुनौवी राजनीति को पलीता लगने लगा। इस पर नेहरू ने पहले मुख्यमंत्रियों से बातें की। पत्र लिखे। उसी में से एक पत्र नेहरू ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री डा. विधानचंद्र राय को लिखा। इस पत्र में उन्होंने कुछ बातें कुबूल की, जिसमें यह भी था कि संविधान अगर कांग्रेस की नीतियों के विपरीत जाता है तो उसे बदलकर अनुकूल बनाना है। ये थे नेहरू। अब सवाल उठता है कि ऐसा नेहरू कर कैसे पाए? इसके दो कारण हैं। पहला कि सरदार पटेल का निधन हो गया था। डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी और के.सी नियोगी ने नेहरू – लियाकत समझौते के विरोध में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया था। डा. मथाई आर्थिक नीतियों पर नेहरू से मतभेद के कारण मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर बाहर चले गए। इन घटनाओं ने जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस को निरंकुश बना दिया।

वह 12 मई, 1951 की तारीख थी। इसी दिन नेहरू संविधान संशोधन का प्रस्ताव लेकर आए थे। संविधान विशेज्ञयों ने जैसे ही संविधान संशोधन के बारे में सुना और जाना, तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि यह ‘दूसरा संविधान’ है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के लिए अंग्रेजी जमाने के प्रावधान और शब्दजाल को पुन: स्थापित किया गया। जैसे जनहित, राज्य की सुरक्षा और विदेशी संबंध बिगड़ने जैसे अपरिभाषित शब्द डाले गए। मूल संविधान नागरिक को मौलिक अधिकारों से संपन्न बनाता था। नेहरू ने उसे राज्यतंत्र के पिजरे में बंद करवाया।

 

 

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