सियासत से एक सवाल है क्या वह राम बनने को तैयार है?

उमेश सिंह

यह सत्ता के भगवा रंग का प्रताप है। एक सन्यासी के सिंहासन पर बैठने का परिणाम है। सांस्कृतिक प्रतीकों के मानो पुनरुत्थान के युग की आहट सूबे मे चहुँओर है, जहाँ भी गुंजाइश है। इलाहाबाद अब प्रयागराज हो गया है। राम की अयोध्या भी विधिवत ढंग से रंगी जा रही है। दीपोत्सव के बहाने। योगी सरकार का यह दूसरा दीपोत्सव है।

बीते बरस पहली दीपावली त्रेता युग के बाद ऐसी रही कि मानो अयोध्या निहाल हो उठी थी। इतिहास करवट ले रहा था। काल का पहिया घूम गया था। पहुंच गया दीपावली के प्रारंभ बिंदु पर। काल मानो निचिडकर एक बिंदु पर आ गया। त्रेता और कलयुग के बीच की दूरी मानो सिमट गई थी। त्रेता युग में इसी अयोध्या ने अपने राम का स्वागत दीयों की रोशनी से किया था। दरअसल अयोध्या दीपावली की परंपरा का आदि बिंदु है। वनवासी राम के राजा राम बनने के दिन को समुची दुनिया में मनाया जाता है। लेकिन जिस ने शुरू किया, वही अयोध्या चुप सी हो गई, उदास हो गई, गुम सुम हो गई।

इसी अयोध्या की आबोहवा ने ही राम और राम से पहले भी भारत की संस्कृति को गढा। इसी अयोध्या ने बहुसंख्यकों की संस्कृति को खाद पानी दे उसे पुष्पित पल्लवित किया। रघुवंशी राजाओं की धर्म, अध्यात्म, त्याग, प्रजावत्सल की कहानियां किताबों में ही नहीं, लोगों के कंठ में है, स्मृतियों में दर्ज है। यह सच है कि इतिहास खुद को दोहराता है। अयोध्या में यह सच पिछली बार घटित हुआ। भले प्रतीकों में सही। चलत विमान कोलाहल होई  सामान पुष्पक विमान अयोध्या के आंगन में उतरा तो आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। एक ही नारा एक ही नाम . जय सियाराम जय सियाराम  की गगनभेदी घोष से परिवेश गुंजायमान होने लगा था। अयोध्या के रोम रोम में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का स्पंदन हो रहा था। सत्ता और संत राम का स्वागत कर रहे थे। गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र प्रतीकों में ही सही सीएम योगी आदित्यनाथ और राज्यपाल राम नाईक ने राम को टीका लगा राज्याभिषेक किया। सत्ता, संत और सरयू की त्रिवेणी के बीच ही लोगों की भावना जनित छलकती अश्रु और तालियों की गड़गड़ाहट संकेतों में बहुत कुछ भविष्य के भारत के लिए बुलंदी से बयां कर रही था।

संस्कृति के रथ से सियासी तीर भी चलाए गए थे। ग़ौरतलब है कि त्रेता युग में समूची राजसत्ता श्री राम के 14 वर्ष के वनवास को पूरा होने पर पलक पांवड़े बिछाए थी। आज की राजसत्ता भी श्री राम के लिए अयोध्या के आंगन में उतर आई थी। देश के बहुसंख्यकों की भावना सदियों से इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी। राम ने क्या नहीं दिया राम की संस्कृति ही बहुसंख्यकों के दिल में धड़कती है। राम उसके मानस को मथते हैं। श्रीराम दिए की तरह जलते रहे और खुद अंधियारा पीते रहे तथा रोशनी उगलते रहे। राम का जीवन साधना का जीवन था। वह मूल्यनिर्माता थे। जन जन में राम वास करते हैं लेकिन सत्ता ने उन्हें निर्वासित कर दिया था, वनवासित कर दिया था। अपने घर आंगन में ही वे उदास थे। गुमसुम रहने वाली, मौन धारण करने वाली अयोध्या दीपावली पर जगमगा उठी थी। दीयों की रोशनी से सरयू का किनारा नहाया तो उस की लहरें भी मानो आनंद का गीत गाने लगी। अयोध्या की दीपावली ने संस्कृति की शिला पर हस्ताक्षर कर दिया।

राम की उपेक्षा का जो दर्द था, राम को लेकर सदियों से लोगों में जो सांस्कृतिक भूख प्यास थी, उसको अयोध्या की दीपावली ने कमोबेश शांत कर दिया। अस्मिता पर उपेक्षा की धूल चढा दी गई थी। वह मानो धुल गई, साफ सुथरी हो गई। राम की संस्कृति यानि मर्यादा त्याग और करुणा की संस्कृति। इन शब्दों से राम और उनकी अयोध्या का नाभिनाल का रिश्ता रहा है।

अयोध्या मे दूसरे दीपोत्सव की तैयारियाँ अंतिम चरण मे है। सियासत से एक सवाल है कि वह राम बनने को तैयार है या नही तैयार है तो कितनी तैयारी है उसकी, उसमें जननायक राम की तरह जनहित के लिए अंधेरा पीने का साहस है या नही तेल जलता है। बाती जलती है। तब रोशनी होती है। रोशनी उगलने के लिए राम बनना होगा।

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