अफ्रीका से मालामाल होने की होड़

 

बनवारी

अफ्रीका की जिन बातों ने विश्व की प्रमुख शक्तियों का ध्यान आकर्षित किया है, उनमें उसकी जनसंख्या में युवा लोगों के सर्वाधिक अनुपात के अलावा उसकी बढ़ती हुई आर्थिक वृद्धि दर भी है।

अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं यह कहने लगी हैं कि इस समय अफ्रीका महाद्वीप की आर्थिक वृद्धि दर दूसरे सभी महाद्वीपों से अधिक है। विश्व के सबसे तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहे दस देशों में छह अफ्रीका में हैं।

सहारा के दक्षिण स्थित अफ्रीकी देशों को अब तक सबसे पिछड़े क्षेत्रों में गिना जाता था। अब उनकी वृद्धि दर भी 4.5 प्रतिशत हो गई है। पश्चिमी अफ्रीकी क्षेत्र की वृद्धि दर सबसे अधिक 6 प्रतिशत है। मध्य अफ्रीका की 5.5 प्रतिशत, पूर्वी क्षेत्र की 5.6 प्रतिशत और उत्तरी क्षेत्र की 4.5 प्रतिशत। इन आंकड़ों ने विश्व पूंजी को उसकी ओर खींचना आरंभ कर दिया है।

अफ्रीका प्राकृतिक दृष्टि से बड़ा विषम क्षेत्र है। उसका 60 प्रतिशत क्षेत्र तो रेगिस्तान ही है। विश्व का सबसे विशाल रेगिस्तान अफ्रीका में ही है। फिर भी विश्व की 25 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि अफ्रीका में है। इसमें से आधी पश्चिमी देशों की अधीनता के समय उनकी नीतियों के कारण हीन अवस्था में पहुंच गई।

आज अफ्रीकी देश अपनी कृषि को फिर से सुधारने में लगे हैं। अफ्रीका संसार का सबसे गर्म महाद्वीप है, लेकिन संसार के बहुमूल्य धातुओं के बड़े भंडार भी अफ्रीका में ही हैं। भूमध्य सागर उसे एशिया और यूरोप के लिए सुगम बनाता रहा है। इसका अब तक उसे नुकसान ही रहा है, क्योंकि वह पहले अरब और फिर यूरोपीय शक्तियों के अतिक्रमण का शिकार होता रहा।

बाहरी लोगों के लिए उसके तेल भंडार, सोने और हीरे की खानें आकर्षण का केंद्र रहे हैं। विश्व का 30 प्रतिशत सोना अफ्रीका में ही है।

शेष अफ्रीका से इस क्षेत्र की राजनैतिक शक्तियों का संबंध वैसा ही रहा है जैसा यूरोपीय शक्तियों का। इस उत्तरी क्षेत्र की शक्ति के बल पर ही अरब व्यापारी अफ्रीका से बड़े पैमाने पर गुलाम लाकर मध्य एशिया और यूरोप के बाजारों में बेचते थे। इन गुलामों की सेना के लिए तथा अमीर लोगों के सेवकों व अमीर लोगों की उपपत्नियों के रूप में जरूरत बनी रहती थी।

इसी सूत्र को पकड़कर पुर्तगाली 15वीं शताब्दी में अफ्रीका पहुंचे थे। बाद में अफ्रीका से लगभग सवा-डेढ़ करोड़ गुलाम बनाकर अमेरिकी महाद्वीप में ले जाये गए और अमेरिकी संपन्नता अधिकांशत: उन्हीं लोगों के खून पसीने की देन है। गुलामों के इस व्यापार की कथा लोमहर्षक है और वह अरब और यूरोपीय स्वभाव की बर्बरता को उजागर करती है।

कहा जाता है कि जितने गुलाम अमेरिका पहुंचे, उससे कहीं अधिक भूख, बीमारी और व्यापारियों के दमन के कारण रास्ते में ही मर गए।

गुलामों के इस व्यापार की कथा बहुत विचित्र है। अरब और यूरोपीय क्षेत्रों में पुराने समय से विजित लोगों को गुलाम बनाया जाता था। इस्लाम में मुसलमानों को गुलाम बनाने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके बाद अरब व्यापारियों ने दूसरे क्षेत्रों की तरफ देखना आरंभ किया।

अफ्रीका से तो बड़े पैमाने पर लोगों को गुलाम बनाकर ले जाया ही गया, बरबर लोग यूरोपीय क्षेत्रों में जाकर कम आयु के लड़के लड़कियों को उठा लाते थे। स्वस्थ लड़कों को सेना को सुपुर्द कर दिया जाता था और लड़कियों को सेवक और उपपत्नियों के रूप में बेच दिया जाता था। अरब और यूरोपीय हरम इसी तरह बनते थे।

इतिहासकारों के अनुसार तुर्कों ने अरब क्षेत्र में 1299 में जो उस्मानी राज्य स्थापित किया था, उसकी सेना में भी यूरोप से उठाकर लाए गए गुलामों की संख्या काफी थी। एक समय वह एक लाख तक पहुंच गई थी। कुल मिलाकर 16वीं से 19वीं शताब्दी के बीच उन्होंने 8 से 12.5 लाख लोगों को गुलाम बनाया|

अफ्रीका में सातवीं शताब्दी में अरब पहुंचे थे और 15वीं शताब्दी में यूरोपीय। पुर्तगाल और स्पेन तभी मुस्लिम आधिपत्य से मुक्त हुए थे। उन्होंने अरबों से व्यापारिक पहल छीनने के लिए अपने व्यापारी अफ्रीका भेजे। उसी क्रम में भारत और चीन का व्यापारिक मार्ग खोजने के लिए कोलंबस को भेजा गया था, जो भटक कर अमेरिकी महाद्वीप पहुंच गया और उससे मिली अमीरी के बल पर यूरोपीय लोग यूरोप को स्वर्ण-लंका बनाने में सफल हो गए।

अमेरिका के अपने आप को ब्रितानी नियंत्रण से मुक्त कर लेने के बाद यूरोपीय शक्तियों ने शक्ति के नये स्रोत तलाशने आरंभ किए और एक औपनिवेशिक साम्राज्य खड़ा कर लिया। अफ्रीका इस औपनिवेशिक अभियान का निशाना 18वीं शताब्दी के अंत में बनना आरंभ हो गया था। लगभग 100 वर्ष अफ्रीकी लोगों ने यूरोपीय शक्तियों से संघर्ष किया। लगभग 1890 में यूरोपीय शक्तियों का अफ्रीका पर नियंत्रण हो पाया।

अफ्रीका पर यूरोपीय शक्तियों का नियंत्रण मुश्किल से 60-70 वर्ष रहा। लेकिन इस छोटी से अवधि में ही उन्होंने अफ्रीका के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन को तहस-नहस कर के रख दिया। यूरोपीय नियंत्रण से पहले अफ्रीका में लगभग 10 हजार राज्य थे। यूरोपीय शक्तियों ने अपने-अपने विजित क्षेत्रों के आधार पर मनमाने तरीके से अफ्रीका के 54 देश बना दिए। इन देशों में अधिकांश के बीच अनेक तरह की जनजातीय और क्षेत्रीय विविधताएं हैं।

इन विविधताओं के कारण ही यूरोपीय नियंत्रण से मुक्त होने के बाद वहां जनजातीय संधर्ष होते रहे हैं और साधनों के अभाव में सरकारें कमजोर बनी रही।

अफ्रीका के भीतर के जनजातीय संघर्षों का दोष अक्सर वहां की जनजातीय प्रतिस्पर्धा पर डाल दिया जाता है। लेकिन आज की जनजातीय पहचान और प्रतिद्वंद्विता उन्हें यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों ने ही दी है। अफ्रीकी समाज भी विश्व के अन्य सभी समाजों की तरह रक्त संबंधों पर विकसित हुए कुलों से बना है। यह कुल ही कबीले हैं।

आवश्यकता पड़ने पर एक क्षेत्र में बसने वाले कुलों के समूह एक नई पहचान ले लेते हैं और उन्हें एक बड़े कबीले के रूप में जाना जाने लगता है। औपनिवेशिक शक्तियों का क्योंकि शासित लोगों से कोई सहज संबंध नहीं होता, उन्हें शासन चलाने के लिए ऐसे लोगों की आवश्यकता होती है, जिन्हें वे स्थानीय लोगों के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित कर सकें।

यह औपनिवेशिक शासन क्योंकि बड़े क्षेत्र में था, इसलिए स्थानीय लोगों को बड़ी पहचान देते हुए बड़ी कबीलियाई पहचान गढ़ी गई। फिर उनकी सामाजिक भूमिका समाप्त करके केवल राजनैतिक भूमिका रहने दी गई।

भारत में भी ठीक वैसा ही हुआ। यहां जातियों की पहचान स्वशासन की एक सामाजिक इकाई के रूप में थी। जातियों का स्वरूप स्थानीय था और उनकी भूमिका प्राथमिक रूप से सामाजिक थी। अंग्रेजों ने उनकी सामाजिक सक्रियता को समाप्त कर दिया। वे सारे दायित्व राज्य को सौंप दिये गए।

जातियों को राजनैतिक बिचैलियों के रूप में इस्तेमाल किया गया। इसी क्रम में अनुसूचित जाति, जनजाति जैसे नये वर्ग बने। धीरे-धीरे जातियों का स्थानीय स्वरूप जाता रहा और वे क्षेत्रीय राजनैतिक शक्तियों का स्वरूप लेती गईं। अंग्रेजों को तब वे राजनैतिक चुनौती दिखाई देने लगी थीं, इसलिए उनकी निंदा की जाने लगी।

हमने वही अंग्रेजों की भाषा रट ली है। हम यह नहीं देख पाते कि एक स्थानीय सामाजिक इकाई के रूप में वे नैतिकता, न्याय और व्यवस्था की महत्वपूर्ण इकाईयां थी। आज वे राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में डाल दी गई है। इस रूप में भी उनकी भूमिका राजनैतिक दलों से बेहतर ही है, क्योंकि उनका अपने समाज से कुछ तो संबंध है।

अफ्रीका में अधिकांश देशों में अनेक कबीले हैं और दूसरी जगह अनेक कबीले कई देशों में फैले हुए हैं। स्वाभाविक है कि राज्य सत्ता पर अधिकार के लिए उनमें संघर्ष हो। ऐसे ही एक संघर्ष में रवांडा के दो दशक पहले आठ लाख लोग मारे गए थे। अफ्रीकी राज्य यूरोपीय शक्ति की देन है और मुख्यत: वे यूरोपीय शिक्षा दीक्षा पाए लोगों से बने हैं।

आज की दुनिया में राज्य और उनकी सेनाएं अपरिहार्य बना दी गई हैं। यूरोपीय जाति की समृद्धि सबसे अधिक उनके हथियारों की बिक्री पर निर्भर है। इसलिए स्थिर अफ्रीकी देशों में औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा विकसित राज्य अपरिहार्य हो गए हैं। अब एक नया मध्य वर्ग पनप रहा है, जिसे अपनी सुख सुविधा बनाए रखने के लिए शांति चाहिए। इसलिए अफ्रीका अपेक्षाकृत शांत है।

आज अफ्रीका उस दौर से एक कदम आगे बढ़ा चुका है। उसमें नई शिक्षा पाया एक नया वर्ग खड़ा हो गया है। वह अपनी अफ्रीकी पहचान के बारे में सतर्क है और योग्यता में वह अपने को संसार की किसी भी और जाति से हीन नहीं समझता। आज भी हथियार, दवा, नशीली सामग्री और भौतिक सुख के औद्योगिक सामान बेचने वाली विदेशी कंपनियों का तंत्र अफ्रीका में फैला है। यूरोपीय लोगों ने जैसे 19वीं शताब्दी में चीन को अफीम की लत लगा दी थी वैसे ही अफ्रीका में पश्चिमी कंपनियों का नशीली सामग्री बेचने वाला तंत्र फैला हुआ है।

वह अब अफ्रीका की ही नहीं स्वयं अमेरिका और यूरोपीय देशों की मुख्य चिंता बन गया है, क्योंकि उनके यहां भी बहुसंख्या ऐेसे ही युवकों की है जो एक न एक बार नशे की लत में अवश्य पड़ते हैं।

विश्व के बाकी देशों की तरह ही अफ्रीका में भी एक विषम अर्थतंत्र पनप रहा है। आर्थिक प्रगति के साथ असमानता बढ़ रही है और निर्वाह लागत बढ़ते चले जाने से आर्थिक तनाव बढ़ते जा रहे हैं। एक तरफ गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो रही हैं, दूसरी तरफ सामान्य लोगों के जीवन से सहज प्राकृतिक जीवन के सारे सुख नदारद होते चले जा रहे हैं।

पर यह एक विश्वव्यापी समस्या है और इसका हल अकेले अफ्रीका नहीं निकाल सकता। आज अफ्रीकी लोगों में अधिक आत्मविश्वास है, विश्व की अन्य जातियों से होड़ करने की क्षमता है। वे विश्व से अपने संपर्कों का दायरा बढ़ाना चाहते हैं। साधनहीन परिवारों से निकलकर शिक्षा दीक्षा या नये कौशलों के जरिए आगे बढ़े युवा विश्व को एक नई चुनौती के रूप में देख रहे हैं। वे अपने समाज के जीवन स्तर को औरों जैसा ही बनाना चाहते हैं।

अफ्रीकी समाज में पैदा हुई इस नई ऊर्जा ने ही विश्व की मुख्य शक्तियों को आकर्षित किया है। अब तक उनका अधिक संपर्क और व्यापार अमेरिका या यूरोपीय देशों से था। पिछले एक दशक में चीन अफ्रीका का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी हो गया है। अफ्रीका को चीन बड़े पैमाने पर हथियार बेच रहा है। एक तरह से उसने रूस का बाजार हथिया लिया है। वह अफ्रीका से 20 प्रतिशत तेल आयात करता है।

अफ्रीका में चीन की 8000 कंपनियां है और चीनी उद्यमों में काम करने के लिए दस लाख चीनी अफ्रीका में बसे हुए हैं। वह बड़े पैमाने पर अफ्रीका में निवेश कर रहा है। उसने बंदरगाह, हवाई अड्डे, रेल और सड़क बनाने में काफी निवेश किया है। चीन, खाड़ी के देश और जापान अफ्रीकी देशों में बड़े पैमाने पर कृषि भूमि खरीद रहे हैं। अफ्रीका से मालामाल होने की यूरोपीय देशों में जैसी होड़ 19वीं शताब्दी में मची थी वैसी ही अब मचती दिखाई दे रही है और उसमें नये देश सम्मिलित हो गए हैं।

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