ठंडे पड़े शमशान, फुरसत में यमराज

उमेश सिंह

आफत के काल में सांसत के रेले है। फिर भी दम-ब-दम बेदम होने के बाद भी दम शरीर में बना हुआ है। कोरोना के पूर्व प्राण पखेरू के उड़ान का जो सूचकांक शांत काल में था, वह अशांत काल में संभवत: गिर गया है। शेयर बाजार गोते लगाता है तो निवेशकों की सांसे थम सी जाती है लेकिन इसका गोता लगाना राहत और सुकून भरा बेहद आनंददाई है। आखिर हो भी क्यो न? प्राण की रक्षा के लिए दिन रात आदमी क्या क्या नहीं करता। प्राण है तो जीवन है और वह जीवन की आग इस दौर में इतनी तेज है कि चिताग्रि भूमियां ठंडी सी पड़ गई है। सड़कों पर फर्राटा नहीं सन्नाटा बरपा है। हर रोज इसी फर्राटे में ही कितने लोग असमय काल की गाल में समा जाते थे।

परंपरा की धवल रोशनी में देश के तकरीबन सभी हिस्सों में ऐसे अनेक शमशान है जिनकी महिमा का गान है, बखान है। धर्म के धुरी भगवान राम की नगरी अयोध्या में दो श्मशानों का अधिक महत्व है। सरयू के किनारे यमथरा और तपस्वी महाराज की साधना भूमि के पास कलकल बहती सरयू को स्पर्शित करता हुआ तट। पास पड़ोस के जिलों के भी लोग मृत काया को कायांत के लिए यहां लेकर आते है। यमभूमि यमथरा की अग्रि इतनी मद्धिम पड़ गई है कि वह शव की अनुपस्थित में रह रह कर बुझ जा रही है। यह श्मशान आधुनिक व्यवस्थाओं से सजी-धजी है लेकिन यहां पर इन दिनों सन्नाटे की ही गूंज है। एक दौर वह भी था कि राम नाम सत्य की आकाशगामी ध्वनियां यहां गूंजती रहती थी। वहीं दूसरी ओर सरयू तट से सटे प्राकृतिक श्मशान स्थल पर भी अब पहले जैसी चहल पहल नही रही। यहां की दुकाने भी कोराना संक्रमण के कारण बंद है जिसके कारण कभी कभार शव के साथ आने वाले लोगों को परिजन के बिछुडने की विकल वेदना से तो बेहाल ही रहते है, पेट में उठी भूख की आग में भी वे कम नहीं दहकते है। दरअसल पता नहीं ऐसा कौन सा अनजाना कारण है कि शवयात्रा में शामिल लोगों के पेट में भूख की आग सामान्य दिनों की अपेक्षा कई गुना तेज धधकने लगती है।
हमारे गांव के लोग काशी में भले ही जीवित रहते न गए हो लेकिन वहां जाने की तमन्ना दिल में हिलोरे मारती रहती है। बहुतेरे लोग ऐसे है जो शरीरा के शांत हो जाने पर ही काशी पहुंच पाए। मरने के बाद पहुंचे। खुली आंखों से भगवान शिव की नगरी का दर्शन तो नहीं हो पाया। लेकिन जब आंखे मुद गई तब पहुंचे। उनके परिजन भले आर्थिक दुश्वारियों में घनघोर रूप से घिर जाए, पार्थिव शरीर को लेकर काशी पहुंचने का संकल्पित रहते है। मणिकर्णिका पर ही अंतिम संस्कार करेगे, भले ही कर्जा चढ़ जाए। मणिकणिका घाट पर मुखग्रि देगे। इसके पीछे दो कारण है। मरने के बाद भी मृतक के परिजनों का ‘हम भी बड़का हईÓ का बेमतलब का भाव तथा धार्मिक महत्व तो है ही। गरिमापूर्ण आयु में काया छोडऩे पर तो गांव के रसरंजन प्रेमियों की बांछे खिल जाती है। बड़े उत्सवपूर्ण ढंग से काशी जाने की तैयारियां शुरू हो जाती है। गांव से निकलने के पहले ही रस से सरोबार लोगों के पांव भी डगमग-डगमग करने लगते है। हाल तो यह रहता है कि शव यात्रा मार्ग में कहां-कहां पर रसरंजन केंद्र है, इसका सटीक पता रहता है। पार्थिव शव ऊपर बस पर विराजमान है। लेकिन बस के चक्के थोड़ी-थोडी देर के लिए रस के इंतजाम केंद्रों पर ठहर जाते है। फिर बस चल पड़ी मणिकर्णिका के लिए। गांव के बुजुर्गो का हाल चाल रस के शौकीन लोग इन दिनों खूब ले रहे है। क्योकि उन्हें डर है कि यदि इस समय प्राण छूटे तो रस रंजन का अनवरत २४ घंटे का उत्सव का मौका हाथ से निकल जाएगा। क्योकि काशी की ओर जाने पर इन दिनों पाबंदी है।
काशी में अब सिर्फ शिवनगरी के निवासियों को ही मणिकर्णिका घाट जाने का अवसर मिल रहा है जिसके कारण विहार और यूपी के अन्य हिस्सो से लाशे अब नहीं आ रही है। क्योकि काशी ही सील हो गई है। इसी का नतीजा है कि मणिकर्णिका घाट पर अनवरत जलने वाली चिताओ की आग मद्धिम सी पड़ गई है। एक दौर वह भी था जबकि लोग अग्नि को मुखाग्रि के लिए पाने को लंबी-लंबी कतार लगाते थे। चार-पांच घंटे बाद नंबर आता था। लेकिन इन दिनों शवों की तादात में तकरीबन ८० प्रतिशत की कमी आ गई है। कोराना संक्रमण काल के पहले औसतन हर रोज २५० से ३०० पार्थिव शव अंत्येष्टि के लिए आते थे जबकि इन दिनों यह घटकर १५-२० हो गई है।  मणिकर्णिका घाट की ओर जाने वाली गलिया राम नाम सत्य है से गूंजती रहती थी लेकिन वह वह आवाज ही गुम सी हो गई। कंधे पर शव और शव पर लाई, बताशा और चावल की छीटते रहने की परंपरा है। दुकाने बंद है लेकिन इसलिए यह परंपरा तो टूट ही गई, साथ ही में इसकों ग्रहण करने वाले पशु पक्षी भी बेचारे पेट की आग में बेबसी और उदासी में पड़ गए है। शव के साथ आए यात्रियों को कचौड़ी गली एवं कचेहरी के पास कालिका के यहां भरपेट पक्का भोजन कराने की परंपरा है। जो नहीं करा पाया, तत्काल उसके गरीब होने का सर्टीफिकेट वहीं पर जारी भी कर दिया जाता है। मेरे गांव व आस पास में तो यही से सर्टीफिे केट जारी होता है। आकंठ भोजन तो अमीरी का सर्टीफिकेट और ऐसा नहीं हुआ तो दरिद्र और गरीबी का सर्टीफिकेट निर्गत हो जाता है। वर्षो तक लोग चर्चा करते रहते है।
लाकडाउन ने बड़ी राहत दी है। अब यदि किसी का कायांत हो गया तो उसे स्थानीय स्तर पर ही दो चार लोग मिलकर अंतिम क्रिया संपन्न कर दे रहे है। पुत्र या अन्य परिजन कहीं दूर के दूसरे शहर में कोरोना के कारण बंदी जीवन में है तो वीडियों कालिंग के  जरिए उन्हें शव दर्शन कराया जा रहा है। बेटा ही मुखाग्रि करे, इस आफत काल में यह भी परंपरा टूट रही है। श्मशान को कायांत भी कहा जाता है। यानि यहां काया का अंत हो जाता है। यानि जीव का अंत नहीं होता। होता तो इसे जीवांत भी कहा जाता है। श्मशान में शिव क्यो बिराजते है। हमे लगता है कि शिव ऐसी जगह बैठते है, जहां जीवन के मायने स्पष्ट है। कोई दुविधा नहीं, कोई संशय नहीं। यमराज देवता जैसा बड़ा कर्मयोगी कौन होगा? चुप्पी साधे हर क्षण चाहे वह दिन हो या रात, धूप हो या बरसात अपने कर्म में साधक की तरह रत रहते है। यम महानी कर्मयोगी है। गीता के दर्शन को धारित करते है। गलती तो कतई नहीं करते। जिसकी जब बारी होती है, पारी-पारी से उठाने के लिए हर घड़ी तत्पर रहते है। इतनी बड़ी दुनिया। लेकिन क्या मजाल कि उनसे कोई चूक हो जाए। हर क्षण मछली के आंख की तरह अपना निशाना हनते रहते है। ऐसे महनीय कर्मयोगी का कंधा लाशों को ढोते-ढोते कितना पिराता रहा होगा? कितना दुखता रहा होगा? लेकिन वे बेचारे उफ तक नहीं करते। उनसे सब घृणा करते है लेकिन वे अपने कर्म से प्रेम करते है। सृष्टि संचालन में उनको जो जिम्मेदारी मिली, उसे विराट मन और विशाल ह्दय से करते रहते है। कोराना काल में यमराज के कंधों को उन क्षेत्रों में जरूर राहत मिली है, जहां जीव-निरजीव के बीच वाले इस वाइरस का आतंक कम बरपा है। श्रम से थके हारे यम देवता के कंधों को वैसा ही सुकून मिल रहा होगा जैसा कि झंडू बाम के मालिश के बाद जियरा को राहत मिलती है।

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