संविधान की पहली प्रति, एक कलात्मक प्रस्तावना

जवाहरलाल कौल

जब नंदलाल बसु को हमारे संविधान की मूल प्रति के चित्रांकन का काम सौंपा गया था तो वह कोई सरकारी या अर्ध-सरकारी प्रस्ताव तो नहीं रहा होगा। जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिन्होंने भारतीय संविधान की रचना में अपना योगदान किया था, उन नेताओं में से किसी ने तो देश की ओर से उनसे अनुरोध किया होगा, सदियों की गुलामी के पश्चात मिली स्वतंत्रता से विकसित गणतंत्र की आकांक्षाओं और संभावनाओं, अधिकारों और कर्तव्यों के दस्तावेज के चित्रांकन के बारे में बातचीत हुई होगी, कुछ सुझाव दिए गए होंगे और सहमति बन गई होगी। फिर नंदलाल बसु जैसे प्रतिभावान कलाकार ने एक मूक श्रोता की तरह तो व्यवहार नहीं किया होगा। उन्होंने अपनी कला की शैली और उसके पीछे की अवधारणा का विकास भारतीय इतिहास के आदिकाल, ऋग्वैदिक युग, मौर्यकालीन और बौद्ध कला के गहन अध्ययन, अजंता और बाघ की कंदराओं के चित्रांकन की बारीकियों, फीके पड़ते रंगों और रेखाओं में महीनों तक जान डालने और सांस्कृतिक भारत की परिधि में आनेवाले देशों की कला दीर्घाओं की खाक छानने के पश्चात किया था। जब ऐसे कलाकार को कहा जाता है कि वे नवजात गणतंत्र के संविधान की मूल प्रति को सुरूप दें तो वह केवल एक व्यावसायिक को किसी पुस्तक की सजावट का ही ठेका नहीं होता, वह एक महान राष्ट्र और देश की सबसे मानक कला संस्था ‘विश्वविद्या तीर्थ प्रांगण’ यानी शांति निकेतन के बीच एक पवित्र बंधन था।

हमारे संविधान की पहली प्रति चित्रों से सजी मुद्रित पुस्तक नहीं है। वह कलम से लिखी, तूलिका से चित्रित अपने आप में एक ऐतिहासिक कलाकृति ही है। इसे लिखा, दिल्ली के प्रेमबिहारी नारायण रायजादा ने। प्रेमबिहारी ने सुलेख अपने दादा से सीखा  तभी से यह उनका खानदानी पेशा बना था।

नंदलाल बसु ने यह काम अपने गुरु अवनींद्रनाथ ठाकुर की सहमति से स्वीकार किया था। नंदलाल बसु के नेतृत्व में कला भवन’ अनायास ही कई प्रतिभावान कलाकारों की कार्यशाला बन गया। अगर हमारा संविधान सैकड़ों जननायकों और विविध विद्याओं के धनी नेताओं ने एक-एक बिंदु को जांच-परखकर रचा तो उसकी मूल प्रति का अलंकरण भी कई कला पारखियों ने अपनी-अपनी प्रतिभा के अनुसार किया। नंदलाल बसु उस विविधता को एक सूत्र में पिरोते गए। उनके साथ उनके छात्र, जो उनके साथ कई कला यात्राओं में शामिल रहे थे, जो अजंता के चित्रों के पुनरुद्धार के महत्त्वपूर्ण काम में उनके सहयोगी थे। इनमें वे कलाकार भी थे, जो उनके गुरु अवनींद्रनाथ बसु के छात्र थे। संविधान की इस प्रति में केवल वे 22 चित्र ही नहीं थे, पन्नों की वह फूल-पत्तियों वाली किनारी भी थी, जो अपने आपमें एक भारतीय कला शैली का प्रतिनिधित्व करती थी और वह सुलेखन कला भी, जो किसी भी कलाकृति की शोभा होती है। प्रतीकों की सही ढंग से प्रस्तुति का महत्त्व केवल संविधान लेखन के साथ संबंध ही नहीं था, उनमें से कई तो अलंकरण के मानक प्रतीक भी बन गए। संविधान बनाने और पारित करने का काम संपन्न होने से काफी पहले से ही उसके चित्रांकन का निश्चय किया गया था। तभी मध्य प्रदेश के बेतुल जिले के एक छोटे से कस्बे से एक युवक कलाकार कलकत्ता (अब कोलकाता) के लिए चल पड़ा। उसे विभिन्न जीव-जंतुओं का चित्रांकन करने का शौक था। उसे लगता था कि पशुओं की भाव-भंगिमाओं, उनके अंग संचलन का जितना अनुभव और उन्हें चित्रित करने की जितनी क्षमता उसमें है, वह गर्व करने लायक है।

वह प्रसिद्ध कला मर्मज्ञ नंदलाल बसु को अपनी कला दिखाने आया था। आचार्य ने उसके चित्रों को देखा और प्रसन्न हुए. लेकिन संतुष्ट नहीं दिखे। इस युवक के चित्रित सारनाथ में अशोक स्तंभ पर विराजमान उन चार शेरों की मूर्ति की ओर इशारा करते हुए आचार्य ने उससे कहा, ‘इन शेरों में जीवन फूंक सकते हो?’ वे शेरों को सजीव देखना चाहते थे, प्रस्तर में बंद नहीं। युवक ने उनसे आंखें मिलाते हुए देखा कि आचार्य मजाक नहीं कर रहे हैं, गंभीर हैं। युवक ने उतनी ही गंभीरता के साथ उत्तर दिया, ‘हाँ।’ युवा कलाकार ने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार लिया था। और उसी समय कलाकार दीनानाथ भार्गव निकल पड़ा, जीवित शेर खोजने के लिए, जो उसे पास ही चिड़ियाघर में मिल गया। उस दिन से एक महीने से भी अधिक समय तक दीनानाथ नित्य सुबह घर से निकलता और चिड़ियाघर में शेर के अहाते के सामने अनुकूल स्थान खोजकर बैठ जाता और शेरों के जोड़े की हर हरकत को देखने लग जाता। उनके हर अंग में आनेवाले बदलाव को, आंखों के बदलते रंगों को, कान की ऐंठन को, गरदन के झुकाव को, नथुनों के फुलाव को, यहां तक कि शेर की मूंछों को भी। शाम होते ही वह घर जाकर उन सभी परिवर्तनों को अलग-अलग भंगिमाओं में संयोजित करके प्रस्तर में उत्कीर्ण शेरों का चित्रांकन करने लगता। तीन चार दिनों में जो बनता था, वह आचार्य के पास ले जाता। लेकिन नंदलाल बसु के चेहरे के भाव नहीं बदलते और दीनानाथ फिर चिड़यिाघर की अपनी पाठशाला में जाने का सिलसिला जारी रखता।

शायद चौथे प्रयास में ही उसे सफलता मिली और आचार्य के चेहरे पर मुसकराहट प्रकट हो गई। वही चित्र हमारा राष्ट्रीय चिह्न बना, जो हमारे संविधान । पहले पन्ने पर अंकित है। हमारे संविधान की पहली प्रति चित्रों से सजी मुद्रित पुस्तक नहीं है। वह कलम से लिची, तूलिका से चित्रित अपने आप में एक ऐतिहासिक कलाकृति ही है। इसे लिखा । दिल्ली के प्रेमबिहारी नारायण रायजादा ने। प्रेमबिहारी ने सुलेख अपने दादा से सीखा। तभी से यह उनका खानदानी पेशा बना था। लेकिन जब उनसे कहा गया कि वे विधान की पहली प्रति को अपने हाथों से लिखें तो उन्होंने कहा कि यह काम में एक पोवर की तरह नहीं कर सकता। मैं इसके लिए कोई पैसा स्वीकार नहीं कर सकता। ‘मुआवजा मैं लूँगा, पैसे के रूप में नहीं, स्वांत: सुखाय। मेरे हस्ताक्षर हर पन्ने पर हो चाहिए और मेरे दादा के हस्ताक्षर अंतिम पन्ने पर। यह अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता दिखने की उनकी शैली थी। उनकी बात मान ली गई। रायजादा ने सारे संविधान को मालिक्स शैली में लिखा है। अपने संविधान को हम इन शब्दों से आरंभ करते हैं-‘हम भारत के लोग”। ये भारत के लोग कौन हैं, कोई जाति, संप्रदाय, नस्ल? या हम भारतवासी, जो कुछ समय पहले तक ब्रितानी साम्राज्य के अधीन थे, या हम भारतवासी जो इस खंडित प्रायद्वीप के कम-से-कम दो-तिहाई भाग में रहते थे, जिस पर अंग्रेजों का अधिराज्यत्व का अधिकार था।

या फिर भारत और उसके वासियों के बारे में उनके सामने कोई निश्चित कल्पना थी, कोई तसवीर थी? साफ है कि जिसे हम राष्ट्र राज्य कहते हैं, वैसी कोई कल्पना हमारे इतिहास में तो कभी थी ही नहीं। यह तो शुद्ध रूप से पाश्चात्य अवधारणा है। इसका पल आधार तो नस्ल ही रहा है। साझा इतिहास तो है, लेकिन वह इतिहास भी नस्ली ही होता है। इस प्रकार के मानव राष्ट्र बने कई सदियौँ बीच चुकी हैं, लेकिन आज भी अगर किसी अलग जाति या मानव समूह को चिह्नित करना हो तो उन्हीं मानदंडों का उपयोग होता है, जिनके आधार पर पहले मानव समूह बाँटे जाते रहे हैं। अमरीका और कनाडा में आदिवासियों को पिछले दो सौ सालों से ‘रेड इंडियन’ या केवल ‘इंडियन’ ही कहा जाता था। अब सरकारी तौर पर इस नाम का विकल्प खोजा गया है। कनाडा में उन्हें भब ‘फर्स्ट नेशन’ कहा जाता है- पहले राष्ट्र। यहाँ राष्ट्र जनजातियों का ही समानार्थक है। फिर भी जिन्होंने भारत का संविधान बनाया, उनके सामने भारत की इससे अलग कोई व्यापक तसवीर तो रही होगी। वह जो इसके लंबे इतिहास से बनी है, वह इतिहास जो केवल राजाओं का ही नहीं, विचारों और सांस्कृतिक धारणाओं का भी था। वह उस दार्शनिक यात्रा का भी था, जो इस विश्व को केवल परिवार ही नहीं, इस ब्रह्मांड को एक परम शक्ति का विस्तार ही मानता है। हमारी स्वतंत्रता के आंदोलन की भावभूमि पर नजर डालें तो समझ में आ जाएगा कि वह आंदोलन भी भारत में चल रहे वैचारिक मंथन की कोख से जनमा था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं के पूर्वा । हमारे देश में एक असाधारण मंथन चल रहा था।

विवेकानंद भारतीय दर्शन और धर्म की पश्चिम के सामने एक अलग तसवीर पेश कर रहे थे, तो गणेश उत्सव को एक साधारण धार्मिक त्योहार से उठाकर एक जनजागरण का पर्व बनानेवाले तिलक स्वतंत्रता को अपना जन्मसिद्ध अधिकार बता रहे थे। अरविंद भारतीय दर्शन की नवीन व्याख्या कर ” थे और गांधी सत्याग्रह का परीक्षण करते हुए भी रामराज्य का सपना देख रहे थे। इस समांतर जागृति का आंदोलन साहित्य में भी चल रहा था। बंकिम के ‘आनंद मठ’ ने ही हमें मातृभूमि को देवी तुल्य पूज्य बनानेवाला गान ‘वंदेमातरम्’ दिया, तो उन्होंने ही पहली बार हिंदी को भारतीय जन-जन को जोड़ने का माध्यम बनाने का सुझाव दिया। दक्षिण में सुब्रह्मण्यम भारती वही कर रहे थे, जो हिंदी में जयशंकर प्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र। इस बहुआयामी जागरण के बीच कलाकार किनारे खड़े तामाशाई नहीं रह सकते थे। अवनींद्रनाथ ठाकुर और नंदलाल बसु देश में भारतीय कला का रूप निखार रहे थे और मौलिक भारतीय कला शैली का विकास कर रहे थे। बिहार के मुंगेर में जनमे नंदलाल बसु एक स्वाभाविक कलाकार थे। उन्होंने रेखांकन और चित्रांकन बाल्यकाल में ही आरंभ किया था, जब वे स्कूल में पढ़ते थे। कोलकाता में शिक्षा पाने के दौरान उन्होंने विधिवत् किसी मान्यता प्राप्त कला विद्यालय में दाखिल होने का प्रयास किया, लेकिन पारिवारिक कारणों से वे दाखिला पा नहीं सके। उनके आत्मशिक्षण का यह प्रयास उन्हें अवनींद्रनाथ की कला पाठशाला के सामने ले आया।

अवनींद्रनाथ की कला शिक्षा अन्य कला विद्यालयों से भिन्न थी। यहाँ केबल चित्रकला ही नहीं सिखाई जाती थी, अपितु पहले उन कला स्रोतों से पहचान कराई जाती थी, जिनकी समझ उनके अनुसार कला का मूल आधार थी। यानी लोक साहित्य, पुराण, इतिहास के वे मूल ग्रंथ, जिनके बिना पाठ और चित्र के बीच के संबंध को समझना संभव नहीं है। ‘रामायण’ हो या ‘महाभारत’ या फिर अनेक कथा ग्रंथ, ‘कथा सरित सागर’ और ‘बृहत् कथा मंजरी’ आदि का पठन उनकी कला कक्षा का नियमित कार्य था। नंदलाल, जो पहले से ही ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ के प्रसंगों में लोकजीवन को चित्रित करते रहे थे, अब भारतीय चित्रकला की ऐतिहासिक यात्रा पर निकल पड़े। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के स्थापित शांति निकेतन में कला भवन के मुख्य अध्यापक का पद संभालने के साथ ही उन्हें प्राचीन भित्ति चित्रण और गुहा स्थापत्य का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हुआ। अजंता की गुफाओं की दीवारों पर बौद्धकालीन चित्रण में समय की मार के कारण विकार आने लगा था, रंग भी फीके पड़ने लगे थे। इसलिए कला पारखियों को यह चिंता होने लगी थी कि कहीं हम इन अनुपम कलाकृतियों को सदा के लिए खो न दें। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुनरुद्धार करने की मांग उठी। नंदलाल बसु और उनके कई सहयोगी इसमें शामिल हो गए। अजंता के भित्तिचित्र उनके लिए बहुत बड़ी प्रेरणा सिद्ध हुए।

अजंता के साथ ही वयाचल की पहाड़यिों में बाघ की कंदराओं की प्रस्तर कला ने उनकी कल्पना में नए आयाम जोड़ दिए। लेकिन उनका आत्मशिक्षण कभी समाप्त ही नहीं हुआ। उन्हें लगा कि जब तक भरतीय कला को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता, जब तक पूर्व के उन देशों की कला की समझ पैदा न की जाए, जिनके साथ प्राचीन काल से ही भारतीय कला का आदान-प्रदान होता रहा है। चीन और जापान उनकी समझ में महत्त्वपूर्ण थे। इसी दौरान प्रसिद्ध जापानी कला मर्मज्ञ ओकाकूरा काकुजो उनके प्रशंसकों में शामिल हो गए। क्रिस्टीज के लिए उनके परिचय में आर. शिव कुमार ने लिखा है-“नंदलाल बसु का आधुनिक भारतीय कला के इतिहास में वही स्थान है, जो राफाइल और इयूरर कारेनासा के इतिहास में रहा है। राफाइल की ही भाँति नंदलाल भी महान समन्वयवादी थे, उनकी मौलिकता अवनींद्रनाथ ठाकुर, रविंद्रनाथ ठाकुर, ई.बी. हावेल, आनंद कुमारस्वामी, ओकाकुरा काकुजो और महात्मा गांधी के विवेकपूर्ण विचारों का विन्यास करके उन्हें एक ऐसे अद्धितीय कार्यक्रम में पिरोना है, जिससे नई भारतीय कला शैली का विकास हुआ।” इसलिए जब महात्मा गांधी ने अवनींद्रनाथ को सुझाया कि संविधान की पहली प्रति का अलंकरण करना चाहिए तो वे केवल किसी पुस्तक के व्यावसायिक डिजाइन बनाने की बात नहीं कर रहे थे, वे एक कलाकृति की रचना का सुझाव दे रहे थे। यह निर्विवाद था कि वे आचार्य अवनींद्रनाथ और नंदलाल बसु से नवरचित भारतीय संविधान की एक चित्रकार के माध्यम से प्रस्तावना रचने को कह रहे थे। वे पाठ के निहितार्थ को चित्रों और बिंबों के माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे।

स्वाभाविक है कि 22 चित्रों का इस प्रकार से चयन किया गया कि वे हम भारत के निवासियों के इतिहास और विकास के विभिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करें। आर शिव कुमार ने नंदलाल बसु को समन्वयकर्ता कहा है। लेकिन भारतीय ज्ञान परंपरा का स्वभाव यही रहा है। व्यास ने वासुदेव के मुख से जो गीता कहलाई है, उसमें भी उन्होंने किसी मौलिकता का दावा नहीं किया है और न शंकराचार्य ने। प्रतिभाशाली शैवाचार्य अभिनव गुप्त ने अपने त्रिक दर्शन का परिचय देते हुए कहा है कि मुझसे पहले वाले आचार्यों ने अपने ज्ञान का जो सोपान बनाया है, उसी पर चढ़ते-चढ़ते मैं यहाँ तक पहुँच पाया हूँ। नंदलाल बसु भी उसी आचार्य परंपरा के आचार्य थे, जो संचित ज्ञान को प्रस्तुत करना चाहते थे, केवल अपने ज्ञान को नहीं। भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है, शायद इसलिए कि यह उस देश के कानूनों का संग्रह और आचार संहिता है, जो बहुआयामी है, केवल जातीय स्तर पर नहीं, सांस्कृतिक और वैचारिक स्तर पर भी। मान्यताओं और विश्वासों के क्षेत्र में भी और भौगोलिक स्तर पर भी। ऐसे विविधता भरे देश के हर वर्ग के सरोकार को समाति। करनेवाला संविधान स्वाभाविक रूप से विस्तृत होगा, लेकिन इसके बारे में कुछ लोग को आपत्ति करने का मौका भी मिल जाता है कि इसमें संकलित नियम- कानूनों में को मौलिकता नहीं है। अधिकतर विचार दूसरे देशों के संविधानों से लिए गए हैं। दरअस) इसके लिए भारत के हाल के इतिहास को समझना होगा। हम जब अंग्रेजों के गुलाम । गए, उस समय भी हम अपना बहुत कुछ खो चुके थे और कुछ भूल गए थे। हमें अप।

परंपरा को समयानुकूल बनाने का अवसर नहीं मिला था और दो सौ साल पश्चात् हमारी आँख स्वतंत्रता के प्रकाश में खुली तो हमारे पास अपना स्वराज्य चलाने के लिए को। उदाहरण नहीं था। हमारे लिए दूसरे स्वतंत्र देशों के अनुभवों और उपलब्धियों की ओर ही देखना आवश्यक हो गया था। जो हमें सही लगा, वह हमने चुन लिया। विश्व में विभिन्न देशों के अनुभव अलग-अलग हैं, क्योंकि वे भिन्न परिस्थितियों से गुजरे हैं। ह॥ किसी एक देश को आदर्श मानकर नहीं चल सकते थे। कहीं हमें यूरोप का ज्ञान-विज्ञान भाया तो कहीं एशियाई आध्यात्मिकता और कहीं अफ्रीकी जनजातियों के बिंब हमारे आदिवासियों में दिखे तो कहीं अमरीकी खुलेपन की और झुके। इसलिए स्वाभाविक है कि इन सबकी छाप हमारे संविधान में दिखाई देती है। लेकिन प्रश्न यह भी पूछा जाता है कि जिस चित्रांकन की हम बात कर रहे हैं, वह भी संविधान का भाग है? किसी संविधान को दो कोणों से देखा जा सकता है-उसमें क्या लिखा है और उसमें कौन सी भावना निहित है। हमने जो संविधान में लिखा, वह हम बदली हुई परिस्थितियों में बदल भी सकते हैं।

हम आज तक सौ बार उसमें बदलाव लाए हैं। यह इसलिए है कि कोई भी संविधान हर प्रकार के हालात की पहले से कल्पना नहीं कर सकता। हालात कभी अपने कारणों से तो कभी बाहरी कारणों से बदलते रहते हैं। लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि हम संविधान रचने के पीछे की भावना को भी बदल सकते हैं? यह तभी होगा, जब हम भारत के वासी न रहें, जो संविधान को पारित करते समय हमारे मन में थे। संविधान का चित्रांकन उस भारतवासी के स्थायित्व का दस्तावेज है। इसलिए हमारे संविधान में बहुत कुछ दूसरों से लिया गया हो, लेकिन जो किसी से नहीं लिया गया है, वह चित्रों में अंकित भारतवासियों का इतिहास है, उनकी संस्कृति और सभ्यता है। क्या कोई स्वतंत्र संविधान अपनी जड़ों को नकारकर टिका रह सकता है?

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