रेत की दीवार पर खड़ा महल

 

बनवारी

आज यूरोप और अमेरिकी अर्थव्यवस्थाएं ढलान पर हैं। 1970 में समृद्धि का शिखर छू लेने के बाद उनकी आंतरिक ऊर्जा चुक गई सी लगती है। पिछले कई दशक से यूरोप और अमेरिका के नामचीन अर्थशास्त्री अपनी दुनिया के बाहर विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं।

1990 में चीन ने अपनी आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाकर उनमें यह आशा पैदा की थी कि चीन विश्व अर्थव्यवस्था का अगला इंजन हो सकता है। यूरोप-अमेरिकी अर्थशास्त्रियों को चीन से आशा थी कि वह उनका नया बड़ा बाजार बनेगा। चीन ने उनकी कंपनियों के लिए अपने दरवाजे खोले अवश्य, लेकिन उसकी महत्वाकांक्षा यूरोप-अमेरिकी अर्थतंत्र का पूरक नहीं प्रतिस्पर्धी बनने की है। एक कम्युनिस्ट देश होने के नाते चीन का अपने अर्थतंत्र पर पूरा नियंत्रण है। वह अपने उत्पादन का स्वरूप भी तय कर सकता है और उसकी कीमत भी।

यूरोप-अमेरिकी अर्थतंत्र का प्रतिस्पर्धी होने के लिए उसने उन्हीं की रणनीति अपनाई हुई है। चीन में भी यूरोप-अमेरिका की तरह एक बड़ी व्यापारिक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा पैदा हुई है। पिछले दो वर्ष में वह संसार की सबसे बड़ी व्यापारिक शक्ति हो भी गया है। उसने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि उसका व्यापारिक संतुलन उसके पक्ष में है। उसका निर्यात उसके आयात से अधिक है। जबकि अमेरिका आयात अधिक करता है, निर्यात कम करता है। काफी समय से उसका व्यापार घाटा बढ़ता ही जा रहा है।

सही है कि पिछली दो शताब्दियों में यूरोप-अमेरिका ने अपनी भौतिक शक्ति अपना व्यापार बढ़ाकर ही पाई है। लेकिन उसके व्यापार का स्वरूप आर्थिक कम, राजनैतिक अधिक है। उसका व्यापार वैसा नहीं है, जैसा अर्थशास्त्र की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है। उसके व्यापार का लक्ष्य लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने वाली वस्तुओं का आदान-प्रदान करना नहीं है। उसके व्यापार का लक्ष्य एक व्यापारिक साम्राज्य खड़ा करना है। पिछली लगभग दो शताब्दी सेअंतर्राष्ट्रीय बाजार के नियम बनाने से लगाकर उसकी दिशा तय करने तक साडी पहल उन्होंने अपने पास रखी है |

पिछले लगभग 50 वर्ष में उनका यह व्यापारिक साम्राज्य एक वित्तीय साम्राज्य में बदल गया है। चीन उनसे केवल सीमित प्रतिस्पर्धा ही कर सकता है। वह अपना व्यापार बढ़ाने के लिए नए मार्ग विकसित कर रहा है। वह अपने सामान की आवाजाही सुगम बनाने के लिए चीन से बाहर व्यापक निवेश कर रहा है। उसने अपने परंपरागत व्यापारिक मार्गों को तो विकसित किया ही है, वह अफ्रीका जैसे सुदूर क्षेत्रों तक अपना तंत्र खड़ा करने में लगा है। उसे आशा है कि यूरोप ने जिस औद्योगिक जीवनशैली को विकसित किया है, वह पूरी दुनिया में फैलती चली जाएगी और उसके लिए विश्व व्यापार फलता-फूलता रहेगा। उसमें अपना हिस्सा सबसे अधिक रखने की जुगत में वह लगा हुआ है। उसने घोषित किया है कि इस रास्ते पर चलकर वह 2049 में अमेरिकी लोगों जैसा आधुनिक औद्योगिक जीवन स्तर पा लेगा।

अर्थशास्त्रियों ने यूरोप-अमेरिकी समृद्धि के बारे में सबसे बड़ा भ्रम यह फैलाया है कि वह लोगों की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाकर प्राप्त की गई है। यूरोप-अमेरिका की यह समृद्धि उत्पादन से नहीं, मुनाफे से पैदा हुई है। यह मुनाफा उन्हें आंतरिक बाजार से उतना नहीं मिला, जितना बाहरी बाजार से मिला है। इस मुनाफे को प्राप्त करने में उन्होंने कुटिल से कुटिल तरीके अपनाए हैं। 16वीं शताब्दी में जब वे व्यापारिक अभियानों पर निकले थे, तो उनके पास बेचने के लिए कुछ नहीं था। उन्होंने तोपों से लदे नाविक बेड़े तैयार किए थे। संयोग से अपने अभियान में उन्हें अमेरिकी महाद्वीप में बड़ी सफलता मिल गई। वास्तव में यूरोप का आंतरिक बाजार विशाल अमेरिकी क्षेत्र पर नियंत्रण के बाद ही विकसित हुआ। इससे उनको दासता में रह रही अपनी बड़ी आबादी को स्थानांतरित करने का मौका मिल गया। उस विशाल भू-भाग में बड़े-बड़े फार्म और पशुओं के रान्च खड़े करके तथा सोना आदि बहुमूल्य धातुओं का खनन करके यूरोप के भीतर एक नया बाजार विकसित कर लिया गया। इस समृद्धि के आधार पर ही वे अपने विश्व अभियान में सफल हो पाए।

उन्नीसवीं सदी में यूरोप ने जो उद्योग तंत्र विकसित किया, वह संभव नहीं था अगर उसे अपने साम्राज्य के विस्तार के द्वारा रबड़, कपास और गन्ना आदि व्यावसायिक फसलें उगाने के लिए अफ्रीका और अमेरिका का विशाल उपजाऊ क्षेत्र न मिल गया होता। अफ्रीका में संसार की एक चैथाई कृषि योग्य भूमि है। यूरोपीय नियंत्रण के बाद इसकी अस्सी प्रतिशत व्यावसायिक खेती में झोंक दी गई और अफ्रीकी लोगों को भुखमरी में ला दिया गया। उस उर्वर भूमि की अन्न पैदा करने की क्षमता खत्म कर दी गई। आज तक अफ्रीका अन्न का आयातक ही
बना हुआ है। हमारे यहां नील की खेती ने भी यही किया। लेकिन हमारे किसान जागरूक और समर्थ थे, इसलिए नील की खेती समाप्त कर देनी पड़ी। भूमि के साथ-साथ यूरोप ने श्रम भी बलात प्राप्त किया। अमेरिका में रेलगाड़ियां बिछाने के लिए चीन से लोग जबरन लाए गए। कैरेबियाई देशों में गन्ने आदि की खेती गिरमिटिया भारतीयों से करवाई गई। अमेरिकी फार्म तो अफ्रीका से दास बनाकर लाए गए लोगों की मेहनत से ही खड़े हुए। इस सब लूट से यूरोपीय लोगों की खरीदने की क्षमता बढ़ी। उसी पर औद्योगिक तंत्र खड़ा हुआ। फिर भी भारत, चीन या जापान में बीसवीं सदी से पहले यूरोपीय उत्पाद का कोई बाजार नहीं था। चीन में तो जबरन अफीम बेचकर मुनाफा वसूला गया। सामान्य

यूरोपीय व्यापारी बाहरी देशों में ही माल खरीद और बेच रहे थे। यूरोपीय शराब और हथियारों के अलावा उनके पास कुछ इसलिए नहीं था कि यूरोप भू-दास प्रथा के कारण अपनी बहुसंख्यक आबादी को बहुत निम्न उपभोग स्तर पर रखे रहा था। इसके अलावा हर उन्नत समाज अपनी सामान्य आवश्यकता की वस्तुएं स्वयं पैदा करता है। क्योंकि ऐसी वस्तुओं का संबंध उसकी अपनी परिस्थितियों, परंपराओं, रूचियों और कला दृष्टि से होता है। उन्नत सभ्यताओं में उत्पादन एक नैतिक और गुणवर्द्धक क्रिया रही है। इसलिए भारत या चीनी समाज में यूरोपीय उत्पाद की गुंजाइश नहीं हो सकती थी। औद्योगीकरण ने उत्पादन को मशीनी बनाकर यूरोप को निर्यात करने का सामान तो उपलब्ध किया, लेकिन अगर दूसरे देशों पर उसका नियंत्रण न होता तो उनमें वह अपने इस सामान का बाजार पैदा न कर पाया होता। भारत के उद्योग-धंधों को चैपट करके ही वह भारत में अपना बाजार बना पाया था।

लेकिन इस व्यापारिक साम्राज्य ने यूरोपीय देशों के भीतर एक आंतरिक प्रतिस्पर्धा पैदा की। जर्मनी बिस्मार्क के समय से ही समृद्धि की दौड़ में ब्रिटेन और फ्रांस से आगे निकलने की महत्वाकांक्षा पाल रहा था। अंततः यूरोपीय देशों की आंतरिक प्रतिस्पर्धा ने दो महायुद्धों को जन्म दिया। इन महायुद्धों के दौरान यूरोप के सभी देश क्षत-विक्षत हुए और अमेरिका को एक अग्रणी शक्ति बनने का मौका मिल गया। अमेरिका की सारी समृद्धि दोनों महायुद्धों के दौरान यूरोपीय शक्तियों को हथियार बेचकर कमाए गए मुनाफे से बनी है। इसी मुनाफे के बल पर उसने ब्रिटेनवुड सम्मेलन के जरिए अपनी मुद्रा डाॅलर को अंतर्राष्ट्रीय  मुद्रा का दर्जा दिलवा दिया। यूरोप के भौतिक ढांचे को आधुनिक रूप देकर फिर से खड़ा करने के लिए माॅर्शल योजना बनाई गई। बीस साल में, 1950 से 1970 तक यह ढांचा खड़ा कर दिया गया। इस तरह हम आज यूरोप और अमेरिका का जो स्वरूप देखते हैं, उसे वहां के लोगों ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने कौशल और साधनों से खड़ा नहीं किया। औद्योगिक तंत्र ने उनकी जरूरतें पूरी नहीं की 

, बल्कि उन पर एक नई जीवनशैली लाद दी। यूरोप के सामान्य लोगों को इस नई औद्योगिक जीवनशैली की लत लगा दी गई क्योंकि उसके बिना यह औद्योगिक साम्राज्य चल नहीं सकता था। यह जीवनशैली मनुष्य के स्वभाव का अतिक्रमण करके लादी गई है। इसीलिए अब स्वयं यूरोपीय देशों में उससे ऊब और थकावट दिखाई देने लगी है।

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी शासक वर्ग को अपना उद्योग तंत्र परेशानी पैदा करने वाला दिखने लगा। मजदूर यूनियन अधिक वेतन और अधिक सुविधाएं मांगने लगीं। औद्योगिक तंत्र से पैदा हुआ प्रदूषण भी समस्या बनता गया। इस सबसे छुटटी पाने के लिए अपने उत्पादन तंत्र के एक बड़े हिस्से को अमेरिकी शासक वर्ग ने चीन आदि देशों में स्थानांतरित करवा दिया। उसका पैदा किया हुआ उद्योग तंत्र पूरी दुनिया में बिखेर दिया गया।

इलेक्ट्रौनिक सामान का उत्पादन कोरिया और जापान स्थानांतरित हो गया। कुछ उत्पादन एशियान देशों को सौंप दिया गया। यूरोपीय यह जानते थे कि अमीर होने के लिए उत्पादक होना आवश्यक नहीं है। उन्होंने 1970 में पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी के समय देखा कि खाड़ी के देशों ने अधिक कीमत पर तेल बेचकर जो पैसा कमाया, वह अंततः यूरोप-अमेरिकी बाजारों में ही लौट आया। उसका कारण यह था कि दुनियाभर के उत्पादन तंत्र पर यूरोप-अमेरिकी कंपनियों का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण रहा है और यह कंपनियां खूब मुनाफा लूटती है। इसलिए अरब शेखों ने पेटंोल की कमाई यूरोप-अमेरिकी शेयर बाजारों में लगा दी ताकि उनका मुनाफा और बढ़े। यूरोप-अमेरिका के व्यापारिक साम्राज्य में आरंभ से ही वित्तीय संस्थाओं की केंद्रीय भूमिका रही है।

सोलहवीं शताब्दी के अंत में व्यापार में आने वाले जोखिम को देखते हुए ज्वाइंट स्टाक  कंपनियां खड़ी की गईं। इसी से डच ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी आदि अस्तित्व में आईं। इन कंपनियों के कारण व्यापार का उद्देश्य  शेयरधारकों के लिए मुनाफा कमाना हो गया। इससे पहले दुनियाभर में व्यापार की कुछ अनुलंघनीय मर्यादाएं रहीं हैं। मुनाफे को व्यापार का एकमात्र लक्ष्य बनाकर इन मर्यादाओं को समाप्त कर दिया गया।

अठारहवीं शताब्दी में अंतरराष्ट्रीय  व्यापार में डच कंपनियों की अग्रणी भूमिका थी। इसलिए डच गिल्डर को अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा के रूप में मान्यता मिली हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के कारण पाउंड स्टर्लिंग अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा गिना जाने लगा। लेकिन 20वीं शताब्दी में अमेरिकी डॉलर  के प्रधानता पा लेने के बाद अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा का स्वरूप और उसकी भूमिका ही बदल गई। ब्रिटेनवुड समझौते के अंतर्गत जबरन अमेरिकी डॉलर  को अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा का दर्जा दिलवाया गया।

उस समय डॉलर को स्वर्ण मूल्य से जोड़ा गया था ,इसका अर्थ यह था कि अमेरिकी संघीय बैंक डॉलर  जारी करते समय यह वायदा करता था कि मांगे जाने पर वह डॉलर  के मूल्य का स्वर्ण देगा। इसी कारण अमेरिका को छापे गए डॉलर  के बराबर स्वर्ण भंडार रखना पड़ता था। लेकिन 1971 में अमेरिकी राष्टंपति रिचर्ड निक्सन ने यह व्यवस्था समाप्त कर दी। अब अंतरराष्ट्रीय  बाजार में डॉलर  की स्वीकृति केवल अमेरिका की प्रतिष्ठा के आधार पर है। अमेरिकी कंपनियों का विश्व बाजार पर जो प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण बना हुआ है, उसके कारण ही डॉलर  की साख है। जिस दिन यह नियंत्रण कमजोर पड़ेगा, डॉलर  भी अपनी साख खो देगा।

अंतरराष्ट्रीय  बाजार में होने वाले उतार-चढ़ाव को देखते हुए सभी व्यापारिक देशों को अंतरराष्टंीय रूप से स्वीकृत मुद्राओं का भंडार रखना पड़ता है। आज अंतरराष्ट्रीय  व्यापार 20 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर  के आसपास है। इस व्यापार के लिए अधिकांश व्यापारिक देशों ने कुल कोई 12 लाख करोड़ डॉलर  आसपास अंतरराष्ट्रीय  रूप से स्वीकृत मुद्राओं का भंडार जमा कर रखा है। इसमें 64 प्रतिशत अमेरिकी डॉलर  हैं, 22 प्रतिशत यूरो और लगभग 5 प्रतिशत पाउंड स्टर्लिंग। इस तरह इस भंडार का 90 प्रतिशत से ऊपर यूरोप-अमेरिकी मुद्राओं से निर्मित है। इस भंडार का दो तिहाई विकासशील माने जाने वाले देशों के यहां है। यूरोप-अमेरिका को इसका लाभ यह होता है कि इस भंडार के बराबर मूल्य का सामान उन्हें मिल जाता है। उसे प्राप्त करने के लिए उन्हें उतने ही मूल्य की वस्तुएं पैदा करना आवश्यक नहीं है। इस कारण वे उत्पादक हुए बिना भी उपभोक्ता हो सकते हैं। आज जब अमेरिका पर उपभोक्तावाद का आरोप लगाया जाता है तो उसका अर्थ यही है कि उसने अपने लोगों को उत्पादक की जगह उपभोक्ता बना दिया है। इसका दूसरा पहलू यह है कि दुनिया के दूसरे देश अपने यहां जो बचत करते हैं, उसका एक बड़ा भाग यूरोपीय मुद्राओं का भंडार खड़ा करने में निकल जाता है। यूरोप-अमेरिकी लोगों को बचत न करने के लिए कहा जाता है। क्योंकि जितना वे खर्च करेंगे उतना ही बाजार बढ़ेगा।

दूसरे विश्व युद्ध से पहले लंदन को संसार की वित्तीय राजधानी गिना जाता था। उसके बाद न्यूयार्क संसार की वित्तीय राजधानी हो गया। उसके महत्व का अंदाज आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि आज दुनिया में जो भी पूंजीकरण हो रहा है, उसका आधा वाॅल स्टंीट चला जाता है। दुनियाभर में जो भी व्यापार होता है, उसके नब्बे प्रतिशत का लेन-देन अमेरिकी डाॅलर में किया जाता है। 760 अरब डाॅलर के मूल्य के नोट चलन में है। उसका दो तिहाई अमेरिका से बाहर हैं। दूसरी मुद्राओं को डाॅलर में बदलते समय परिवर्तन शुल्क देना होता है। लेकिन अमेरिकी कंपनियों को पूरा पैसा मिल जाता है। डाॅलर के इस वर्चस्व के विरुद्ध पहले केवल प्रतिस्पर्द्धी यूरोपीय शक्तियां आवाज उठाती थी |अब चीन भी उठा रहा है |

 

एक समय फ्रांस के राष्टंपति चाल्र्स द गाल ने डॉलर  के खिलाफ झंडा उठाया था। आज यूरो को एक प्रतिस्पर्धी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा  के रूप में उभारा जा रहा है। चीन और भारत की पहल पर भी एक प्रतिस्पर्धी बैंक खड़ा किया गया है। एक समय एसडीआर 1⁄4स्पेशल डाइंग  राइटस1⁄2 को डॉलर  के विकल्प के रूप में देखा गया था। लेकिन बाजार की सहूलियत के नाम पर डॉलर  का वर्चस्व बना हुआ है। पर केवल वित्तीय नियंत्रण के आधार पर साम्राज्य खड़ा करना रेत पर महल खड़ा करना है। पिछले दो दशकों से यह साफ दिख रहा है कि यूरोप-अमेरिकी बाजार सरकारों और लोगों का कर्ज बढ़ाकर ही टिकाए जा पा रहे हैं। यूरोप-अमेरिकी लोगों की वास्तविक आय घट रही है। अभी इसका अपवाद केवल जर्मनी है। पर वहां भी घटती श्रमिक आबादी समस्या बनती जा रही है। सभी औद्योगिक देशों में ब्याज दर शून्य तक पहुंच गई है। लोगों से अधिक से अधिक कर्ज लेने के लिए कहा जा रहा है। इतने सस्ते कर्ज के बावजूद मांग बहुत नहीं बढ़ रही।

औद्योगिक अर्थव्यवस्थाएं अभी भी अपने व्यापारिक मुनाफे के कारण टिकी है। वे वही सामान पैदा कर रही है, जिनमें मुनाफा है। उदाहरण के लिए युद्ध सामग्री का व्यापार उन्हीं के नियंत्रण में है। युद्ध सामग्री के अंतरराष्टंीय बाजार के 34 प्रतिशत पर अमेरिका का नियंत्रण है और 25 प्रतिशत पर रूस का। औद्योगिक देश उन्नत तकनीकी वाला सामान बनाकर अधिक मुनाफा लूटते हैं। पुराने बाजार सिमट रहे हैं तो उन्होंने सेवा क्षेत्र के नए बाजार पैदा कर दिए हैं। वे दुनियाभर पर अपनी बीमा कंपनियों, रिटेल स्टोरों या शैक्षिक संस्थाओं के लिए दरवाजे खोलने का दबाव बना रहे हैं। उनकी दवा कंपनियां दुनियाभर में किस तरह की लूटपाट मचाती रही है, इसके रोमांचक किस्से तो अब विख्यात हैं।

पर्यावरण के विनाश के बाद अब वे ही पर्यावरण की रक्षा के नाम पर अपनी प्रौद्योगिकीय बेच रहे हैं। चीन का लक्ष्य मुनाफा बढ़ाना नहीं है, व्यापार का परिमाण बढ़ाना है। इसके लिए वह भारी पूंजी निवेश कर रहा है। लेकिन इससे यूरोप-अमेरिकी आर्थिक साम्राज्य को चुनौती नहीं मिलेगी। पर यह यूरोप-अमेरिकी साम्राज्य अपने आंतरिक असंतुलन से धराशायी हो सकता है। अगले दो-तीन दशकों में बड़े परिवर्तन हो सकते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों की जनसंख्या वृद्धि दर में जो अंतर पैदा हो गया है, वह इन परिवर्तनों का कारक हो सकता है। फिर से कोई बड़ा युद्ध हो सकता है।

अमीर होने के लिए उत्पादक होना आवश्यक नहीं है। उन्होंने 1970 में पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी के समय देखा कि खाड़ी के देशों ने अधिक कीमत पर तेल बेचकर जो पैसा कमाया, वह अंततः यूरोप-अमेरिकी बाजारों में ही लौट आया। उसका कारण यह था कि दुनियाभर के उत्पादन तंत्र पर यूरोप-अमेरिकी कंपनियों का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण रहा है और यह कंपनियां खूब मुनाफा लूटती है। इसलिए अरब शेखों ने पेट्रोल  की कमाई यूरोप-अमेरिकी शेयर बाजारों में लगा दी ताकि उनका मुनाफा और बढ़े। यूरोप-अमेरिका के व्यापारिक साम्राज्य में आरंभ से ही वित्तीय संस्थाओं की केंद्रीय भूमिका रही है। सोलहवीं शताब्दी के अंत में व्यापार में आने वाले जोखिम को देखते हुए ज्वाइंट स्टाक  कंपनियां खड़ी की गईं। इसी से डच ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी आदि अस्तित्व में आईं। इन कंपनियों के कारण व्यापार का उद्देश्य  शेयरधारकों के लिए मुनाफा कमाना हो गया। इससे पहले दुनियाभर में व्यापार की कुछ अनुलंघनीय मर्यादाएं रहीं हैं।

 

मुनाफे को व्यापार का एकमात्र लक्ष्य बनाकर इन मर्यादाओं को समाप्त कर दिया गया। अठारहवीं शताब्दी में अंतरराष्ट्रीय  व्यापार में डच कंपनियों की अग्रणी भूमिका थी। इसलिए डच गिल्डर को अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा के रूप में मान्यता मिली हुई थी। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के कारण पाउंड स्टर्लिंग अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा गिना जाने लगा। लेकिन 20वीं शताब्दी में अमेरिकी डॉलर  के प्रधानता पा लेने के बाद अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा का स्वरूप और उसकी भूमिका ही बदल गई। ब्रिटेनवुड समझौते के अंतर्गत जबरन अमेरिकी डॉलर  को अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा का दर्जा दिलवाया गया। उस समय डॉलर  को स्वर्ण मूल्य से जोड़ा गया था,इसका अर्थ यह था कि अमेरिकी संघीय बैंक डॉलर  जारी करते समय यह वायदा करता था कि मांगे जाने पर वह डॉलर  के मूल्य का स्वर्ण देगा। इसी कारण अमेरिका को छापे गए डॉलर  के बराबर स्वर्ण भंडार रखना पड़ता था। लेकिन 1971 में अमेरिकी राष्टंपति रिचर्ड निक्सन ने यह व्यवस्था समाप्त कर दी। अब अंतरराष्ट्रीय  बाजार में डॉलर  की स्वीकृति केवल अमेरिका की प्रतिष्ठा के आधार पर है। अमेरिकी कंपनियों का विश्व बाजार पर जो प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण बना हुआ है, उसके कारण ही डॉलर  की साख है। जिस दिन यह नियंत्रण कमजोर पड़ेगा, डॉलर  भी अपनी साख खो देगा।

अंतरराष्ट्रीय  बाजार में होने वाले उतार-चढ़ाव को देखते हुए सभी व्यापारिक देशों को अंतरराष्ट्रीय  रूप से स्वीकृत मुद्राओं का भंडार रखना पड़ता है। आज अंतरराष्ट्रीय  व्यापार 20 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर  के आसपास है। इस व्यापार के लिए अधिकांश व्यापारिक देशों ने कुल कोई 12 लाख करोड़ डॉलर  आसपास अंतरराष्ट्रीय  रूप से स्वीकृत मुद्राओं का भंडार जमा कर रखा है। इसमें 64 प्रतिशत अमेरिकी डॉलर  हैं, 22 प्रतिशत यूरो और लगभग 5 प्रतिशत पाउंड स्टर्लिंग। इस तरह इस भंडार का 90 प्रतिशत से ऊपर यूरोप-अमेरिकी मुद्राओं से निर्मित है।

इस भंडार का दो तिहाई विकासशील माने जाने वाले देशों के यहां है। यूरोप-अमेरिका को इसका लाभ यह होता है कि इस भंडार के बराबर मूल्य का सामान उन्हें मिल जाता है। उसे प्राप्त करने के लिए उन्हें उतने ही मूल्य की वस्तुएं पैदा करना आवश्यक नहीं है। इस कारण वे उत्पादक हुए बिना भी उपभोक्ता हो सकते हैं। आज जब अमेरिका पर उपभोक्तावाद का आरोप लगाया जाता है तो उसका अर्थ यही है कि उसने अपने लोगों को उत्पादक की जगह उपभोक्ता बना दिया है। इसका दूसरा पहलू यह है कि दुनिया के दूसरे देश अपने यहां जो बचत करते हैं, उसका एक बड़ा भाग यूरोपीय मुद्राओं का भंडार खड़ा करने में निकल जाता है। यूरोप-अमेरिकी लोगों को बचत न करने के लिए कहा जाता है। क्योंकि जितना वे खर्च करेंगे उतना ही बाजार बढ़ेगा।

दूसरे विश्व युद्ध से पहले लंदन को संसार की वित्तीय राजधानी गिना जाता था। उसके बाद न्यूयार्क संसार की वित्तीय राजधानी हो गया। उसके महत्व का अंदाज आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि आज दुनिया में जो भी पूंजीकरण हो रहा है, उसका आधा वाॅल स्टंीट चला जाता है। दुनियाभर में जो भी व्यापार होता है, उसके नब्बे प्रतिशत का लेन-देन अमेरिकी डाॅलर में किया जाता है। 760 अरब डाॅलर के मूल्य के नोट चलन में है। उसका दो तिहाई अमेरिका से बाहर हैं। दूसरी मुद्राओं को डाॅलर में बदलते समय परिवर्तन शुल्क देना होता है। लेकिन अमेरिकी कंपनियों को पूरा पैसा मिल जाता है।

डाॅलर के इस वर्चस्व के विरुद्ध  पहले केवल प्रतिस्पर्धी यूरोपीय शक्तियां आवाज उठाती थीं, अब चीन भी उठा रहा है। एक समय फ्रांस के राष्टंपति चाल्र्स द गाल ने डॉलर  के खिलाफ झंडा उठाया था। आज यूरो को एक प्रतिस्पर्धी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा  के रूप में उभारा जा रहा है। चीन और भारत की पहल पर भी एक प्रतिस्पर्धी बैंक खड़ा किया गया है। एक समय एसडीआर 1⁄4स्पेशल डाइंग  राइटस1⁄2 को डॉलर  के विकल्प के रूप में देखा गया था। लेकिन बाजार की सहूलियत के नाम पर डॉलर  का वर्चस्व बना हुआ है। पर केवल वित्तीय नियंत्रण के आधार पर साम्राज्य खड़ा करना रेत पर महल खड़ा करना है। पिछले दो दशकों से यह साफ दिख रहा है कि यूरोप-अमेरिकी बाजार सरकारों और लोगों का कर्ज बढ़ाकर ही टिकाए जा पा रहे हैं। यूरोप-अमेरिकी लोगों की वास्तविक आय घट रही है। अभी इसका अपवाद केवल जर्मनी है। पर वहां भी घटती श्रमिक आबादी समस्या बनती जा रही है। सभी औद्योगिक देशों में ब्याज दर शून्य तक पहुंच गई है। लोगों से अधिक से अधिक कर्ज लेने के लिए कहा जा रहा है। इतने सस्ते कर्ज के बावजूद मांग बहुत नहीं बढ़ रही।

 

औद्योगिक अर्थव्यवस्थाएं अभी भी अपने व्यापारिक मुनाफे के कारण टिकी है। वे वही सामान पैदा कर रही है, जिनमें मुनाफा है। उदाहरण के लिए युद्ध सामग्री का व्यापार उन्हीं के नियंत्रण में है। युद्ध सामग्री के अंतरराष्टंीय बाजार के 34 प्रतिशत पर अमेरिका का नियंत्रण है और 25 प्रतिशत पर रूस का। औद्योगिक देश उन्नत तकनीकी वाला सामान बनाकर अधिक मुनाफा लूटते हैं। पुराने बाजार सिमट रहे हैं तो उन्होंने सेवा क्षेत्र के नए बाजार पैदा कर दिए हैं। वे दुनियाभर पर अपनी बीमा कंपनियों, रिटेल स्टोरों या शैक्षिक संस्थाओं के लिए दरवाजे खोलने का दबाव बना रहे हैं। उनकी दवा कंपनियां दुनियाभर में किस तरह की लूटपाट मचाती रही है, इसके रोमांचक किस्से तो अब विख्यात हैं। पर्यावरण के विनाश के बाद अब वे ही पर्यावरण की रक्षा के नाम पर अपनी प्रौद्योगिकीय बेच रहे हैं। चीन का लक्ष्य मुनाफा बढ़ाना नहीं है, व्यापार का परिमाण बढ़ाना है। इसके लिए वह भारी पूंजी निवेश कर रहा है। लेकिन इससे यूरोप-अमेरिकी आर्थिक साम्राज्य को चुनौती नहीं मिलेगी। पर यह यूरोप-अमेरिकी साम्राज्य अपने आंतरिक असंतुलन से धराशायी हो सकता है। अगले दो-तीन दशकों में बड़े परिवर्तन हो सकते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों की जनसंख्या वृद्धि दर में जो अंतर पैदा हो गया है, वह इन परिवर्तनों का कारक हो सकता है। फिर से कोई बड़ा युद्ध हो सकता है।

 

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