जब जय जय सीताराम बन गया अवध के किसानों का नारा

ओम प्रकाश तिवारी

भारत में किसान आंदोलनों का इतिहास गौरवशाली रहा है। ऐसे आंदोलनों में अवध किसान आंदोलन सबसे अहम माना जाता है। सौ साल पहले उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के रुरे गांव में रामायण के मंच से प्रारम्भ हुए इस आंदोलन ने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दी थी।देश के सबसे पुराने संगठनों में शुमार अवध किसान सभा की स्थापना 17 अकटुबर 1919 को प्रतापगढ़ की पट्टी तहसील के रूरे गांव में हुई थी। इसकी स्थापना बैठक में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे।

क्रांतिकारी तेवरों वाले अवध किसान आंदोलन के इस गौरवशाली आंदोलन पर इतनी धूल जम चुकी है कि अवध के किसान भी इसे विस्मृत कर चुके हैं। हालांकि इस पर तमाम शोध हुए, ढेरों पुस्तकें भी लिखी गईं, फिर भी इस आंदोलन की नींव के पत्थरों पर लोगों का ध्यान कम ही गया। अवध किसान सभा को पूरे अवध में खड़ा करने का मूल विचार इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील माताबदल पांडेय का था जो प्रतापगढ के ही निवासी थे।

इलाहाबाद से प्रकाशित अंग्रेज़ी दैनिक इंडिपेंडेंट के 27 अक्तूबर 1920 के अंक में विस्तार से यह खबर प्रकाशित की गयी थी कि 17 अक्टूबर 1920 को अवध किसान सभा का गठन प्रतापगढ़ के रूरे गांव में आयोजित किसानों की एक सभा में किया गया। इस सभा में करीब पांच हजार किसान शामिल हुए थे।इस सभा में वकील माता बदल पांडेय ने पूरे अवध क्षेत्र के लिए किसान सभा बनाने पर बल दिया था। इस बैठक का एजेंडा 150 ग्रामों में पहले ही स्थापित किसान सभाओं को मिलाकर प्रतापगढ़ जिले में किसानों का सक्रिय संगठन बनाना था। इस सभा में पंडित जवाहरलाल नेहरू, प्रतापगढ़ के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर वैकुंठ नाथ मेहता, संयुक्त प्रान्त किसान सभा के गौरी शंकर मिश्र, रायबरेली के किसान नेता माताबदल मुराई, बाबा राम चन्द्र, सहदेव सिंह और झींगुरी सिंह मौजूद थे। सभा में मौजूद लोगों ने माता बदल पांडेय की सलाह पर मुहर लगाई।

किसानों के इस नवगठित संगठन का नाम अवध किसान सभा रखा गया। माता बदल पांडेय को इस सभा का मंत्री चुना गया। इस आंदोलन को नेतृत्व देने वाले नेताओं में बाबा रामचंद्र के साथ स्थानीय नेता सहदेव सिंह, झींगुरी सिंह, अयोध्या, भगवानदीन, काशी, अक्षयवर सिंह, माताबदल मुराई समेत इलाहाबाद के कई नामों का उल्लेख मिलता है।

उल्लेखनीय है कि अवध किसान सभा की मातृ संस्था रूरे किसान सभा की स्थापना सहदेव सिंह ने 1914 में ही की थी। रुरे गांव के ही झींगुरी सिंह और उनके चचेरे भाई दृगपाल सिंह के इसमें शामिल होने पर इसमें जान आ गई। झिंगुरी सिंह ने ही फीजी से लौटे गिरमिटिया बाबा रामचंद्र को इस सभा से जोड़ा। बाबा रामचन्द्र में गजब की संगठन शक्ति थी। देखते ही देखते एक माह में ही अवध में इस संगठन का सघन विस्तार हो गया। यही नहीं उत्तर प्रदेश किसान सभा की जिला इकाइयों के विलय भी अवध किसान सभा में हो गया। इसके बाद एक ऐसा इतिहास रचा गया जो कालांतर में भारत के किसान आंदोलन का एक स्वर्णिम अध्याय बन गया।

जनश्रुतियों के अनुसार राम चरित मानस की चौपाइयों ने इस आंदोलन को धार दी। किसानों को बैठक की सूचना देने के लिए बाबा रामचन्द्र किसी पेड़ पर चढ़ कर जय जय सीताराम का उद्घोष करते थे। यह संकेत था। कुछ ही पल में हजारों किसानों का मजमा लग जाता था। अवध किसान सभा की सदस्यता का तरीका भी अनूठा था । सभा की बैठकों में एक नाली खोदी जाती थी और उसमें पानी भर दिया जाता था। इसे मां गंगा का स्वरूप माना जाता था। किसी भी किसान को संगठन का सदस्य बनने के पहले इसी नाली में खड़े होकर मां गंगा की सौगंध लेनी पड़ती थी।

अवध किसान सभा की बैठकों में किसानों की समस्याओं पर चर्चा होती थी। इस दौरान राम चरित मानस की चौपाइयों का सस्वर पाठ होता था। बाबा रामचंद्र की ख्याति उन दिनों रामचरित मानस के अध्येता के तौर पर हो चुकी थी। रामचरित मानस की एक पंक्ति “राज समाज विराजत रूरे” का रूपांतरण इस रूप में हो गया – सकल समाज विराजत रुरे। रामचन्द्र सहदेव झींगुरे।। अवध किसान आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी इसकी एक और विशेषता थी। महिला किसान और खेतिहर मज़दूरिनों ने क्रांतिकारी भावना के साथ इस आंदोलन में योगदान दिया था। किसानिनों की क्रांतिकारी भावना का मूरत स्वरूप किसानिन सभा थी, जिसे भारत की कामकाजी महिलाओं का पहला संगठन माना जाना चाहिए।

इस तरह बहुत ही कम समय में अवध के किसानों का आंदोलन विस्तारित हो गया। एक बार बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में सैकड़ों किसानों का जत्था रूरे से पैदल चलकर महात्मा गांधी से मिलकर अपनी व्यथा सुनाने 6 जून 1920 को इलाहाबाद पहुंचा था। लेकिन गांधी जी वहां से वापस जा चुके थे। किसान बलुआघाट पर डेरा जमाए रहे औऱ वहां उनसे मिलने पंडित जवाहरलाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन और गौरीशंकर मिश्र आदि नेता पहुंचे। बाबा ने उन्हें किसानों की व्यथा सुनाई और हालात का जायज़ा लेने का न्योता भी दिया। इसके बाद पंडित नेहरू ने प्रतापगढ़ के पट्टी क्षेत्र के गांवों का दौरा किया।

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