अलगाव की राजनीति

 

बनवारी

फारूक अब्दुल्ला व महबूबा मुती की ओर से दिये जा रहे अलगाववादी बयानों पर कांग्रेस की चुप्पी हैरान करने वाली है।

इन चुनावों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर में खलनायक की भूमिका निभाने वाले केवल हुर्रियत के नेता नहीं है। जम्मू-कश्मीर के दोनों मुख्य राजनीतिक परिवार अब्दुल्ला और मुती भी खलनायक की ही भूमिका निभाते रहे हैं। इन चुनावों में फारूक अब्दुल्ला श्रीनगर संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर का यह संसदीय क्षेत्र न केवल अलगाववादियों का गढ़ बना रहा है बल्कि वह नेशनल कांफ्रेंस की राजनीति का भी गढ़ रहा है। लेकिन इस बार के चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस को पीपुल्स कांफ्रेंस से चुनौती मिल रही है। पिछले वर्ष 6 नवंबर को श्रीनगर के मेयर का चुनाव जीतकर जुनैद अजीम मट्टू ने यह साबित कर दिया था कि यहां की राजनीति पर अब्दुल्ला परिवार का एकाधिकार नहीं है। श्रीनगर में दूसरे चरण में चुनाव संपन्न हो गए हैं।

लेकिन अपना और अपने परिवार का राजनैतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए दोनों राजनीतिक परिवारों ने धारा 35ए और 370 पर अलगाव की भाषा बोलते हुए घोषित किया कि अगर इन धाराओं से छेड़छाड़ की गई तो भारत में जम्मू-कश्मीर का विलय भी अमान्य हो जाएगा और कश्मीर घाटी में कोई भारत का झंडा उठाने वाला नहीं मिलेगा। फारूक अब्दुल्ला ने इस मुद्दे को विशेष रूप से तूल दिया। उनकी भाषा केवल चुनावी भाषा नहीं थी। इसलिए राज्य की राजनीति पर उसके दीर्घावधि दुष्प्रभाव होंगे। उन्होंने हुर्रियत के नेताओं के खिलाफ की गई कार्रवाई पर सवाल उठाते हुए जो भाषा बोली थी उसी से स्पष्ट हो गया था कि हुर्रियत को कमजोर करने भर से अलगाववादी राजनीति का अंत नहीं हो जाएगा। इन दोनों परिवारों की राजनैतिक भूमिका को समझने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि धारा 35ए और धारा 370 को हटाए जाने की कोई आशंका नहीं थी। पिछले वर्ष धारा 35ए के संवैधानिक अनौचित्य का मामला सुप्रीम कोर्ट में आया था। सुप्रीम कोर्ट उस पर सुनवाई करने के लिए तैयार हो गया था।

इसी से भड़की महबूबा ने केंद्र पर आरोप लगाया कि धारा 35ए को समाप्त करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। उसके बाद महबूबा मुती की पार्टी पीडीपी का बिखराव शुरू हुआ। उनकी सरकार गई और महबूबा सीधे अलगाववादी भाषा पर उतर आईं। उसकी प्रतिद्वंद्विता में नेशनल कांफ्रेंस की ओर से भी कुछ ऐसे ही बयान आने लगे। केंद्र सरकार ने स्थिति को संभालने के लिए सुप्रीम कोर्ट से सुनवाई टालने का अनुरोध किया। लेकिन यह दोनों परिवार धारा 35ए को मुद्दा बनाए रहे और आंदोलन छेड़ने की धमकी देते रहे। जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आए, इस अलगाववादी भाषा को धार दी जाने लगी। फारूक अब्दुल्ला ने सभी सीमाएं लांघते हुए पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले पर सवाल उठाए। उसके बाद उन्होंने बालाकोट में की गई सैनिक कार्रवाई पर सवाल उठाए।

संकेतों में उन्होंने यह कहने की कोशिश की कि पुलवामा का हमला और बालाकोट की कार्रवाई चुनाव जीतने की सुनियोजित योजना का अंग थे। इस सारी अवधि में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के छोटे बड़े नेता पाकिस्तान के पैरोकार बने रहे। उनकी भाषा से निराश होकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह को कहना पड़ा कि इस अलगाववादी राजनीति को समाप्त करने के लिए फिर एक ही उपाय रह जाएगा कि धारा 35ए समाप्त कर दी जाए। अमित शाह ने एक कदम आगे जाकर धारा 370 का भी उल्लेख करते हुए उसे समाप्त करने की जरूरत बताई और भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में इन दोनों धाराओं को हटाए जाने के अपने राजनैतिक संकल्प को दोहरा दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कठुआ की अपनी रैली में बिना लाग लपेट के कहा कि यह दोनों परिवार जम्मू-कश्मीर की बर्बादी के लिए जिम्मेदार हैं। इसके जवाब में पहले उमर अब्दुल्ला ने नरेंद्र मोदी और महबूबा मुती की राजनैतिक निकटता दर्शाने के लिए एक फोटो सोशल मीडिया पर डाला। फिर मुती परिवार की तरफ से यह अब्दुल्ला परिवार के लिए किया गया। बस चुनावी नोंक-झोक तक बात सीमित रहती तो उसे नजरअंदाज किया जा सकता था। लेकिन चुनाव के बहाने इन दोनों राजनैतिक परिवारों ने जम्मू-कश्मीर में अलगाव की राजनीति को जिलाए रखने का अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है। उनकी राजनैतिक दृष्टि से कांग्रेस का मेल भले न हो लेकिन जिस तरह कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस ने चुनावी समझौता करके फारूक अब्दुल्ला के खिलाफ उम्मीदवार न उतारने और उनकी अलगाववादी भाषा पर मौन साधे रखने का रवैया अपनाया है उससे स्पष्ट है कि कांग्रेस अंध मोदी विरोध में किसी भी सीमा तक जा सकती है।

इसलिए अगर जम्मूकश्मीर की स्थिति सुधारने के लिए कोई गंभीर कोशिश की जाती है तो उसमें इन दोनों परिवारों की राजनीति की भी मर्यादा बांधी जानी चाहिए। यह स्पष्ट कर देना होगा कि जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय को लेकर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। जो भी ऐसा करता है वह देश के हितों और देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहा होगा और फिर उसे उसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह घोषित किया है कि देशद्रोह के कानूनों को इतना कड़ा किया जाएगा कि देशद्रोह की भाषा बोलने वालों को उसका भय रहे। वित्त मंत्री अरुण जेटली भी धारा 35ए की असंवैधानिकता पर काफी कह चुके हैं।

मोदी सरकार के सत्ता में लौटने पर इन सब बातों को भुला नहीं दिया जाना चाहिए। अलगाव की राजनीति ने कश्मीर के राजनैतिक माहौल को इतना विषाक्त कर दिया है कि उसका अंत करने के लिए कोई निर्णायक कदम उठाना पड़ेगा। असल में जम्मू-कश्मीर की समस्या मूलत: नेहरू परिवार और अब्दुल्ला परिवार की देन है। शेख अब्दुल्ला की राजनैतिक हैसियत बढ़ाने में सबसे बड़ा योगदान जवाहर लाल नेहरू का था। शेख अब्दुल्ला का राजनैतिक कैरियर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से शुरू हुआ था। उन दिनों वह मुस्लिम सांप्रदायिकता और वामपंथी विचारों का गढ़ था। यह भी उल्लेखनीय बात है कि हमारे यहां वामपंथी नेताओं ने सदा मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। शेख अब्दुल्ला वामपंथी भाषा बोलते हुए कश्मीर रियासत में महाराजा हरि सिंह के खिलाफ आंदोलन खड़ा करना चाहते थे। 1937 में उनकी जवाहर लाल नेहरू से भेंट हुई।

उससे पांच साल पहले वे मौलवी अब्दुल्ला के प्रभाव में मुस्लिम कांफ्रेंस बना चुके थे। वे स्वयं उसके पहले अध्यक्ष थे। उस समय कश्मीर में मुस्लिम लीग की राजनीति की कोई जगह नहीं थी। यह भी याद रखना चाहिए कि शुरू में मुसलमानों के लिए अलग राज्य मांगने वालों का ध्यान कश्मीर की तरफ नहीं था। उसे बाद में मोहम्मद इकबाल के कारण शामिल किया जाने लगा। शेख अब्दुल्ला को यह समझ में आ गया था कि महाराजा के खिलाफ कोई आंदोलन केवल मुसलमानों के सहारे नहीं चलाया जा सकता। उन्होंने जम्मू के नेताओं को साथ लेने के लिए बातचीत शुरू करवाई। लेकिन किसी ने उनके साथ आने में उत्साह नहीं दिखाया। नेहरू के समझाने पर शेख अब्दुल्ला ने 1939 में मुस्लिम कांफ्रेंस का नाम बदलकर नेशनल कांफ्रेंस किया। बाद में बिना पर्याप्त तैयारी के उन्होंने क्विट कश्मीर आंदोलन छेड़ दिया। महाराजा ने उन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरतार करवा दिया।

उनकी पैरवी करने वकील की हैसियत से नेहरू ही गए थे। नेहरू ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके न केवल उन्हें छुड़वाया बल्कि आपातकालीन प्रशासन का मुखिया बनवा दिया। कश्मीर रियासत के भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला के आग्रह पर ही धारा 370 डाली गई थी। उसका संविधान सभा और कांग्रेस कार्यकारिणी में भारी विरोध हुआ। जब धारा 370 का संविधान सभा और कार्यकारिणी में विरोध हो रहा था नेहरू विदेश में थे। नेहरू ने अपनी कश्मीर नीति को लेकर सरदार पटेल के विरोध को देखते हुए कश्मीर मामला उनके मंत्रालय से अलग करके अपने पास रख लिया था। यह जानते हुए भी कि सरदार उनके धारा 370 जोड़े जाने के खिलाफ हैं। नेहरू ने विदेश से उनसे आग्रह किया कि वे इसे संविधान सभा और कांग्रेस से स्वीकृत करवाने में सहायता करें।

नेहरू का मान रखने के लिए सरदार तैयार हो गए और यह धारा ये सोचकर संविधान में जोड़ दी गई कि वह फौरी व्यवस्था है, कुछ दिन में समाप्त कर दी जाएगी। नेहरू ने ही शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपी थी. लेकिन 1953 में उन्हें स्वयं शेख अब्दुल्ला को कश्मीर षड्यंत्र केस में गिरतार करके जेल में डालना पड़ा। 1964 में पाकिस्तान से बातचीत के नाम पर वे जेल से बाहर आने में सफल हो गए। पाकिस्तान जाकर उन्होंने राष्ट्रपति अयूब खां से बात की। अयूब खां ने उनके भारत- पाकिस्तान संघ के प्रस्ताव को हंसी में उड़ा दिया। 1971 में इंदिरा गांधी को उन्हें 18 महीने के लिए कश्मीर से निष्कासित करना पड़ा था। लेकिन 1975 में इंदिरा गांधी और शेख अब्दुल्ला के बीच एक समझौता हो गया। उन्हें मुख्यमंत्री की गद्दी मिली और 1982 में अपनी मृत्यु तक वे राज्य के मुख्यमंत्री बने रहे।

अब्दुल्ला परिवार असल में नेहरू परिवार की वैसाखी पर ही खड़ा रहा है। शेख अब्दुल्ला को शुरू में गलतफहमी थी कि वे कश्मीर के स्वतंत्र शासक हो सकते हैं। उनकी वह गलतफहमी पाकिस्तान विभाजन के बाद समाप्त हो गई। लेकिन अब्दुल्ला परिवार आज भी अपना राजनैतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए अलगाववाद को जिलाए हुए है। अलगाववाद की जड़ों में मट्ठा डालने के लिए धारा 370 समाप्त किया जाना आवश्यक है।

 

 

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