अंग्रेज तो चले गए अंग्रेजियत रह गयी

 

बनवारी

अंग्रेजी के ‘फ्रीडम’ शब्द और भारतीय भाषाओं के ‘स्वतंत्रता’ और उसके समानार्थी शब्दों को पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। लेकिन दोनों के अभिप्राय में जमीन-आसमान का अंतर है। अंग्रेजी में फ्रीडम का जो अर्थ है, उसे ध्वनित करने वाला हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में कोई शब्द नहीं है। इसी तरह स्वतंत्रता का जो अर्थ है, उसे व्यक्त करने वाला अंग्रेजी या अन्य यूरोपीय भाषाओं में कोई शब्द नहीं है। ‘फ्रीडम’ का सामान्य अर्थ है किसी के नियंत्रण से मुक्त होना। स्वतंत्रता का अर्थ है अपने तंत्र में स्थित होना। यहां तंत्र का अर्थ एक नैतिक अनुशासन और उसके लिए बनी व्यवस्था है। जब हम देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्षशील थे तो उसका यही अर्थ संघर्ष में जुटे सब लोगों के मन में ध्वनित होता था। महात्मा गांधी तो बार-बार कहते ही थे कि हमारा संघर्ष इसके लिए नहीं है कि अंग्रेज चले जाएं और उनकी व्यवस्थाएं बनी रहे।

हमें अपनी शासन व्यवस्था और सामाजिक क्रियाशीलता में लौटना है। लेकिन सत्ता जिन लोगों के हाथ में गई, उन्हें स्वतंत्रता का अर्थ नहीं मालूम था। वे फ्रीडम के लिए लड़ रहे थे। जब फ्रीडम मिली तो अंग्रेजों की बनाई अधिकांश व्यवस्थाओं को जस का तस बनाए रखकर वे सत्ता में बैठ गए। उन्होंने पूरे देश को यूरोपीय सभ्यता का अनुकरण करने के रास्ते पर डाल दिया। खेती-बाड़ी, कल-कारखाने, सेना, सामाजिक मान्यताएं सब यूरोपीय सभ्यता के अनुकरण पर बनाई जाने लगीं। हमने अपने लोगों की आवश्यकताओं, उन्हें पूरा करने के तौर-तरीकों, सामाजिक विधियों और आध्यात्मिक संस्थान को समझने की कोशिश नहीं की। हमने अपने लोगों की जीवन दृष्टि को नहीं अपनाया। उन्हें ही यूरोपीय जीवन शैली का अनुकरण करने के लिए विवश कर दिया। पिछले सात दशक से हम एक ही नारा लगा रहे हैं कि हमें आर्थिक विकास करना है। उस दिशा में हम कुछ आगे बढ़े भी हैं। फिर भी यह कहना कठिन है कि सामान्य भारतीय 71 वर्ष पहले अधिक सुखी जीवन जी रहा था या आज वह अधिक सुखी अनुभव कर रहा है।

अगर हमने फ्रीडम की जगह स्वतंत्रता का अभिप्राय ग्रहण किया होता तो सबसे पहले हम अपनी सभ्यता की रीति-नीति को समझने का प्रयत्न करते। कुछ शताब्दी पहले तक भारत संसार का सबसे समृद्ध देश था|

अगर हमने फ्रीडम की जगह स्वतंत्रता का अभिप्राय ग्रहण किया होता तो सबसे पहले हम अपनी सभ्यता की रीति-नीति को समझने का प्रयत्न करते। कुछ शताब्दी पहले तक भारत संसार का सबसे समृद्ध देश था। उसकी समृद्धि ही नहीं उसकी सामाजिक व्यवस्थाएं, नैतिक अनुशासन और शासन तंत्र की सभी विदेशी यात्रियों ने प्रशंसा की थी। यह समृद्धि और नैतिक अनुशासन हमारे लोगों ने जिन विधियों से प्राप्त किया था, वे आज कैसे असंगत हो गई? लेकिन हमारे नेता और अंग्रेजी शिक्षा में दीक्षित लोग उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की यूरोपीय प्रगति से अभिभूत थे। इस प्रगति के बारे में स्वयं यूरोप में शंकाएं उठाईं जा रही थीं। उससे मनुष्य के जीवन में जो अराजकता और विकृति आ रही थी, उसे लेकर बहुत से यूरोपीय चिंतक परेशान थे। लेकिन हमारे नेताओं पर यूरोपीय जीवनशैली और विज्ञान व टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हुई प्रगति का भूत सवार था। उन्हें यह दिखाई नहीं दे रहा था कि उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में विज्ञान और टेक्नोलॉजी एक ही दिशा में बढ़ रहीं थीं कि कैसे यूरोपीय जाति को संहारक अस्त्र उपलब्ध करवाकर उसे अजेय बनाया जाए। बीसवीं सदी में टेक्नोलॉजी का विकास अमेरिका में सैनिक उद्देश्य से स्थापित प्रयोगशालाओं में ही हुआ है। उसकी वास्तविक उपलब्धि यूरोपीय जाति की प्रधान शक्ति अमेरिका को अजेय बनाना है और शेष विश्व को यथासंभव नियंत्रित किए रहने में समर्थ बनाना है। आज चीन उसे चुनौती देने की कोशिश कर रहा है, लेकिन चीन भी उसी की नकल कर रहा है। नकल असल से बेहतर नहीं होती।

विज्ञान और टेक्नोलॉजी की मरीचिका में हमने अपना सारा जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है। मनुष्य की सबसे बुनियादी आवश्यकता भोजन है। हमारे सामान्य घरों में भी भोजन को पोषक और रुचिकर बनाए रखने का ज्ञान था। उसी के अनुरूप हमने अपनी कृषि का विकास किया था। हमारी सभी विधियां मनुष्य के मूल स्वभाव और प्राकृतिक जीवन को पहचान कर बनाई गई थी। कृषि भी उसी के अनुरूप थी। उसमें अन्न की प्रचुरता और बहुलता थी। किस ऋ तु में क्या खाना है और क्या उगाना है, यह हर किसान जानता था। कृषि को वैज्ञानिक बनाने में हमने अपनी इन सब विधियों की उपेक्षा कर दी। आज हम एक-दो तरह के अनाजों पर निर्भर हैं। उनमें रासायनिक तत्वों की प्रचुर मात्रा होती है और वह सब विष हम अपने लोगों को खाने के लिए विवश कर रहे हैं। हमारा भोजन इतना बिगड़ गया है कि कुछ पीढ़ियों में हम अपने लोगों के स्वास्थ्य को चौपट कर चुके होंगे। आज जिस तरह के शहर विकसित हो रहे हैं, उनमें न दूध दोषरहित है, न सब्जियां न फल। शास्त्रों में कहा गया है कि अन्न से ही मन का निर्माण होता है। हम अप्राकृतिक अन्न से कैसा मन बना रहे होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। हमारे यहां हर क्षेत्र में अपनी मिट्टी और पानी के अनुरूप अन्न की किस्म पैदा होती थी। आज वह बहुलता नष्ट कर दी गई है। वैज्ञानिक विधियों का जितना बुरा प्रभाव हमारे भोजन पर पड़ा है, उसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

हमारी सभ्यता का केंद्र सदा गांव थे। क्योंकि वे समाज का नैतिक अनुशासन बनाए रख सकते थे। गांव का अर्थ आज केवल रूरल होकर रह गया। हमारे सभी छह-सात लाख गांव न केवल हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप उद्योग-धंधों से संपन्न थे, बल्कि उनके कारीगर किसी भी देशकाल के अनुरूप नए तरह का कौशल विकसित करने में समर्थ थे। भारत संसार का अकेला ऐसा देश था, जहां अत्यंत प्राचीन समय से हर गांव में शिक्षा की व्यवस्था थी। हमारे अधिकांश आचार्य, वैज्ञानिक और साहित्यकार ग्रामवासी ही थे। यूरोप में तो पहले स्कूल के बारे में कोई जानता ही नहीं था। न ही भारत जैसी पाठशालाएं चीन या जापान में थीं। भारत से संपर्क में आने के बाद अरब लोगों ने आरंभिक शिक्षा के लिए मकतब शुरू किए थे, लेकिन वे मजहबी शिक्षा का अंग ही थे।

 

 यूरोप में ग्यारहवीं शताब्दी से उच्च शिक्षा के केंद्र शुरू हुए थे। लेकिन लंबे समय तक वह रोमन लॉ, थ्योलॉजी और मोरल फिलॉसफी के कोचिंग सेंटर जैसे थे, जहां फीस लेकर शिक्षा दी जाती थी। इसी ढांचे से आज के दुनियाभर के विश्वविद्यालय निकले हैं। भारत में काशी जैसे उच्च शिक्षा के केंद्र हर क्षेत्र में थे और गुरु शिष्य से शुल्क लेना अपनी गरिमा के विरुद्ध समझता था। वह शिष्यों के आश्रय और भोजन की भी व्यवस्था करता था। गुरु की कीर्ति के कारण धनी और राजा गुरुओं को पर्याप्त दक्षिण देते रहते थे। उनसे पढ़कर गए विद्यार्थी भी बाद के जीवन में उन्हें गुरु दक्षिणा भेजते रहते थे। इस समय देश में अरविंद आश्रम का स्कूल ही ऐसी शिक्षा देता दिखाई देता है। अन्यथा पूरे देश में शिक्षा पैसा कमाने और डिग्री बांटने का धंधा हो गई है। हमने अपने बहुजातीय, समरस, अनुशासित समाज को दलित, पिछड़े और अगड़े राजनैतिक वर्गों में बांट दिया है। चुनाव समाज की रही-सही एकता भी समाप्त कर रहे हैं। पंचायती चुनाव गांव तक परस्पर कलह और दुश्मनी के कारण बन रहे हैं। हमने बहुमत को विधि का आधार बनाकर सर्वानुमति को छोड़ दिया है।

इस सबका अर्थ यह नहीं कि हम दुनिया से अछूते रह सकते थे और हमें यूरोपीय सभ्यता से कुछ लेना नहीं था। हमें अपनी आत्मरक्षा के लिए उनकी जैसी और उससे भी उन्नत सैन्य सामग्री पैदा करने वाला उद्योग खड़ा करना था। उसके लिए आवश्यक परिवहन और संचार क्षेत्र में भी देशभर में व्यापक तंत्र खड़ा करना था। हमने रक्षा उद्योग खड़ा नहीं किया, परिवहन और संचार तंत्र खड़ा कर लिया। उससे लोगों को जितनी सुविधा हुई, उतनी ही असुविधा हुई। हम उनका विकास अपनी दृष्टि और आवश्यकताओं के हिसाब से करते तो ऐसा नहीं होता। यही हाल आधुनिक उद्योग तंत्र का है। पश्चिम में टेक्नोलॉजी की दिशा मनुष्य को उत्पादन तंत्र से बाहर करने की है। हमारे यहां हमेशा उत्पादन को मनुष्य के कौशल और विवेक से जोड़कर देखा गया है। हमारा अर्थतंत्र एक स्वतंत्र और स्वउद्यमी समाज को नौकरीपेशा गुलाम बनाता जा रहा है। यूरोपीय सभ्यता तो यूनान की दास व्यवस्था को आदर्श मानने के लिए उससे परेशान नहीं होती। हम अपने लोगों की स्वतंत्रता का अपहरण करने देकर बड़ा अपराध कर रहे हैं। हम आज तक यह नहीं समझ पाए कि यूरोपीय लोगों ने टेक्नोलॉजी नियंत्रण के लिए विकसित की है। अपने लोगों के नियंत्रण के लिए भी और विश्वव्यापी नियंत्रण के लिए भी। उससे बचना है तो टेक्नोलॉजी का विवेकपूर्वक और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप विकास और उपयोग होना चाहिए। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि हमारी भी मनुष्य की अवधारणा बदलती जा रही है।

यूरोपीय लोगों के लिए मनुष्य एक तार्किक प्राणी है और इसलिए बहुत थोड़े ही लोग उन्हें मनुष्य दिखाई देते हैं, जिन्हें वे उपयोगी और संरक्षणीय मानते हैं। अन्य सब-ह्यूमन हैं, स्त्रियां भी। हम मनुष्य को एक नैतिक प्राणी के रूप में देखते हैं और मानते हैं कि यह क्षमता सभी मनुष्यों में है। हमने अपना तंत्र सदा विवेक पर खड़ा किया और यूरोप ने तर्क पर। उनकी नकल करके हम अपनी मनुष्यता खोते जा रहे हैं। इसके अलावा पिछले 70 वर्ष हमने केवल आर्थिक और राजनैतिक तंत्र को महत्व दिया है। हमारे यहां सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक और आर्थिक तंत्र में सामंजस्य बैठाते हुए ही उन्नति की अपेक्षा की गई है। यह सामंजस्य बैठाने की फिर से कोशिश होनी चाहिए, इसके अभाव में समाज बिखरता जा रहा है और सार्वजनिक जीवन भ्रष्टाचार और व्यभिचार की खबरों से अटा रहता है। उन्हें सुनकर ग्लानि तो होती है, लेकिन यह समझने की कोशिश नहीं होती कि यह पतन क्यों हो रहा है।

 

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