कम्युनिस्टों का 1857 पर लाल रंग चढ़ाने का कुचक्र

कम्युनिस्टों ने बहुत से बौद्धिक कुचक्र रचे। उनके कुचक्र आज भी जारी हैं। जब उनकी इस धूर्तता से पर्दा उठता है तो बेशर्मों की तरह दूसरे कुचक्र में लग जाते हैं। अपनी आदत के मुताबिक प्रथम स्वतंत्रता समर 1857 को भी लाल रंग से पेंट करने की कोशिश कामरेडों ने की। जबकि वीर सावरकर ने 1857 की घटना को स्वतंत्रता समर कहा। 1857 हमारे इतिहास का बहुत निर्णायक मोड़ है। इसी समझने की जरूरत है।

1740 से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार की जो प्रक्रिया चली 1857 में उसकी चरण परिणति हुई। वह केवल भारत की ही नहीं, पूरे विश्व की महत्वपूर्ण घटना थी। अभी तक हम लोगों को यूरोप और अमेरिका के समाचार पत्रों में जो छपा उसका ज्ञान ही नहीं था। अब उसका थोड़ा बहुत अध्ययन सामने आ रहा है।

साल 2007 में प्रमोद नैयर की एक पुस्तक पेंग्विन ने छापी है। ‘1857 ए रीडर’ उसमें उन्होंने अमरीका के लगभग 25 पत्र पत्रिकाओं में उस समय की छपी सामाग्री का संकलन किया है। हांलांकि वह आधा ही है। 

इससे यह तो पता चलता है कि 1857 का वैश्विक प्रभाव पड़ा। उस घटना की दुनियाभर में चर्चा हुई। सुरेन्द्र नाथ सेन ने लिखा है कि सैनिक विद्रोह के रूप में शुरू हुआ, फिर सार्वजनिक विद्रोह में बदला और अंत में वह राष्ट्रीय विद्रोह बन गया। मुझे लगता है कि 1857 को समझने के लिए तिथि के अनुसार पूरे घटनाक्रम को देखना चाहिए।

हमारे देश में जो विचार युद्ध चल रहा है, उसमें हर विचारधारा सन 1857 पर अपना रंग चढ़ाने की कोशिश में हैं। साल 1957 में जब प्रथम स्वाधीनता संग्राम की सदी मनाई गई तब कामरेड पीसी जोशी की पहल पर दो काम हुए। कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र न्यू एज का विशेषांक निकला। उसका संपादन कामरेड पीसी जोशी ने किया था और उन्होंने ‘रिवेलियन 1857’ पुस्तक छापी। इन दोनो प्रकाशनों में सन 1857 पर मार्क्स के नाम से कुछ लेख छपे। उन लेखों का स्रोत जर्मनी की मार्क्स-लेनिन संस्थान को बताया गया। इस प्रयोग से प्रभावित होकर मास्कों ने 1959 में मार्क्स-एंजिल के नाम से एक लेख संग्रह छापा। उसे ‘इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस’ शीर्षक दिया गया। तब से भारतीय कम्युनिस्टों ने 1857 को मार्क्स-एंजिल के समर्थन का ढोल पीटना शुरू किया। उससे पहले कम्युनिस्ट सन 1857 की क्रांति को एक प्रतिगामी सामंतवादी विद्रोह घोषित करते थे।

इसके दो उदाहरण है। एक साल 1922 में एमएन राय की पुस्तक ‘इंडिया इन ट्राजिशन’ छपी थी। जिसे अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट मंच की स्वीकृति थी। उसके बाद साल 1940 में रजनी पाम दत्त की पुस्तक ‘इंडिया टुडे’ प्रकाशित हुई थी। इनमें 1857 को प्रतिगामी विद्रोह कहा गया था। यही 1857 की क्रांति के प्रति कम्युनिष्टों की धारणा थी।

पीसी जोशी रजनी पाल्म दत्त को अपना मार्गदर्शक मानते थे। वह उन्हें आरपीडी के नाम से बुलाते, उन्ही के शब्दों में ‘‘आरपीडी हमारे शिक्षक एवं मार्गदर्शक बन गए। उनकी मॉडर्न इंडिया हमारे लिए आधार ग्रंथ एवं उनके ‘लेबर मंथली: नोट्स ऑफ दी मंथ’ वे टिप्पणियां जो हमें गति देती रहीं।’’ (‘रजनी पाल्मे दत्त एंड इंडियन कम्युनिस्ट’, न्यू थिंकिंग कम्युनिस्ट) मतलब गुरू और चेले दोनो धूर्तता में अव्वल थे।

आश्चर्य है कि साल 1957 के बाद से इस धारणा की चर्चा पूरी तरह बंद कर दी गई। सच यह है कि न्युयार्क डेली ट्रिब्यून के 1857 की क्रांति के संबंध में प्रकाशित लेखों में मार्क्स एंजिल का कहीं नाम नहीं है। वह सभी लेख अनाम लेखकों की सामाग्री है।

साल 1917 में मास्कों अभिलेखागार के निर्माता डी. रियाजानोव ने मार्क्स के संपूर्ण अंग्रेजी लेखन को खोज खोज कर दो खंडों में प्रकाशित किया। किंतु उनमें उन लेखों का कोई जिक्र नहीं। साल 1957 से पहले मास्कों से प्रकाशित मार्क्स के समग्र वांग्मय में इन लेखों का कोई स्थान नहीं है। लेकिन एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि साल 1959 में प्रकाशित पुस्तक में कई फुटनोट में मार्क्स के अपने लिखे हुए नोट्स का हवाला दिया गया है।

प्रश्न उठता है कि यदि मार्क्स के अपने नोट्स उपलब्ध थे, तो उनके अंग्रेजी लेखन का संकलन करते समय डी.रियाजानोव ने इन नोट्स का उपयोग क्यों नहीं किया। इसी तरह साल 1919 में मार्क्सवादी जर्मन मेहरिंग द्वारा प्रकाशित मार्क्स की पहली जीवनी में इन नोट्स का उल्लेक क्यों नहीं है। यह इसलिए नहीं है कि क्योंकि कम्युनिस्टों को भारत के बदलते वातावरण के हिसाब से अपनेे विदेशी वैचारिक पुरखों  को भी 1857 का श्रेय देने की जल्दबाजी थी। उन्हें यह नही पता कि कि जिस पीसी जोशी ने न्यू  एज पत्रिका का संपादन करते हुए 1857 को मार्क्स के विचार से प्रेरित बताया उनके मार्गदर्शक रजनी पाल्म दत्त तो इसे स्वतंत्रता समर मानते ही नही। भारतीय कम्युनिस्टों की यही धूर्तता हर जगह मिल जाएगी

यही नहीं आज के कम्युनिस्टों से बात करिए तो वही तर्क देते मिल जाएंगे जो पीसी जोशी ने उन्हें पढ़ाया है। उन्हें नहीं पता कि दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है। नए नए तथ्य सामने आ रहे हैं। हर दिन उनकी पोल खुल रही है। समाज सब कुछ देख रहा है। लेकिन आदत है कि जाती नही

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