प्रकाश सिंह बादल को इतिहास सदैव याद रखेगा। खासकर आपातकाल (1975-77) के तीव्रतम विरोधी के रोल में। उनका शिरोमणि अकाली दल तब मन से, दम लगाकर, निर्भय होकर इंदिरा गांधी की तानाशाही से भिड़ा था। रोज दिल्ली के गुरुद्वारे से निकलकर बादल के लोग जेल भरते रहे। इन सिख सत्याग्रहियों की ओठों पर “जो बोले सो निहाल” की गूंज तो होती ही थी। पर एक अन्य नारा बड़ा सर्वग्राही भी था : “दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे।” दूसरा था : “जगह है कितनी जेल में तेरे, देखा है और देखेंगे।” ज्यादा जोरों से निनादित होता था। फिर वे सब तिहाड़ जेल लाए जाते थे। हम 25 लोग (बड़ौदा डायनामाइट केस के अभियुक्त, जॉर्ज फर्नांडिस मिलाकर) वहां 17 नंबर वार्ड में कैद थे। नवांगतुकों का हम सब गर्मजोशी से स्वागत करते थे।
प्रकाश सिंह बादल को कैद करते ही पहले अन्य इंदिरा-विरोधियों के साथ शुरू में 13 नंबर वार्ड में रखा गया था। प्रकाश सिंह बादल के साथ इसी वार्ड में हमारे सहअभियुक्त विजय नारायण सिंह (वाराणसी वाले) भी रहे। वे तब सभी कैदियों के संपर्क सूत्र थे। दो नंबर वार्ड में भारतीय जनसंघ के मदनलाल खुराना, सुंदर सिंह भंडारी, विजय कुमार मल्होत्रा आदि थे। अकाली सत्याग्रही बड़े जीवट, दिलवाले, निडर और दृढ़ थे। वे लोग रोज सतनाम का पाठ करते थे। दिल्ली गुरुद्वारे से उनका प्रसाद आता था। हर संध्या को राजनीतिक क्लास होती थी। इसमे सरदार प्रकाश सिंह बादल की तकरीरें प्रभावी होती थी। फिर सामूहिक भोज होता था। अपने वार्ड में हम लोग भी ऐसा ही करते थे : गीतापाठ, अखण्ड रामायण आदि। हमारे भोजन के समय का मंत्र था : “ओम सहनाभुनक्तु”। उसके बाद ही हमारा ग्रास मुंह मे पड़ता था। हमारे साथियों में खास थे : सर्वोदयी प्रभुदास पटवारी जो बाद में तमिलनाडु के राज्यपाल बने। पुनः प्रधानमंत्री बनते ही इंदिरा गांधी ने उन्हें बर्खास्त कर डाला था। उद्योगपति वीरेंद्र शाह भी थे वह बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने। वे मुकुंद इस्पात कंपनी के मालिक थे। जॉर्ज के मित्र थे। उन्हें मेरे साथ एक ही हथकड़ी पहनाई जाती थी, जब तीस हजारी कोर्ट ले जाया जाता था। दो की कलाइयां एक साथ ! मुझे विधाता पर तरस आता था कि मुझ जैसे साधारण रिपोर्टर, (बड़ौदा में “टाइम्स आफ इंडिया”), वस्तुतः बुद्धिकर्मी श्रमिक, को और अरबपति सांसद वीरेंद्रभाई शाह के साथ : एक राजा को एक रंक के साथ एक ही जंजीर बंधवाकर इंदिरा गांधी ने समतामूलक समाज रच दिया था !
तभी का किस्सा है। छठी लोकसभा (मार्च 1977) का चुनाव घोषित हो गया था। प्रकाश सिंह बादल तथा अन्य राजनीतिक कैदी रिहा हो रहे थे। तो बड़ौदा डायनामाइट केस वालों की हम लोगों की रिहाई का तो प्रश्न ही नहीं था क्योंकि हम सब भयंकरतम अपराधी थे सत्ता के। तभी जनसंघ नेता सुंदर सिंह भंडारी जी की उद्घोषणा थी : “हम सब बाहर जा रहे हैं मगर जैसे ही इंदिरा गांधी इस फर्जी निर्वाचन में जीतकर फिर सत्ता में आएगी तो हम लोग वापस जेल में आ जाएंगे। रिटर्न टिकट लेकर रिहा हो रहे हैं। आप लोग तो तभी रिहा होंगे जब इंदिरा गांधी चुनाव हारेंगी।” ठीक है ऐसा ही हुआ। रायबरेली के वोटरों ने प्रधानमंत्री को हरवाकर और जनता पार्टी के राज नारायण जी को जितवाकर सत्ता बदल गई। नए प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की काबीना का पहला निर्णय था कि बड़ौदा डायनामाइट केस वापस लिया जाता है। काबीना बैठक में इस निर्णय का अनुमोदन किया था : गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह, विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेई, कानून मंत्री शांति भूषण, सूचना मंत्री लालचंद आडवाणी, वित्त मंत्री एच एम पटेल आदि ने।
दुबारा जिक्र हो सरदार प्रकाश सिंह बादल का। छोटे से गांव बादल (दक्षिणपूर्वी पंजाब के मुक्तसर जिले के लंबी तहसील में) से आए सरदार प्रकाश सिंह ने छोटे से ओहदे गांव सरपंच से भारत सरकार के काबीना मंत्री और मुख्यमंत्री के पद संभाले। कई बार जेल गए। उनका कीर्तिमान है कि वे सबसे कम, बाद में सबसे अधिक उम्र के मुख्यमंत्री रहे। सर्वाधिक महत्व का योगदान उनका रहा कि अकाली-भाजपा के गठबंधन से हिंदू-सिख एकता इस सीमावर्ती राज्य में मजबूत हुई। दंगे नहीं हुए।
बादल के तिहाड़ जेल में बंद होने के पूर्व की घटना है। आपातकाल के ठीक चंद घंटे पहले (बुद्धवार, 25 जून 1975) दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विशाल जनसभा हुई। उसी आधी रात को ही राष्ट्रपति फख्रुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की राय से आपातकाल लगा दिया था। इस आम सभा में आचार्य जेबी कृपलानी, मोरारजी देसाई, मधु लिमये, अटल बिहारी बाजपेयी के साथ प्रकाश सिंह बादल भी थे। वह चंडीगढ़ से वेशभूषा बदलकर सभा स्थल पर पहुंचे। पुलिस लगातार पीछा करती रही। पकड़ने मे विफल रही। जनसभा में उनका भाषण बड़ा मर्मस्पर्शी तथा ओजस्वी था। फिर वे पकड़े गए। जेल ले आए गए।
बादल जी के हम श्रमजीवी पत्रकार सदैव आभारी रहेंगे। पंजाब में उनकी सरकार ने मजीठिया वेतन बोर्ड की सिफारिशें लागू की। एक शाम हम सदस्यों को वेतन बोर्ड के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (अवकाशपत्र) गुरुबख्शराय मजीठिया चंडीगढ़ में पंजाब मुख्यमंत्री आवास ले गए। तब तक वे अपनी रपट को केंद्रीय श्रम सचिव प्रभात कुमार चतुर्वेदी (IAS यूपी वाले) को (11 नवंबर 2011) दे चुके थे। तब बादल ने हमारे IFWJ के साथियों को आश्वस्त कर दिया था कि नए वेतनमान लागू किए जाएंगे। उस वक्त उन्होंने स्मरण भी किया कि वे तथा मैं कैदियों के रूप में तिहाड़ में वक्त साथ बिता चुके हैं।
भारत की दूसरी जंगे आजादी (जून 1975-मार्च 1977) के इस महारथी को हम बुद्धिकर्मियों का लाल सलाम !
[लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]