शाहआयोग की जांच रिपोर्ट के गायब होने की कहानी

रामबहादुर राय

अब यह कोई नहीं कह सकता कि शाहआयोग की कोई प्रति भारत में उपलब्ध नहीं है। इसका श्रेय एरा सेझियन को जाता है। उनके ही प्रयास और योग्य संपादन से शाह आयोग की रिपोर्ट उपलब्ध हो गई है। वह रिपोर्ट कैसे गायब हो गई थी और उसके बारे में कब क्या छपा, यह जानने से पहले दो बातें गौर करने लायक हैं। पहली बात यह कि इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए मोरार जी भाई देसाई की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस जेसी शाह की अध्यक्षता में आयोग बनाया था। दूसरी बात यह कि  इंदिरा गांधी ने शासन में दोबारा आने पर शाह आयोग की रिपोर्ट की प्रतियों को गायब करवा दिया था। लोग शाह आयोग को भूल गए थे।

शाह  आयोग की रिपोर्ट वह दस्तावेज है जो हमेशा सुरक्षित रहना चाहिए क्योंकि उससे यह जाना जा सकता है कि इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद की अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश पर अकारण इमरजेंसी लगाई और हजारों लोगो को शासन ने उस दौरान यातनाएं दी। जिस व्यक्ति ने शाह आयोग की रिपोर्ट को खोज निकाला है, वह कौन है। संभवतः एरा सेझियन को वे लोग ही जानते होंगे जो कभी कभार उन्हें हिन्दू अखबार में पढ़ लेते हैं। वे तभी लिखते हैं जब कोई संसदीय या संवैधानिक मर्यादा टूटती है और वे उसे समझाने के लिए अपनी कलम चलाते हैं। इसलिए एरा सेझियन के बारे में जानना जरूरी है। वे 1923 में पैदा हुए थे। अन्ना दुराई के सहयोगी थे। उसी अन्ना दुराई ने द्रमुक बनाया था। एरा सेझियन 1962 से 1984 तक संसद  में थे। वे संविधान की बारीकियों के माने जाने जानकार हैं। संसदीय प्रक्रियाओं के विषेशज्ञ हैं। 1974 में उन्हें लोकनायक जय प्रकाश  नारायण ने जन मोर्चा का संयोजक नियुक्त किया था। वे इमरजेंसी के विरूद्ध लोकतंत्र के लिए उस दौरान लड़ते रहे। वे जनता पार्टी में भी थे। 2001 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से खुद को अलग किया। आज कल चैन्नई रहते हैं।

सवाल यह है कि शाह आयोग का इतना महत्व क्यों है और क्यों उसे इंदिरा गांधी ने गायब करवाया। 1977 के चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनी। इमरजेंसी के बाद वह पहली सरकार थी। लोगो ने उस सरकार को स्वयं बनाया। तब के चुनाव में लोकतंत्र की वापसी ही सबसे बड़ा मुद्दा था। वह पहला चुनाव था जिसे उत्तर भारत के राज्यों में जनता ने खुद लड़ा। इंदिरा गांधी की कांग्रेस परास्त हुई तो उसे दूसरी आजादी की जीत मानी गई। ऐसे महौल में मोरार जी भाई देसाई की सरकार बनी थी। उस सरकार का पहला कर्तव्य  था कि वह इस बात की जांच कराए कि क्या इमरजेंसी जरूरी थी?  उस दौरान लोगो पर जो जुल्म ढाए गए उसके लिए जिम्मेदार कौन थे। इन्हीं बातों की जांच के लिए जस्टिस जेसी शाह आयोग बना। जाहिर है कि आयोग को 1975-1977 के आपातकाल की शिकायतो की जांच करनी थी। उसे जनता सरकार ने 28 मई, 1977 को गठित किया। वह जांच आयोग कानून के तहत गठित हुआ।

आयोग के पास 48 हजार 5 सौ शिकायतें आई। जिसकी छानबीन के बाद आयोग ने पाया कि उनमें से 46, 261 शिकायतें जांच के लायक हैं। कुछ शिकायतें ऐसी थी जिन्हें राज्य सरकारों को सौंप दी गई। उनकी संख्या थी- 2,150। इस तरह शाह आयोग ने अपनी जांच के लिए 37,829 शिकायतो को चुना। आयोग की कारवाई 29 सितंबर, 1977 को प्रारंभ हुई। उसने रोज 6 घंटे काम किया। पूरे 100 दिन में सुनवाई पूरी की। 890 लोगो की गवाहियां ली। इंदिरा गांधी ने आयोग से सहयोग नहीं किया। लेकिन उनके दूसरे  मंत्रियों और सहयोगियों ने गवाहियां दी। आयोग ने पहली रिपोर्ट 11 मार्च, 1978 को दी। दूसरी रिपोर्ट 26 अप्रैल, 1978 को दी और तीसरी रिपोर्ट 6 अगस्त, 1978 को दी। शाह आयोग की पूरी रिपोर्ट 26 अध्यायो में हैं। वह 532 पन्नो में फैली है।

मोरार जी भाई सरकार ने कारवाई के लिए एक कमेटी बनाई। उसके अध्यक्ष एल.पी. सिंह बनाए गए। वे भारत के गृह सचिव रह चुके थे और कई जगह राज्यपाल थे। उनकी बहुत  ख्याति थी। कारवाई समिति के सचिव बी.एस. राघवन थे। मोरार जी भाई की सरकार आपसी झगड़े और चैधरी चरण सिंह के राजनीतिक विश्वासघात के कारण 15 जुलाई, 1979 को गिर गई। कांग्रेस के समर्थन से चैधरी चरण सिंह की सरकार बनी। लेकिन वह संसद का एक दिन भी सामना नहीं कर सकी। लिहाजा लोकसभा भंग हुई और मध्यावधि चुनाव हुआ। 1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आई। सरकार में आते ही उन्होंने पहला काम किया कि एल.पी. सिंह की कारवाई समिति को भंग कर दिया। शाह आयोग की जांच से जो मामले अदालतो में चल रहे थे उन्हें वापस ले लिया।

इसे तो हर जागरूक नागरिक जानता है। जिसने भी इमरजेंसी के दुख भोगे, सरकार की ज्यादतियां झेली और चाहते थे कि अत्याचारी को सजा मिले, उन्हें यह जानकर बहुत अफसोस हुआ। लेकिन देशवासियों को एक बात का संतोष भी था। वह यह कि शाह आयोग की रिपोर्ट में सब कुछ दर्ज है। वह इतिहास का अंश हो चुका है। समय आने पर इतिहास न्याय करेगा। यह बताएंगा कि किसने और कैसे भारत में लोकतंत्र का गला घोंटा। लोकतंत्र को बचाने और वापस लाने का संघर्ष  कैसे चला और उसे दबाने के लिए इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी के इशारे पर किस-किस तरह के अत्याचार हुए।

लेकिन तीन साल पहले सितंबर 2010 में जब एरा सेझियन इमरजेंसी पर कुछ तथ्य खोज रहे थे तब उन्हें कई वेबसाइटों पर एक आश्चर्य जनक जानकारी मिली। उनका माथा ठनका। जानकारी यह थी कि शाह आयोग रिपोर्ट की एक भी प्रति भारत में उपलब्ध नहीं है। विक्किपीडिया पर उन्हें यह पढ़ने को मिला कि ‘रिपोर्ट में इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की करतूतें  हैं। यह ब्यूरा भी है कि प्रशासन और पुलिस के किन अफसरो ने उनके इशारे पर काम किए। इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी के बाद 1980 में शाह आयोग की रिपोर्ट को गायब करवा दिया। यह माना जाता है कि अब उसकी एक भी प्रति उपलब्ध नहीं है। उसकी एक प्रति किसी तरह देश  से बाहर गई और वह नेशनल लाईब्रेरी ऑफ़ आस्ट्रेलिया में है।’

केथरीन फ्रांक ने इंदिरा गांधी की जीवनी लिखी है। उसकी फ्रंट लाइन में समीक्षा छपी। उस जीवनी में भी यह छपा है कि शाह आयोग की एक भी प्रति देश  में उपलब्ध नहीं है। इशारे से यह भी बताया गया है कि यह काम इंदिरा गांधी की सरकार ने कराया। फ्रंट लाइन में समीक्षा 2001 में छपी थी। इंडियन एक्सप्रेस में 2004 में अमृत लाल ने लिखा कि ‘इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता में आते ही शाह आयोग की रिपोर्ट को नष्ट  कर देने का आदेश दिया। तथ्य यह है कि सायद यद ही वह रिपोर्ट अब हो।’ केथरीन फ्रांक की पुस्तक- इंदिरा गांधी की जीवनी का जब 2005 में नया संस्करण छपा तब उसमें यह तो था ही कि शाह आयोग की रिपोर्ट को इंदिरा गांधी की सरकार ने गायब करवा दिया, लेकिन इसके साथ ही एक नई सूचना भी थी कि शाह आयोग की एक रिपोर्ट लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में उपलब्ध है। द वीक पत्रिका ने 2010 में लिखा कि शाह आयोग की रिपोर्ट को इंदिरा गांधी की सरकार ने दफना दिया। इसी तरह से पूर्व एटार्नी जनरल अशोक  एच देसााई ने अपने एक लेख में लिखा कि शाह आयोग की रिपोर्ट सरकार के प्रकाशनो से गायब हो गई है। भारत सरकार को उसे लंदन से मंगवाना चाहिए।

आयोग ने जो जांच की थी उसका पूरा रिकार्ड गृह मंत्रालय को सौंपा गया था। गृह मंत्रालय की कानूनन यह जिम्मेदारी है कि वह रिपोर्ट को छपवाए। उसे संसद में प्रस्तुत करे। सांसदो, मीडिया और नागरिको को उपलब्ध कराए। जब शाह आयोग की रिपोर्ट के गायब होने के बारे में खबरें छपने लगी तो पुराने अफसर रहे एम जी देवशायम ने सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी मांगी कि रिपोर्ट कहां है। उन्हें गृह मंत्रालय ने बताया कि पूरा रिकार्ड और दस्तावेज राश्ट्रीय संग्रहालय को सौंप दिया गया था। कानूनन वह यह काम 25 साल बाद किया जाता है। इस तरह 2003 में गृह मंत्रालय ने उसे सौंपा होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या गृह मंत्रालय ने वास्तव में यह काम किया जैसा कि उसकी ओर से देवशायम को सूचना दी गई। पब्लिक रिकार्ड संबंधी एक कानून है। जो 1993 में बना। उस कानून के तहत इस बात की बाकायदे जांच होनी चाहिए कि क्या वास्तव में शाह जांच आयोग को नष्ट  किया गया और यह किसके आदेश  से हुआ। मनमोहन सिंह की सरकार से इसकी आशा  नहीं की जा सकती।

जब शाह आयोग की रिपोर्ट गायब होने की खबरें आने लगी। सूचना के अधिकार के तहत यह भी पता चल गया कि शाह आयोग की रिपोर्ट राष्ट्रीय संग्रहालय में भी नहीं है। उसके टेपरिकार्ड वगैरा भी गायब हैं तब एरा सेझियन ने अपनी निजी लाईबे्ररी को खंगाला। उन्हें शाह आयोग की रिपोर्ट अपनी लाईब्रेरी में मिल गई। उन्होंने उसे सुरक्षित रखा। यह सांसदो के लिए एक षिक्षाप्रद बात है कि उन्हें यह विवेक होना चाहिए कि क्या रखें और किसे रद्दी में बेच दें। जो भी हो, एरा सेझियन ने एक ऐतिहासिक काम किया है। जब शाह आयोग की रिपोर्ट 1978 में संसद में पेश  की गई थी तब वे राज्य सभा के सदस्य थे। एक सदस्य के रूप में उन्हें वह रिपोर्ट मिली थी। उसे ही उन्होंने अब फिर से छपवाया है, थोड़े संसोधन के साथ। जो पुस्तक आई है, उसका षीर्शक है- शाह कमिशन रिपोर्ट- लास्ट एंड रीगेंड। यह पुस्तक तीन खंडो में है। पहला खंड परिचयात्मक है। जिसमें रिपोर्ट के गायब होने, संवैधानिक नैतिकता के क्षरण और शाह आयोग के ऐतिहासिक महत्व का वर्णन है। दूसरे खंड में शाह आयोग की जांच पर रोशनी डाली गई है। तीसरे हिस्से में शाह आयोग की रिपोर्ट के खास अंश  दिए गए हैं।

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