भारत के पास जो सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी है, उसकी जड़ें बहुत पुरानी हैं – गोविंदाचार्य

भारत के पास जो सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी है, उसकी जड़ें बहुत पुरानी हैं। यह सर्वविदित है कि विश्व में चीन और भारत की ही सभ्यताएं ऐसी हैं जो हजारों वर्षों से निरंतर प्रवाहित होती चली आ रही हैं। भारतीय सभ्यता के मौलिक साहित्य के अनुसार हम इस समय कलियुग में जी रहे हैं और इसके पूर्व अनेक युगों से यह सभ्यता चली आ रही है। इस कलियुग में भारतीय सभ्यता का इतिहास 5000 वर्ष से कुछ पूर्व तक का ज्ञात है। इस दीर्घ काल में भारतवर्ष के समाज एवं सामान्य जीवन में निश्चय ही अनेक परिवर्तन आए होंगे। तथापि मानवीय जीवन के आधारभूत आयामों और अनेक सहज-साधारण आयामों में भी भारतवर्ष काआज का जीवन उन्हीं विश्वासोें, आदर्शों, विचारों, संस्थाओं एवं प्राथमिकताओं के अनुरूप चलता दिखता है जो भारतीय सभ्यता के अत्यंत प्राचीन काल में स्थापित हो गई थीं और जिनका भारतीय सभ्यता के मौलिक साहित्य में विशद विस्तार से सग्रह एवं वर्णन हुआ है।

भारतीय सभ्यता के इन मूलभूत विश्वासों, आदर्शों, विचारों, संस्थाओं एवं प्राथमिकताओं का ही नाम सनातन धर्म है। प्राचीनकाल से भारत में आने वाले विदेशी विद्वान एवं इतिहासविद विस्तीर्ण भारतभूमि की भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं भाषायी विविधता के मध्य व्याप्त सभ्यतागत एकरूपता को देखकर आश्चर्यचकित होते रहे हैं। भारतवर्ष की इस एकरूपता का आधार सनातन धर्म में निहित है। और सनातन धर्म का मूल विश्वास यह है कि इस जगत में जो कुछ है वह सब-का-सब एक परमात्मा की विभिन्न रूपात्मक अभिव्यक्ति है, इस सबके रूप में स्वयं ब्रम्ह व्यक्त हो रहा है, स्वयं ब्रम्ह इस सबमें व्याप्त है। अतः सृष्टि के समस्त भाव पूजनीय-पोषणीय हैं, प्रकृति एवं मानव समाज में पायी जाने वाली समस्त विविधता का सम्मान, संरक्षण एवं पोषण करना मानव का कर्तव्य है।

भारत की परंपरा में वैविध्य का जो सम्मान रहा है, उसी का परिणाम है कि यहां मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियां हासिल की गईं। हमने अपने प्राकृतिक संसाधनों एवं मानवीय क्षमताओं का उपयोग करते हुए न केवल अपने लिए बल्कि संपूर्ण मनुष्यता के लिए प्रगति के नए-नए मानदंड स्थापित किए। अपने मूल स्वरूप में भारतीय सभ्यता दुनिया की समृद्धतम अर्थव्यवस्था थी। विशेष भौगोलिक स्थिति और अपार जैव विविधता वाले इस देश में सही वितरण और संयमित उपभोग, विकास का अभौतिक आयाम और मूल्यबोध, सत्ता और संस्कार का उचित समन्वय, समृद्धि और संस्कृति का मेल 8एवं ममता और मुदिता की दृष्टि हुआ करती थी। इसी सबसे भारत की चमक पूरे विश्व में फैलती थी। यहां जल, जंगल, जमीन और जानवर का मेल अन्योन्याश्रित था। और इसी मेल के आधार पर समाज जीवन की रचना होती थी। आध्यात्मिक एवं दार्शनिक क्षेत्रों में भारत के लोगों की अनन्य उपलब्धियों की चर्चा प्रायः होती है। लेकिन इतिहास गवाह है कि भौतिक एवं तकनीकी क्षेत्रों में भी भारतीय उपलब्धियां वैसी ही शानदार थीं। कृषि, सिंचाई, धातुविज्ञान, वस्त्र उत्पादन, आयुर्वेद आदि के क्षेत्रों में भारत के लोगों ने जो उपलब्धियां हासिल कीं, उनकी तत्कालीन विश्व में कहीं और मिशाल नहं मिलती।

भारत वह देश है जहां भाषा की सर्वप्रथम उत्पत्ति हुई। ऋग्वेद दुनिया का प्रथम रचित साहित्य है। संस्कृत समस्त यूरोपीय भाषाओं की जननी है, इसे सभी भाषाशास्त्री स्वीकार करते हैं। जिसे नेवीगेशन शब्द का आज पश्चिमी विश्व इस्तेमाल करता है उसका जन्म संस्कृत के नवगहित शब्द से हुआ है। पृथ्वी सूरज के चारों ओर एक चक्कर लगाने में ठीक-ठीक कितना समय लेती है, भास्कराचार्य ने इसकी सही-सही गणना काफी पहले ही कर दी थी। दुनिया को गिनना भारत ने सिखाया और आर्यभट्ट ने शून्य की अवधारणा दी। मिश्र और रोमन संस्कृति में सबसे बड़ी गिनती 106 तक की हो सकती थी। जबकि भारत में बहुत पहले से ही 1053 तक की गिनती गिनी जा रही थी। हर संख्या को उसका अलग-अलग विशिष्ट नाम दिया जा चुका था। बीजगणित, त्रिकोणमिति, ज्यामिति आदि विधाओं का आविष्कार भारत में हुआ। दशमलव प्रणाली और अंकों के स्थान का महत्व भारत के गणित से निकला और जब दुनिया के अधिकांश लोग खानाबदोशों की जिंदगी जी रहे थे, तब भारत में सिंधु घाटी में एक संपूर्ण संगठित सभ्यता विकसित हो गई थी। इसके प्रमाण आज किताबों में ही नहीं बल्कि भौतिक रूप में भी हमारे सामने हैं। जब दुनिया स्वर से परिचित तक नहीं थी, इस देश में सामवेद के गीत गाए जाते थे।

महर्षि अरविंद ने भारत के प्राचीन वैभव को बड़े अच्छे ढंग से व्यक्त किया है। वे लिखते हैं, ‘‘जब हम भारत के अतीत को देखते हैं तब जो हमारा ध्यान आकर्षित करती है, वह है उसकी विलक्षण ऊर्जस्विता, उसके जीवन और जीवन के आनंद की असीम शक्ति, उसकी प्रायः कल्पनातीत भरपूर सृजनशीलता। कम से कम तीन हजार वर्षों से- वस्तुतः और भी लंबे समय से- वह प्रचुरता से और निरंतरता से, खुले हाथों, अनंत बहुपक्षीयता के साथ सृजित कता आ रहा है, गणतंत्रों, राज्यों और साम्राज्यों को, दर्शनों को, सृष्टि-मीमांसाओं को और विज्ञानों को और पंथों को और कलाओं को और कविताओं को और हर प्रकार के स्मारकों, राजमहलों और मंदिरों ओर लोक निर्माणों, समुदायों, समाजों और धार्मिक व्यवस्थाओं को, कानूनों और संहिताओं और अनुष्ठानों को, भौतिक विज्ञानों, मनोविज्ञानों, योग की प्रणालियों, राजनीति और प्रशासन की पद्धतियों, आध्यात्मिक कलाओं, सांसारिक कलाओं, व्यापारों उद्योगों, ललित हस्तकलाओं की-सूची अनंत है और प्रत्येक मद में प्रायः क्रियाशीलता का बाहुल्य है। वह सृजन करता ही जाता है, करता ही जाता है और न संतुष्ट होता है, न थकताा है; वह उसका अंत नहीं करना चाहेगा, आराम करने के लिए स्थान की आवश्यकता भी नहीं लगती, न आलस्य अथवा खाली पड़े रहने के लिए समय की। वह अपनी सीमाओं के बाहर भी विस्तार करता है; उसके जहाज महासागर पार करते हैं और उसकी संपदा का उत्तम अतिरेक छलक कर जूडेआ, मिश्र और रोम पहुंचता है; उसके उपनिवेश, उसकी कलाओं, उसके महाकाव्यों और उसके पंथों को आर्चिपैलेगो में प्रसारित कर देते हैं; उसके चिन्ह मैसोपोटामिया की रेतों में पाये जाते हैं; उसके धर्म चीन और जापान को जीत लेते हैं और पश्चिम की दिशा में फलस्तीन और सिकंदरिया तक फैल जाते हैं, और उपनिषदों के स्वर तथा बौद्धों की उक्तियां ईसामसीह के ओठों पर पुनः गुंजरित हो उठते हैं। सर्वत्र, जैसी उसकी मिट्टी में, वैसी ही उसके कामों में भरपूर जीवन ऊर्जा की अति-विपुलता है।…’’

यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि अपने हजारों साल के ज्ञात इतिहास में भारत ने किसी दूसरे देश पर कभी कोई हमला नहीं किया। उसने किसी दूसरी सभ्यता को दबाने के लिए या उस पर बलपूर्वक अधिकार करने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किया। इसके बावजूद भारत का विस्तार केवल हिमालय और हिंद महासागर के बीच स्थित भू-भाग तक सीमित नहीं रहा। भारत का दुनिया में जो विस्तार हुआ, वह राजनैतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक था। अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत ह्यू शिह इस सांस्कृतिक विस्तार की अभ्यर्थना करते हुए कहते हैं:‘‘भारत ने चीन में एक भी सैनिक नहीं भेजा। खून का एक भी कतरा नहीं बहाया। किसी की आंखों में आंसू की एक भी बूंद नहीं डाली। फिर भी चीन दो हजार साल तक उसके प्रभाव में रहा।’’

अतीत में भारत की जो उपलब्धियां रही हैं उसको विश्वभर के विद्वानों ने स्वीकार किया है। आईस्टाइन ने कहा है, ‘‘मानवता के विकास में भारत के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उसने दुनिया को गिनना न सिखाया होता तो आज ये खोज और अविष्कार न हुए होते।’’भारत मनुष्यता की एक अनमोल धरोहर है। इसने दुनिया में सोचने-समझने वाले सभी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है। मार्कट्वेन ने जब भारत को जाना तो उसके मुंह से केवल यही शब्द निकले:

‘‘मानवता भारतरूपी पालने में फली-फूली है। मनुष्य को वाणी यहीं से मिली है और मनुष्य का इतिहास भी यहीं से निकला है। गाथाओं की तो भारत दादी रहा है और परंपराओं के मामले में दादी की भी मां। मनुष्यता की सारी रचनात्मक धरोहरें भारत में ही हैं।’’भारत के बारे मं देशी-विदेशी विद्वानों का मैंने जो उद्धरण दिया है और प्राचीन भारत की तमाम उपलब्धियों का उल्लेख किया है, उसका उद्देश्य यह नहीं कि हम अहंकार के वशीभूत हो जाएं और शेष विश्व की उपलब्धियों को नकारने लगें। मेरा उद्देश्य बस यह विश्वास दिलाना है कि हमारी यह धरती श्रेष्ठ उपलब्धियों की धरती रही है। यदि अतीत में हमने इतना कुछ हासिल किया था, तो आज भी कर सकते हैं। हमारे पूर्वजों के पास जो कुछ था, ईश्वर ने वह सबकुछ हमें भी दिया है। जरूरत बस उसे पहचानने की और अपने ऊपर विश्वास करे की है। हम इतिहास का पहिया एक बार फिर अपने पक्ष में घुमा सकते हैं।

‘व्यवस्था परिवर्तन की राह’ पुस्तक से

 

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