मेरा जन्म मध्य प्रदेश के सरगुजा जिले में स्थित एक बड़े कस्बे रामानुजगंज में हुआ। उस समय रामानुजगंज बिहार की सीमा पर था। वर्तमान भौगोलिक स्थिति में हमारा शहर झारखंड की सीमा पर छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले का सबसे बड़ा कस्बा है। मेरा जन्म अग्रवाल वैश्य परिवार में हुआ। लेकिन 13 वर्ष की उम्र में ही आर्य समाज के माध्यम से मुझे ब्राह्मण घोषित करके मेरा नाम पंडित बजरंग लाल कर दिया गया। मैं पूजा-पाठ भी कराने लगा। धीरे-धीरे मैं वैचारिक धरातल पर राम मनोहर लोहिया से प्रभावित हुआ। लेकिन राजनीतिक धरातल पर में भारतीय जनसंघ के साथ जुड़ गया। मैंने ब्राह्मण होने के आधार पर जीवन भर अहिंसा और सत्य का पालन किया। यहां तक कि जनसंघ में उच्च अधिकारी होते हुए भी मुझे क्षेत्रीय गांधी के रूप में माना जाता था।
रामानुजगंज के आसपास के दो-तीन विधानसभा क्षेत्रों में मेरा अच्छा प्रभाव था। मेरे प्रभाव से रामानुजगंज में यह नियम बनाया गया कि शहर के लोग किसी भी परिस्थिति में हिंसा का सहारा नहीं लेंगे। यह भी नियम बना कि हम न कभी कोई सरकारी कानून तोड़ेंगे, न शहर में कोई हड़ताल, चक्का जाम या आंदोलन होगा। इस तरह रामानुजगंज शहर की देश भर में एक अलग पहचान बन रही थी। मैं राजनीतिक रूप से जनसंघ के साथ तथा आंदोलन के रूप में जयप्रकाश जी के साथ जुड़ा। लेकिन आंदोलन में जुड़ने के बाद भी हमारे क्षेत्र में किसी प्रकार की हड़ताल या चक्का जाम का सहारा नहीं लिया गया। ऐसे शांतिपूर्ण वातावरण में एकाएक 26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी गई। मैं और मेरे सभी साथी इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि इस आपातकाल का हम लोगों पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन एकाएक 26 जून को ही मुझे बताया गया कि आपके पूरे क्षेत्र में प्रतीक स्वरूप आपको गिरफ्तार किया जाएगा।
मैं फरार होकर झारखंड चला गया। लेकिन परिवार पर बहुत दबाव पड़ने के कारण एक महीने के बाद ही मैंने अंबिकापुर जेल में खुद को गिरफ्तार करा दिया। मैंने जेल जाते ही देखा कि वहां कोई शौचालय नहीं है। शौच के लिए सब लोग एक लाइन में बैठते थे। दो लोगों के बीच में दो फीट की एक दीवार होती थी, जिसके सामने कोई पर्दा नहीं होता था। शौच भी नाली में ही बहा दिया जाता था। भोजन का सामान भी बिना साफ किए ही दे दिया जाता था। दाढ़ी बनाने के लिए भी कोई सुविधा नहीं थी। लेकिन एक-डेढ़ महीना बीतते-बीतते इन सभी सुविधाओं में बदलाव किया गया। कुछ तो मीसा बंदियों के दबाव या जेल अधिकारियों की सोच बदलने से यह बदलाव हुआ। यह बात मैं नहीं कह सकता। लेकिन दो-तीन महीने बीतते-बीतते जनसंघ के एक बड़े नेता को जगदलपुर ट्रांसफर करने के लिए बल प्रयोग की शुरूआत हुई। इस पर मीसा बंदियों ने मोर्चा संभाल लिया और कुछ अन्य कैदी भी साथ जुड़ गए।
सरकार की तरफ से भी गोली चलाने की तैयारी कर ली गई थी। लेकिन मेरे जैसे कुछ साथियों के बीच-बचाव करने पर उस टकराव को टाल दिया गया। कुछ समय बाद बीमार होने के कारण इलाज के लिए मुझे रायपुर भेज दिया गया। रायपुर जेल में कई सौ मीसा बंदी थे। वहां की जेल में कम्युनिस्ट भी थे। मुस्लिम लीग के लोग भी थे और संघ के लोग तो थे ही। रायपुर जेल में कई बड़े अपराधी भी हम लोगों के साथ मित्रवत व्यवहार करते थे। यहां तक कि हम लोग एक साथ खेलते भी थे। लेकिन एक दिन जेल प्रशासन और एक मीसा बंदी के बीच टकराव हुआ। हम सब लोगों को अपनी-अपनी अलग-अलग बैरकों में बंद कर दिया गया। हर बैरक में फिर ताला खोलकर मीसा बंदियों पर लाठीचार्ज किया गया। जेल प्रशासन ने मीसा बंदियों को गंभीर चोट पहुंचाने की हरसंभव कोशिश की।
मेरी बैरक में लाठीचार्ज का नेतृत्व जो कैदी कर रहा था, वह प्रतिदिन मेरे साथ खेलता भी था। लेकिन पिटाई करने में उसने मेरे साथ कोई रियायत नहीं की। यहां तक कि मेरे हाथ की एक उंगली टूट गई। मैं दर्द से कराहने लगा। यह अवश्य है कि दो घंटे के बाद सारा मामला शांत हो गया। डॉक्टरों ने आकर हम घायलों का इलाज किया। अंबिकापुर जेल में कुल मिलाकर मैं 15 महीने रहा और बीच के कालखंड में तीन महीने रायपुर में रहा। मेरा अनुभव यह है कि जेल में जो कच्चा अनाज मिलता था, वह हम लोगों के जीवन के लिए पर्याप्त था। यद्यपि जेल के प्रत्येक कैदी के लिए 525 ग्राम अनाज निर्धारित था। लेकिन हम लोगों को 390 ग्राम मिलता था। इतनी कम मात्रा होते हुए भी कभी अनाज की कोई कमी नहीं हुई। इस तरह मैं यह कह सकता हूं कि कोई भी व्यक्ति जेल में जीवन भर बड़े आराम से रह सकता है। मैं जब रायपुर जेल में था तो मेरे ठीक बगल में बाबा बिहारी दास उर्फ कंठी वाले बाबा भी मीसा में बंद थे।
उनकी कहानी यह थी कि जब सरकार ने बस्तर के आदिवासी राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या कर दी तो उसके कुछ वर्ष बाद एक साधु ने खुद को प्रवीर चंद्र भंजदेव का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। बस्तर के आदिवासी इस बिहारी दास नामक साधु को ही प्रवीर चंद्र भंजदेव मानने लगे। इन बिहारी दास ने वहां के आदिवासियों को यह बात समझाई कि भंज देव जी का यह निर्देश है कि तुम शराब-मांस पीना-खाना छोड़ दो। तुम राम और कृष्ण का भजन करो। हमें आदिवासियों की सब बुराइयों को छोड़ देना चाहिए। हम हिंदू हैं। हम सब लोग हिंदुत्व की पहचान के लिए कंठी धारण करें। बहुत तेज गति से वहां के आदिवासियों में इस धारणा का भंजदेव के नाम से प्रचार हुआ। इससे सरकार डर गई। सरकार ने यह तर्क दिया कि कंठी वाले बाबा के प्रयत्नों के कारण आदिवासी संस्कृति खत्म हो रही है। हिंदू संस्कृति का विस्तार हो रहा है। यह उचित नहीं है। इसलिए इसी आधार पर बाबा बिहारी दास को जेल में बंद किया गया था। लाठीचार्ज के दिन बाबा बिहारी दास को भी चोट आई थी।
दोनों ही जिलों में जेल अधिकारियों एवं कर्मचारियों का हम लोगों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार था। जेल अधिकारी भी समझते थे कि हम लोग निर्दोष हैं और अच्छे सम्मानित लोग हैं। लेकिन वे अपनी मजबूरी भी कभी-कभी बताया करते थे। यहां तक कि जेल अधिकारियों पर कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेता दबाव भी डालते थे तो बेचारे उनके सामने झूठ बोलने को मजबूर हो जाते थे। लेकिन फिर भी अधिकारियों का व्यवहार अच्छा था। कभी-कभी तो वे नियम-कानून से हटकर मुफ्त रूप से रियायत दे दिया करते थे। 18 महीने बाद एकाएक चुनाव की घोषणा हुई। हम लोग जेल से छोड़ दिए गए। लेकिन बाहर का वातावरण ऐसा बना हुआ था कि कहीं भी एक भी क्षेत्र से चुनाव जीतने की कोई संभावना नहीं थी। मैं स्वयं भी तत्काल सक्रिय होने की हिम्मत नहीं कर सका। यह अलग बात है कि 15 दिनों के बाद ही धीरे-धीरे वातावरण बदलने लगा।
फिर भी मतदान समाप्त होने तक अपनी सीट छोड़कर किसी दूसरी सीट के जीत लेने का कोई अनुमान नहीं था। मैं स्पष्ट हूं कि उस समय जो चुनाव जीत गया, वह चुनाव राजनीतिक दलों ने नहीं जीता। न किसी के प्रयत्न से जीत-हार हुई। बल्कि सीधा-सीधा भारत की आम जनता और इंदिरा गांधी के बीच मतदान हुआ, जिसमें इंदिरा गांधी हार गईं।
(राकेश कुमार से बातचीत पर आधारित)