गुजरात की पगडंडी

रामबहादुर राय

यूरोप-अमेरिका में जो लोकतंत्र है, वह उनकी राजनीति और जीवन रीति में है। वहां के  राजनीतिज्ञ भारत के लोकतंत्र को अपने चश्मे और दृष्टिकोण से शुरू से ही देखते रहे हैं। वे अपनी भविष्यवाणी से भी बाज नहीं आते। यह बात अलग है कि शायद ही कभी भारत के भविष्य संबंधी उनकी दृष्टि और उससे उत्पन्न निष्कर्ष सटीक साबित हुए हों। दूर जाने की जरूरत नहीं है। 1950 का दशक भारत में पुनर्निर्माण की चेतना के प्रवाह का था। लेकिन यूरो-अमेरिकी विद्वान भारत के उस दशक को शुरू से ही खतरनाक बताते रहे। सेलिग एस. हेरिसन की पुस्तक, ‘दी मोस्ट डेंजरस डिकेड्स’ को इसका एक छोटा प्रमाण मानना चाहिए। हम जानते हैं कि वे गलत साबित हुए। इसका यह अर्थ नहीं है कि उस दशक में सब कुछ पटरी पर ही चला हो। भारत ने संसदीय राजनीति की राह 1937 में ही अपना ली थी। उसे ही पांचवें दशक में स्वतंत्र भारत ने प्रयोगात्मक रूप में पुनः नए रंग-ढंग और वातावरण में बढ़ाया। उससे एक सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वभाव नागरिकों का बनने लगा।

इस नए स्वभाव निर्माण में स्वाधीनता संग्राम के सपने थे। लेकिन स्वाधीन भारत का यथार्थ भी कदम-कदम पर सामने आता रहा। राजनीतिक नेतृत्व ने संसदीय जीवन की आधारशिला पर कुलीन लोकतंत्र का ढ़ाचा बनाया। जिससे प्रतिस्पर्द्धा की चौड़ी पट्टी पर लंबी दौड़ की सत्ताभिमुख राजनीति उभरी। जो अपने अंतरविरोधों के कारण अराजक बनती गई। वह मिश्रण का दौर था। अर्थव्यवस्था मिश्रित थी। जाति, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्रीय विषमता और सामाजिक न्याय के प्रश्नों को प्रतिस्पर्द्धा की राजनीति से सत्तारूढ़ पक्ष संतुलित करता रहा। जो साधना पड़े वह अधिक देर तक नहीं टिकता। इसलिए छठे दशक के मध्य से गंभीर प्रकृति के राजनीतिक संकट उभरने लगे। इसके कारणों का उल्लेख और विश्लेषण यहां अनावश्यक है।

यह जानना आवश्यक है कि सातवें दशक की शुरूआत में ही जिन संकटों को पहचाना गया उनकी जड़ें पिछले दशक में ही मजबूत होने लगी थी। उस समय दो प्रश्न प्रमुख थे। राजनेता और बुद्धिजीवी समान रूप से इन प्रश्नों पर चिंतित भी थे। वे बोलने लिखने और समझाने के प्रयास में सक्रिय हुए। एक, क्या संसदीय लोकतंत्र जिस रूप में है वह भारत के लिए उपयुक्त है? दो, राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना हो तो कैसे हो? स्पष्ट है, इन दोनों प्रश्नों पर आम सहमति सी थी। इन प्रश्नों को उठाने का तरीका हर का अपना था। मौलिक चिंतन की दृष्टि से देखें तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय और जयप्रकाश नारायण का उस समय का लिखा-पढ़ा और बोला हुआ आज पहाड़ों में हिमालय की चोटी जैसा दिखता है।

स्वतंत्र भारत के उस दौर को एक शब्द से शायद ही कोई परिभाषित कर सकेगा। ऐसा जो कर सकेगा वह एक असंभव कार्य को संभव बनाने में समर्थ माना जाएगा। सच तो यही है कि प्रतीक के लिए कई शब्द चुनने की आवश्यकता है। तभी उस दौर के कुछ लक्षण शब्दचित्र में उभारे जा सकते हैं। वे हैं, उद्वेग, उत्तेजना, अवसाद, असंतोष, सीधी कारवाई, संघर्ष, उत्पात और आंदोलन। साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी एक कविता में उस दौर को अराजकता का पयार्य बताया। ये शब्द लक्षणों के हैं। जो तरह-तरह के आंदोलनों में प्रकट हो रहे थे। उन आंदोलनों का एक लक्ष्य होता था। सरकार को उखाड़ देने के इरादे से वे आंदोलन शुरू होते थे। उसे उचित ठहराया जाता था। इसका अर्थ यह हुआ कि पढ़े-लिखे लोग अर्थात विद्वान लोग उसे राजनीति शास्त्र की भाषा में तर्कपूर्ण बनाते थे।

सीधी कारवाई अंतिम अस्त्र होता था। उससे पहले पीड़ित समुदाय अपनी आवाज उठाता था। उसे जब अनसुना किया जाता था तो ज्ञापन देना दूसरी सीढ़ी होती थी। उससे कुछ उम्मीद भी होती थी। पहली यह कि पीड़ित समुदाय समझता था कि हमने उचित जगह अपनी बात पहुंचा दी। वह प्रतीक्षा करता था। प्रतीक्षा लंबी हुई तो उस समुदाय में असंतोष और उत्तेजना की मनोग्रंथि से रिसाव शुरू होता था। वही सीधी कारवाई का कारण होता था। सीधी कारवाई अर्थात आंदोलन। इसमें हिंसा और अहिंसा की बहस हमेशा बेमानी रहती है। सीधी कारवाई के दो लक्ष्य होते थे और जब कभी सीधी कारवाई होती है तो ये ही दो लक्ष्य प्रमुख रूप से सामने रहते हैं। पहला लक्ष्य सरकार को झुकाना होता है और अपनी कुछ बातें उससे मनवा लेना होता है। इसमें सफलता मिल गई तो आंदोलन अल्पकालीन होता है। वह सफल भी माना जाता है। नहीं तो फिर दूसरा उपाय आंदोलनकारी अपनाते हैं। वे सरकार को अस्थिर करने में लग जाते हैं। इसी कोशिश में सरकार को उखाड़ फेकने का विचार भी जन्म लेता है और वह कभी सफल होता है अगर नहीं होता तो वह सदा सपने में बना रहता है।

गुजरात के छात्र आंदोलन ने पहला उपाय अपनाया और उसे सफलता मिली। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सफल छात्र आंदोलन की वह एक यादगार घटना है। बात 1973 के अंत की है। महंगाई की मार भारत के पश्चिमी छोर पर एक अंगारे की तरह पहुंची। वह छात्र आंदोलन की ज्वाला बनी। जिसकी उंची लपटो में पूरा गुजरात दो महीने झुलसता रहा। अगर ठीक-ठीक कहें तो गुजरात का वह छात्र आंदोलन कुल 73 दिन चला। कोई ऐसा छोटा-बड़ा नगर नहीं था जो आंदोलन की आंच में न आया हो। वह आंदोलन छोटी सी मांग से शुरू हुआ। लेकिन उस मांग की पीड़ा अत्यंत घनीभूत थी। अहमदाबाद के एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज के होस्टल में रहने वाले छात्रों की मेस फीस अचानक बढ़ा दी गई। जिन्हें हर माह 85 रूपया देना पड़ता था, उन्हें बढ़ी हुई फीस 120 रूपए चुकाने का आदेश मिला। वह विस्फोट का कारण बना।

क्योंकि ज्यादातर छात्रों को बढ़ी हुई फीस देना उनके बूते से बाहर था। छात्रों ने अपनी पीड़ा सुनाई लेकिन उसे अनसुना कर दिया गया। विस्फोट इसीलिए हुआ। छात्रों ने 20 दिसंबर, 1973 को इंजीनियरिंग कॉलेज के रेक्टर पर धावा बोला। उनके फर्नीचर वगैरह को आग लगा दी। वह अगर अकेली घटना होती तो एक कॉलेज के आंदोलन की कहानी बन जाती। उसे इतिहास में ज्यादा कोई याद नहीं करता। लेकिन वह तो शुरूआत थी। दूसरी घटना मोरवी इंजीनियरिंग कॉलेज में हुई। वहां भी वही सब दोहराया गया। एक बात और हुई। रेक्टर की छात्रों ने धुनाई कर दी। फिर पुलिस आ गई। पुलिस ने छात्रों को बुरी तरह पीटा। कुछ तो बहुत अधिक जख्मी हुए। पुलिस की बर्बरता से छात्र आंदोलन दावानल बनता चला गया।

 गुजरात के छात्रों पर पुलिस की कहर ने समाज के दूसरे वर्गों में भी आंदोलन के प्रति सहानुभूति जगाई। जो कुछ दिनों में ही सक्रिय सहयोग का रूप लेती गई। शुरू में छात्रों ने एक युवक समिति बनाया था। जिसे विश्वविद्यालय के अध्यापकों ने समर्थन दिया। पुलिस बर्बरता से आंदोलन का विस्तार होता चला गया। 7 जनवरी, 1974 एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। उस दिन सैकड़ों छात्र एकत्र हुए और अपनी आठ मांगों का ज्ञापन बनाया। जिसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का पूरा समर्थन प्राप्त हुआ। यही एक मात्र छात्र संगठन था, जिसका राज्यव्यापी एक संस्थात्मक ढांचा था। उन्हीं दिनों में जनसंघ ने उस आंदोलन को महंगाई विरोधी आंदोलन में बदलने के लिए कुछ कार्यक्रमों की घोषणा की। अगला कदम था, विद्यार्थी कर्फ्यू।

जिसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ। छात्र आंदोलन में दूसरा मोड़ उस दिन आया जब पुरूषोत्तम मावलंकर आंदोलन में कूदे। वे कुछ महीने पहले ही जनसंघ और संगठन कांग्रेस के सहयोग से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में एक उपचुनाव में लोकसभा सदस्य चुने गए थे। लोकसभा के पहले स्पीकर के वे पुत्र थे। प्रोफेसर थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए मशहूर हो चुके थे। उन्होंने ही पहली बार अपने एक भाषण में कहा कि चिमन भाई पटेल के मुख्यमंत्री काल में भ्रष्टाचार बढ़ा है। उनका यह भी आरोप था कि चिमन भाई पटेल स्वयं भी भ्रष्ट हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि कांग्रेस अगर उन्हें नहीं हटाती तो उससे जनता का भरोसा उठ जाएगा। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति भी आंदोलन में मदद कर रही थी। वह क्या थी? उस पर इन दिनों रिजवान कादरी शोध कर रहे हैं।

पुरूषोत्तम मावलंकर की सभा 11 जनवरी को थी। उनकी और एक पत्रकार की ही सलाह पर आंदोलन में नई संस्था बनी। वह थी, नवनिर्माण युवक समिति। उस समिति ने अपनी एक सलाहकार समिति बनाई। पुरूषोत्तम मावलंकर उसके अध्यक्ष बनाए गए। लेकिन छात्र आंदोलन से उनका संबंध मात्र चार दिनों का ही रहा। उन्होंने यह कहकर इस्तीफा दे दिया कि उनसे सलाह किए वगैर समिति ने आंदोलन की अगली योजना घोषित कर दी। जो भी हो, मावलंकर के कारण गुजरात का छात्र आंदोलन नवनिर्माण आंदोलन कहलाया। आंदोलन के उसी चरण में जयप्रकाश नारायण (जेपी) गुजरात पहुंचे। उन्होंने आंदोलन को लोकतंत्र के बड़े प्रश्नों से जोड़ा। उनका कहना था कि ‘लोकतंत्र का आधार नैतिकता है। लेकिन आज स्थिति यह है कि लोकतंत्र अपना नैतिक आधार खो चुका है।’ जेपी के वहां पहुंच जाने मात्र से आंदोलन को नैतिक बल मिला। मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल पर इस्तीफे का जन दबाव बढ़ने लगा। आंदोलन में हिंसा और अहिंसा का प्रश्न गौण था। मुख्य प्रश्न था कि सरकार लोगों की भावनाओं का आदर करती है या नहीं।

स्वतंत्र भारत की छात्र राजनीति को गुजरात से एक पगडंडी मिली। इस कारण भी उस छात्र आंदोलन को मील का एक पत्थर समझा जाता रहेगा। आंदोलन के चरण में छात्रों ने शिक्षामंत्री से इस्तीफा मांगा। उससे पहले गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष को ज्ञापन सौंपा। मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल से मिलकर अपनी मांगों पर बात करने की कोशिश की। उसमें सफलता नहीं मिली। तब छात्रों ने नारा लगाया, ‘चिमन चोर, गद्दी छोड़ों।’ वह नारा रंग लाया। अंततः 7 फरवरी, 1974 के पहले सप्ताह में चिमन भाई पटेल ने जन दबाव में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया। वे गुजरात के लोगों की नजर में भ्रष्टाचार और जनविरोधी राजनेता बन गए थे। उनके इस्तीफे से छात्र आंदोलन की जीत हुई। नवनिर्माण आंदोलन की मंजिल तो दूर ही रही, लेकिन उसे एक ठिकाना अवश्य मिल गया। उसे नवनिर्माण का पड़ाव कहना चाहिए। उस पड़ाव से पुनः यात्रा कब होगी, क्या यह कोई आज पूछ भी रहा है!

 

 

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