स्थितियां बदलीं, इरादे नहीं

शंकर शरण

तबलीगी जमात और इस्लामी इतिहास के सारे विवरण यही दिखाते हैं कि आज स्थितियां बदल गई हैं, मगर इरादा वही है। काफिरी और काफिरों को खत्म करना, और पूरी दुनिया में इस्लाम का कब्जा बनाना। जमात का उद्देश्य हर कहीं ऐसे मुसलमान तैयार करना है ,जो मौका मिलने पर हथियार उठाकर वही कर सकें। हर चीज में प्रोफेट मुहम्मद के अनुकरण का यही अर्थ है।

प्रो. बारबरा मेटकाफ के अनुसार, तबलीग का मॉडल वही आरंभिक काल वाला जिहाद है। तबलीगी जमात के प्रमुख की ‘अमीर’ वाली पदवी भी उसी का संकेत है। ‘अमीर’ सैनिक-राजनीतिक कमांडर होता था, न कि कोई शिक्षक। अतः जमात की टोलियों की यात्रा कोई प्रचारक दल नहीं, बल्कि गश्ती (‘पेट्रोलिंग’) दस्ते जैसी चीज है। इस में किसी इलाके की निगरानी, उस के प्रति रणनीति, आदि बनाना उद्देश्य है। याद करें, हाल में सीरिया-ईराक में ‘इस्लामी स्टेट’ (2014) घोषित करने वाले अल-बगदादी ने भी अपने लिए ‘अमीर’ की पदवी ही रखी थी।  

आश्चर्य यह है कि सारा इतिहास और वर्तमान सार्वजनिक रूप से प्रकाशित रहने के बावजूद हिन्दू नेता और संगठन इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार, जमातें, और विशेषकर काफिरों के प्रति उन की नीति (राजनीतिक इस्लाम) के बारे में घोर अंधेरे में रहते हैं। तभी तो मौलाना वहीदुद्दीन के आशीर्वाद से शुरू कराए गए मंच जैसा ही एक और संगठन ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ बना कर वही अंधेरा और अधिक फैलाने का काम किया जा रहा है। जबकि इतिहासकार सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक ‘स्टॉक टेकिंग…’ (1997) में मौलाना वहीदुद्दीन और ‘राष्ट्रवादी’ मुसलमानों वाली प्रवंचना पर चेतावनी भी दी थी। पर आत्म-मुग्ध हिन्दूवादियों ने उस की उपेक्षा की। फलतः उन के दोनों मंच मुसलमानों को मानवीय नैतिकता की ओर लाने के बदले उलटे मुहम्मदी नैतिकता को ही श्रद्धा-सुमन चढ़ाकर इस्लामी कट्टरता को धार देने का काम करते हैं। 

वस्तुतः हिन्दू नेताओं की समस्या यह है कि वे ज्ञान, काम, और वास्तविकता के बदले सदैव व्यक्ति, भंगिमा, और दिखावे को महत्व देते हैं। इसीलिए वे वहीदुद्दीन जैसे मुस्लिमों के मृदु व्यवहार और कपटी शब्दजाल से मोहित होते हैं। जबकि ऐसे मुस्लिम उग्र कट्टरपंथी मौलानाओं से ज्यादा खतरनाक हैं। क्येकि इन्होंने मूल इस्लाम की दोहरी नैतिकता और छद्म का जमकर प्रयोग किया। जगह और समूह देख कर अलग-अलग तरह की बातें करना। इसी के सधे उपयोग से नानाजी देशमुख, के.आर. मलकानी, और दत्तोपंत ठेंगेड़ी जैसे संघ परिवार के बड़े-बड़े नेता वहीदुद्दीन पर लट्टू होते रहे। 

फिर, तबलीगी जमात की सफलता में उस की कटिबद्धता का भी बड़ा हाथ है। उस के नेता आत्म-प्रचार, आत्म-प्रशंसा और पदों-कुर्सियों के फेर में कभी न रहे। लक्ष्य के सामने उन्होंने अपने संगठन या नेता के नामो-शोहरत की कभी परवाह न की। साथ ही, इस्लाम के प्रति हिन्दू नेताओं, बौद्धिकों के घोर अज्ञान का चुपचाप दोहन किया। इसीलए तो एक पुलिस स्टेशन से लगा उन का अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय होने पर भी उन का काम बेखटके चलता है। विविध सत्ताधारी नेताओं में तबलीगी, देवबंदी नेताओं के प्रति आदर रहा है। मानो बकरों में कसाई के प्रति आदर-भाव हो! संघ-परिवार में मौलाना वहीदुद्दीन के प्रति ‘अपने’ आदमी वाला उत्साह और कैसे समझा जाए?

इतिहास की दृष्टि से यह जानना भी जरूरी है कि तबलीगी जमात वाली चिन्ता यहां बहुत पहले से मुस्लिम चिंतकों में रही थी। जैसा मौलाना इलियास और वहीदुद्दीन के अवलोकनों से भी प्रमाणित होता है, ग्रामीण भारत के आम मुसलमान सदियों तक हिन्दू रीति-रिवाजों से जुड़े रहे थे। जबरन, लाचारी, धोखे, आदि किसी भी तरह मुसलमान बना लिए जाने के बावजूद उन के पूर्वजों ने इस्लाम को मन से स्वीकार नहीं किया था। वह उन पर ऊपर से ओढ़ाए गए लबादे जैसा ही सीमित रहा था। इसीलिए सचेत मुसलमानों द्वारा उन्हें पक्का मुहम्मदी बनाने की कोशिशें पहले भी होती थीं। यह काफिरों का सौभाग्य था कि वे कोशिशें कभी अति-उत्साह, कभी जल्दबाजी, या दुस्साहस के कारण विफल होती रहीं। कभी आम मुसलमानों को अपने पूर्वजों की परंपराओं से जबरन विमुख करने, अथवा समय से पहले काफिरों के खिलाफ हथियार उठा लेने के कारण उन के प्रयास विफल होते रहे। इस में वे खुद मारे जाते रहे। सैयद बरेलवी और शाह मुहम्मद रमजान इस के उदाहरण हैं। 

लेकिन 1920 के दशक में जब जमीयत उलेमा ने तबलीग का काम फिर शुरू किया, तो मौका अनुकूल साबित हुआ। 1857 के जिहाद की विफलता के बाद उच्च वर्गीय मुस्लिमों ने अंग्रेज शासकों के प्रति वफादारी की नीति रखी थी। इस से उन्हें लाभ मिले। विशेषकर कांग्रेस के उभरने के बाद, अंग्रेजों ने हिन्दुओं के राजनीतिक जागरण के विरुद्ध मुसलमानों का उपयोग शुरू किया। यह बंग-भंग (1905-09) आंदोलन के दौरान साफ देखा गया। इस से मुस्लिम नेताओं में आत्मविश्वास बढ़ा।  

काफिरों के दुर्भाग्यवश, गाँधी द्वारा खलीफत आंदोलन (1919-24) में बेशर्त कूद पड़ने और कांग्रेस को भी उस में झोंक देने से मुस्लिम नेताओं को बहुत बड़ी और नये प्रकार की ताकत मिली। आखिर स्वयं गाँधीजी मुसलमानों के सर्वोच्च कमांडर खलीफा और प्रोफेट मुहम्मद का प्रचार कर रहे थे! यह हिन्दुओं के लिए मर्मांतक चोट साबित हुई।  

यह भारत में पहले कभी नहीं हुआ था कि किसी बड़े हिन्दू ने इस्लाम को ‘भद्र धर्म’ का तमगा दिया। तब तक भारत के हिन्दू राजाओं, विचारकों, संतों, शिक्षकों और आम जनगण के लिए इस्लाम वही था, जो वह वस्तुतः है! जिस का प्रत्यक्ष अनुभव, सदियों से, भारत के कोने-कोने में, विभिन्न प्रकार के मुस्लिम शासकों, सूफियों, सरदारों के हाथों, सभी हिन्दुओं को होता रहा था। पहली बार वह सब झुठलाकर, उस पर पर्दा डालकर, तमाम तरह की नकली बातें कह कर, महात्मा गाँधी ने इस्लाम को एक नया हथियार थमाया। ऊपर से, स्वामी दयानन्द को कोसते हुए मुसलमानों के बीच आर्य समाज के शुद्धि काम को बंद करवा दिया। 

तभी से, यानी पिछले सौ साल से, भारत के हिन्दू लोग मुस्लिम राजनीति के सामने एक विकट असहाय स्थिति में आ गए। उन्हें उन के अपने ही नेताओं, बौद्धिकों, लेखकों ने पक्के दुश्मन को आदर देने के लिए मजबूर करना शुरू किया। अब तक वे इस्लाम को कोसते थे, उस से लड़ने का अधिकार और हौसला रखते थे, जो भारतीय भाषाओं की कहावतों में अभी भी मिलता है। अब गाँधीजी ने हिन्दुओं को भ्रमित करके चुप रहने को मजबूर किया। फिर इतिहास को विकृत कर इस्लाम की इज्जत-आफजाई के लिए दबाव दिया। इस तरह गाँधी से शुरू होकर, फिर कांग्रेस, नेहरूवादियों, वामपंथियों द्वारा सत्ता बल से वही बार-बार दुहराने से यह शिक्षित हिन्दुओं के बीच एक स्थापित आत्मघाती परंपरा हो गई। यह कितना बड़ा हथियार इस्लामी नेताओं को अनायास मिला! जरा रुक कर इसे पूरी पृष्ठभूमि में समझना चाहिए।  

काफिरों द्वारा उन्हें धार्मिक-वैचारिक आदर देने के लिए मजबूर करने का यह नायाब हथियार भारत के मुस्लिम चिंतकों, नबावों, वादशाहों को भी पहले कभी हासिल नहीं था। यानी हिन्दुओं में इस्लामी मतवाद को एक आदरणीय धर्म-मत मानना। उसे हिन्दू धर्म के बराबर सम्मान। इस नये हथियार का इस्लामी नेताओं ने भरपूर फायदा उठाया। उन्होंने सचेत हिन्दुओं को नियमित फटकारना शुरू किया जो उस की आलोचना करते थे। यही स्वतंत्र भारत में ‘सेक्यूलरिज्म’ की आधिकारिक भाषा बनी, जो मूलतः महात्मा गाँधी की देन है। इस ने तबलीगी काम को नए सिरे से धार दी। यह तबलीगी नेताओं ने स्वयं खुशी से नोट किया है।

उसी हथियार से पूरी कांग्रेस को इस्लामी संगठनों, कार्यों, मदरसों, मकतबों, मरकजों, के प्रति सदैव झुकाए रखने में जमाते उलेमा ने बड़ी सफलता पाई। यह काफिरों (हिन्दुओं) की विडंबना है कि कांग्रेस ने ‘राष्ट्रवादी मुसलमान’ कह कर जिन्हें महिमामंडित किया, वे अधिकांश पक्के इस्लामी थे – मौलाना मौदूदी, मशरिकी, इलियास, अब्दुल बारी, आजाद, आदि। उन में से कइयों द्वारा मुस्लिम लीग की भारत-विभाजन मांग का विरोध करने के पीछे ताकत बढ़ा कर पूरे भारत पर कब्जे की मंशा थी। यह उन के द्वारा जिन्ना की आलोचना में जाहिर है। इसी को कांग्रेसियों ने ‘देशभक्ति’ कहकर ताली बजाई। वही परंपरा – इस्लाम को ‘महान धर्म’ और पक्के इस्लामियों को ‘राष्ट्रवादी’ कह-कह कर प्रसन्न होना – कांग्रेस की नकल में सभी दलों ने अपना ली। फिर भाजपा में तो हर चीज कांग्रेस से ‘बेहतर’ कर दिखाने की ललक है! 

ऐसी भ्रामक समझ के कारण ही भारत विभाजन के बाद केवल मौलाना मौदूदी ही पाकिस्तान गए। शेष सभी इस्लामी नेता यहीं रहे। यह संयोग न था। अलीगढ़, देवबंद, तबलीगी, आदि तमाम इस्लामी संस्थान वैसे ही बने रहने दिए गए। मानो भारत को खंड-खंड तोड़कर इस्लामी बनाने का रास्ता बनाए रखना ही सबसे पवित्र सिद्धांत हो!  उपनिषदों से लेकर विवेकानन्द तक के सिद्धांत उस से बहुत नीचे हों। यही कारण है कि मौलाना मौदूदी की बनाई हुई जमाते इस्लामी ने भारत में ‘सेक्यूलरिज्म’ को अपने लिए बेजोड़ उपहार (‘ब्लेसिंग’) कहा। प्रो. मुमताज अहमद के अनुसार, उस से ‘भारत में इस्लाम का भविष्य सुरक्षित होने की गारंटी’ हो गई। 

बंटवारे के पहले इस्लामी नेताओं ने इस की कल्पना भी नहीं की थी! उन्होंने सहज राजनीतिक व्यवहार से यही समझा था कि जब मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान बन रहा है, तो शेष भारत गैर-इस्लामी होगा। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व में मधुर, कपोल-कल्पनाओं, आरामदायक बातों का गाँधीवादी डोज इतना गहरा भर चुका था कि उन्होंने पिछले तमाम अनुभवों से कतई कोई सीख नहीं ली। आखिर, जब संपूर्ण इस्लामी सिद्धांत आदरणीय है, तो उस के व्यवहार पर माथापच्ची करने की क्या जरूरत! मूंदहु आँख कतहु कुछ नाहीं। इस से आरामदायक स्थिति किसी नेता के लिए क्या होगी? 

फलतः स्वतंत्र भारत में सभी इस्लामी जमातों के काम बेरोकटोक, बल्कि अतिरिक्त सुविधा से चलते रहे। वे मजे से मुसलमानों को तबलीगी, तालिबानी बनाते हैं। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान यहां के देवबंद की पैदाइश हैं, यह सारी दुनिया जानती है। इन्होंने अपने शागिर्दों को मूल इस्लाम और प्रोफेट के अनुकरण के सिवा कुछ नहीं पढ़ाया है। जैसे यह कि सामान्य नमाज पढ़ने से जितना सवाब (फल) मिलता है, वह तबलीग या जिहाद में भाग लेने से 49 करोड़ गुना बढ़ जाता है।  

आज भी ऐसे ही प्रचार, ठीक देश की राजधानी में स्थित तबलीगी जमात के मुख्यालय से पूरी दुनिया में किए जा रहे हैं। इसी पर हिन्दू नेता व बुद्धिजीवी स्वयं प्रसन्न होते रहते हैं, कि वे पाकिस्तानियों की तुलना में कितने अच्छे हैं। तमाम इस्लामी संस्थानों को मजे से अपनी गतिविधि करने देते हैं। बल्कि समय-समय पर उन्हें अनुदान, जमीन, संस्थान, मंत्रालय, आयोग, पदक और पदवियां भी देते रहते हैं। परन्तु वे काम क्या कर रहे हैं? उस का काफिरों के हितों पर क्या असर पड़ता है?  उस से देश और दुनिया में क्या परिणाम हो रहे हैं? इस का उन्होंने कभी कोई आकलन नहीं किया। हमारे देश की किसी भी पार्टी, सरकार के प्रकाशन, महान नेताओं के वक्तव्य, पुस्तक, या ‘संकलित रचनाओं’ में तबलीगी जमात पर एक पाराग्राफ भी खोजना दूभर है। 

हिन्दुओं को पूछना चाहिए – आखिर हिन्दू धर्म-समाज की रक्षा का दम भरने वालों ने क्या लिखा, बोला, किया है? लगभग सभी हिन्दू नेताओं ने गाँधीजी के दिए मंत्र का अंध-पालन किया कि ‘नोबल फेथ ऑफ इस्लाम’ की सही समझ उस के अपने मौलानाओं को ही है! इसलिए वे मौलाना जो भी कहते, करते, माँगते हैं उस में हमें, यानी कांग्रेस, भाजपा, आदि सत्ताधारियों को केवल मदद करते रहना है। यही परंपरा गाँधीजी ने खलीफत आंदोलन में शुरू की, जिसे लगभग सभी पार्टियां निष्ठापूर्वक निभा रही हैं। 

यही कारण है कि नदवांतुल उलमा के सदर अली मियां ने एक बार इतमीनान से भाषण दिया कि भारत तो ग्रीक, रोमन, जैसी पुरानी सभ्यताओं की तरह ‘‘प्राचीन स्मारक से अधिक कुछ नहीं है। और केवल इस्लाम ही भारत को इस्तांबुल से जकार्ता तक के देशों का नेता बना सकता है।’’ इस का उपाय बताते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैं उन में से हूं जो मानते हैं कि एक मजहबी तंत्र तब तक नहीं बन सकता, जब तक कि मजहब के हाथ में राजनीतिक सत्ता न आ जाए और सरकार इस्लामी बुनियादों पर आधारित हो।’’ यही नदवांतुल जमाते उलेमा और तबलीगी जमात के बीच की कड़ी है।

इस प्रकार, अली मियां भारत में इस्लामी राज बनाने का दावा खुल के कर रहे थे। अर्थात् काफिरों के धर्म, समाज का पूर्ण विनाश। जो काम इस्ताम्बुल से रबात तक पहले हो चुका, और भारत से तोड़े गए टुकड़ों में भी लगभग पूरा हो गया है। जिस का सपना शाह वलीउल्लाह, सैयद बरेलवी, शाह मुहम्मद रमजान, मुहम्मद इकबाल, और मौलाना इलियास ने देखा था।   

यह ठीक है कि तबलीगी जमात राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सा नहीं लेती। उस के काम ‘शान्तिपूर्ण’ हैं। मगर यह शान्ति आरंभिक दौर वाले प्रोफेट मुहम्मद की मक्का में अपनाई हुई शान्ति नीति है, क्योंकि उन के हाथ में पर्याप्त ताकत नहीं है। इस बात को इसी रूपक के साथ, खुद मौलाना वहीदुद्दीन ने भी ‘तबलीगी मूवमेंट’ में ही लिखा है: ‘‘कभी कभी शान्ति बनाए रखना जरूरी होता है, जैसे हुदैबिया में किया गया था, और कई बार सुरक्षा करनी जरूरी हो जाती है, जैसे कि बद्र और हुनैन में हुआ था।’’  इस दोहरी भाषा में कही गई बात, और बद्र की घटनाओं का भयावह अर्थ काफिरों के लिए क्या है – यह प्रोफेट की आधिकारिक जीवनी पढ़कर समझ सकते हैं। 

अतः काफिरों को तबलीगी जमात के क्रिया-कलापों का प्रतिकार करना ही चाहिए। उसी शान्ति से जिस से मौलाना इलियास ने अपना काम किया था। और वही कार्य जो स्वामी श्रद्धानन्द ने करके दिखाया था। स्वयं मेवात से बड़ी संख्या में मुसलमान वापस हिन्दू धर्म में आए थे, जो मौलाना इलियास का भी पहला कार्य-क्षेत्र था। शुद्धि कार्य का डॉ. अंबेदकर ने भी लिखित समर्थन किया था। इस से स्पष्ट है कि शुद्धि कार्य न केवल उचित है, बल्कि भारतीय मुसलमानों में सदैव कुछ लोग वापस हिन्दू धर्म में आना चाहते रहे हैं। यह स्वभाविक मानवीय भावना है। सारी दुनिया में ऐसे विवेकशील मुसलमान हैं, जो एकहरी मानवीय नैतिकता को शरीयत की दोहरी नैतिकता से बेहतर समझते हैं। जो काफिरों को नीच मानकर उन के लिए अलग, और मुस्लिमों के लिए अलग नियम रखना अनुचित मानते हैं। अतः इस विचार का प्रचार सर्वथा अनिवार्य है, जिसे गाँधीजी ने बंद करवा दिया था। उस से हिन्दुओं पर इस्लामी चोट और बढ़ाने का उपाय कर दिया। जो लगातार बढ़ती भी गई।  

उसे पुनः आरंभ करने के अलावा काफिरों के पास कोई चारा नहीं। इस्लाम की दोहरी नैतिकता, शरीयत के दोहरे नियम, और मोमिन-काफिर भेद की निंदा करने, तथा उस के बदले एक मानवीय नैतिकता स्थापित करना ही हिन्दू रक्षा का सटीक उपाय है। यह शान्तिपूर्ण होने का साथ-साथ सरल भी है। जिस चीज को इस्लामी जमातें अपनी ताकत समझती हैं, वही उन की सब से बड़ी कमजोरी भी है। 

पहले तो, किसी लोकतांत्रिक देश में इस्लामी देशों जैसे दोहरे कानूनों का तर्क नहीं चल सकता। दूसरे, कुफ्र के खिलाफ इस्लामी प्रचार, स्वतः काफिरों को भी इस्लाम के खिलाफ प्रचार का अधिकार देता है। आखिर भारत पर शरीयत का शासन नहीं। अतः यहां एक ही, मानवीय नैतिकता चल सकती है। जिस में सभी नागरिकों को बराबर अधिकार हैं। यही अंग्रेजी राज में भी था। इसीलिए आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन पर न अंग्रेजों, न मुसलमानों ने आपत्ति की थी। स्वामी दयानन्द के समय से ही यह चल रहा था। इस्लाम की आलोचना, अथवा शुद्धि कार्य न तो अनैतिक, न गैर-कानूनी था। इसीलिए इसे कभी चुनौती नहीं दी गई।  

यह तो गाँधीजी द्वारा शुद्धि की निंदा करने से मुस्लिम नेताओं को मौका मिला, कि वे भी नाराज हों! वरना तब तक वे इसे बराबरी का खेल मानकर स्वीकार करते थे। यह आज भी संभव है। वही काफिरों का कर्तव्य है। आखिर, यदि मुसलमानों को हिन्दुओं का धर्मांतरण कराने की छूट है, तो हिन्दू भी वही कार्य उलट के कर ही सकते हैं। महर्षि श्रीअरविन्द ने भी इस की अनुशंसा की थी, और इसी को मुस्लिम समस्या का एक मात्र समाधान बताया था। समय आ गया है कि हिन्दू अपने गाँधीवाद-भ्रमित नेताओं को नमस्कार करके सही मार्ग पर वापस आएं। अन्यथा जो लाहौर, ढाका, श्रीनगर के हिन्दुओं का हुआ, वही आगे होगा। इस्लामी मतवाद का मुकाबला झूठे प्रपंच नहीं कर सकते। यह गाँधीजी से लेकर आज तक के तमाशों तक देखा जा सकता है। केवल सत्य ही उसे हरा सकता है।

यथावत से साभार

 

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