वैचारिक पत्रकारिता के अपराजेय योद्धा थे शीतला सिंह

उमेश सिंह

अद्भुत जिजीविषा के धनी थे कीर्ति शेष सम्पादक/पत्रकार शीतला सिंह। उनमें विचारों की भट्टी सदा धधकती रही। वे एक विशेष प्रकार की आग को धारण किए हुए थे। समाज-राष्ट्र के प्रति उनका मन बेचैनियों से भरा था। उनके दिमाग़ में विचारों की आँधियाँ बहती थी। वे ऐसे पथ के पथिक थे, जहां पग-पग पर सवाल दर सवाल उठते थे। जबाब पाने के लिए। विचारधारा से ऐसी प्रतिबद्धता कि उसी में रचते-बसते-खपते हुए ज़िंदगी बिता दी। हम जैसे लोगों ने वह दौर भी देखा है, जब सुबह-सबेरे जनमोर्चा अखबार के इंतज़ार की बेचैनियाँ सालती रहती थी। उनके संपादकीय नई रौशनी उगलते थे। बाबू शीतला जी अवध की रोशन अंगुली थे। घटाटोप अंधेरों के बीच शब्दों के ज़रिए रोशनी उगलते रहे और खुद अंधियारा पीते रहे। गरिमापूर्ण आयु (94) को स्पर्शित कर उनका शरीर शांत हो गया। आमिल के शब्दों में कहें तो “ अगली सदी कहेगी कि उजाला रहे हो तुम”

तत्कालीन फैजाबाद ( वर्तमान अयोध्या) के धुर गंवई क्षेत्र खड़भडिया गाँव मे जन्मे शीतला सिंह खुद में ही चलते-फिरते पत्रकारिता के विश्वविद्यालय थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा समाज के विश्व विधालय से हुई थी। वर्ष 1958 में पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा और फिर उसी पर बढ़ चले। उनकी धड़कनों मे पत्रकारिता इस कदर समा गई कि कबीर के शब्दों में “ बोलत डिगै न डोलत बिसरै” की तरह। आजादी मिलने के बाद एक दौर वह भी था, जब देश मे सहकारी आंदोलनों की स्वर्णिम आभा में तीन सौ से ज़्यादा सहकारी अखबार शुरू हुए। लोकतंत्र के चौथे खंभे मे पूँजी के दबदबे के आगे एक-एक कर सहकारी अख़बार बंद होते गए, फिर भी सहकारिता की आखिरी लौ के रूप में जनमोर्चा अख़बार रोशनी उगलता रहा। यह ज़रूर है कि उसके उजाले का क्षेत्र सिमट गया। शीतला सिंह ने पूँजी के ब्रह्म के आगे हथियार डालने के बजाय उससे दो-दो हाथ करने की ठानी। आत्मसमर्पण कर बाजार में गुमनाम होने के बजाय, सीमित संसाधनों के बल पर ही लड़ना पसंद किया था। सहकारिता के माध्यम से निकलने वाले अखबारों की दुनिया के आखिरी मोर्चे के रूप में वे दृढ़ता से डटे रहे।
इसी का नतीजा है कि सहकारिता पर आधारित उसकी आख़िरी लौ के रूप में आज भी जनमोर्चा हम सबके बीच उपस्थित है। उन्होंने जनमोर्चा अख़बार के ज़रिए वैकल्पिक पत्रकारिता का हस्तक्षेपधर्मी स्वरूप निर्मित किया था। देश में संभवतः वह पहले व्यक्ति थे ,जो सबसे लंबे समय तक संपादक रहे। वे वर्ष 1963 में अख़बार के संपादक बने थे। जनमोर्चा सिर्फ अख़बार ही नहीं रहा, वैचारिक क्रांति का मिशाल बन गया। शीतला सिंह की साधना ने जनमोर्चा को पाठकों के लिए ज़रूरी बना दिया। अपनी लंबी संपादकीय पारी में कुछ वर्ष प्रेस कौंसिल के सदस्य भी रहे। वे यश भारती सम्मान से सम्मानित भी हुए थे। उनकी किताब ‘अयोध्याः रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ तथ्य और साक्ष्य को बड़ी बारीकी से उजागर करती है। 
शीतला सिंह सामासिक संस्कृति के ग़ज़ब के पैरोकार थे। गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रबल हिमायती थे। जन सरोकार और सांस्कृतिक साझेदारी के पुरोधा के रूप अयोध्या उन्हें याद करती रहेंगी। पत्रकारिता के तो वे शिखर पुरुष थे। वे प्रेस की स्वतंत्रता व नागरिक अधिकारों के लिए सतत सक्रिय रहे। हिन्दुत्व के पैरोकारों ने अयोध्या को भगवा सियासत की ऊर्जा स्थली बनाने के लिए राजनीतिक-अभियान शुरू किया। बहुतेरे लोग उमगी हुई उस नई धारा के साथ हो लिए, लेकिन शीतला सिंह अपनी वैचारिकी से लैस हो “ निष्कंप आस्था की लौ” की मानिंद जलते रहे। वे जन-पक्षधर पत्रकारिता की निर्भीक और बुलंद स्वर के रूप में गूंजते रहे। धारा के साथ चलने-बहने में उन्हें रस नहीं मिलता था। उनका स्वभाव धारा के विपरीत चलने का था। बिल्कुल मछलियों की तरह। मछलियों को सर्टिफिकेट नहीं मिलता, फिर भी चलती रहती है। मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर जब अयोध्या की पहचान होने लगी, तब भी शीतला सिंह की बेबाक कलम अपनी पहचान बनाए रखी। 
बीती शताब्दी के अंतिम दशक में मुख्यधारा का मीडिया अपने-अपने हिसाब से मंदिर-मस्जिद विवाद का कारोबार कर रहा था। लेकिन जनमोर्चा इस कारोबार से दूर था। वह पूरी हिम्मत और हिमालई-हौसला के साथ संविधान, कानून और सरकार के इकबाल पर सवाल उठा रहा था। इस मुद्दे पर शीतला सिंह ने सीधे संविधान के पक्ष में मोर्चा खोल दिया था।मंदिर आंदोलन के दौर में और अब भी हिंदी पत्रकारिता चौतरफा पतन के दौर से गुजर रही है। पूँजी एवं सत्ता की कोख से पैदा हुई गरजती आँधियों के इस दुर्धुष दौर में जनमोर्चा अखबार सही खबरें लिख रहा था। सच्ची सूचनाएं साझा कर रहा था। उनके जाने से न सिर्फ हिंदी के प्रतिबद्ध पत्रकारिता जगत की अपूरणीय क्षति हुई है बल्कि धर्मनिरपेक्ष, ईमानदार और त्याग-तपस्या के पथ पर चलने वाली संस्कृति की धारा भी कमज़ोर पड़ी है। शीतला सिंह कहा करते थे कि पूंजी सीमित हाथों में है। जनता की शक्ति असीमित है। इसलिए उन्हें भरोसा था कि एक न एक दिन निजी पूंजी का दबदबा टूटेगा। उनका मानना था कि मीडिया को न सरकारी होना चाहिये न ही दरबारी बनना चाहिए। वह पूंजी को ब्रहम और मुनाफ़ा को मोक्ष कहकर पूँजीवादी वर्चस्व वाली व्यवस्था पर व्यंग्य करते थे।
नवाबी दौर में फैजाबाद का नाम बंगला हुआ करता था। उसी बंगला में अंतर्वेद (शीतला सिंह के रहिवास का नाम) है। बुधवार की सुबह अंतर्वेद से उनका पार्थिव शरीर जब बाहर निकाला जा रहा थे तो मानो दरवाज़ा और खिड़कियाँ मौन संवाद कर रही थी कि हर एक के लिए हर वक्त खुले रहने वाले हम लोग अब बंद तो नहीं हो जाएँगे। हंसा तो सबको छोड़कर उड़ गया। अब हर एक को गले लगाने के लिए बाँहें कौन फैलाएगा? दशकों से उनके कर्म साधना की धुरी चौक स्थित बजाजा में जनमोर्चा कार्यालय भी पार्थिव शरीर को पुष्पांजलि अर्पित की गई। यह बूढ़ी इमारत मोनो बुदबुदाते हुए बोल रही है कि सहकारी अख़बार के इस अंतिम दीये को अब कौन जलाए रखेगा ? सिविल लाइंस स्थित प्रेस क्लब भवन जैसे यह कह रहा हो कि अवध की कई पीढ़ियों को पत्रकरिता का ककहरा अब कौन सिखाएँगा ? ज़िंदगी को फ़क़ीराना अंदाज में जीने वाले शीतला सिंह अपने पार्थिव शरीर को भी मेडिकल कालेज को दान कर उपयोगी बना गए।
(जनमोर्चा से साभार)

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