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सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने सोलिसिटर-जनरल के जरिये दिल्ली और एनसीआर इलाके में प्रदूषण पर अंकुश के लिए बस चंद दिनों में एक और नया कानून लाने का वादा किया है। देश में करीब ४० साल से प्रढूषण नियंत्रण कानून है।३० साल से चर्चा। २० साल से देश की सबसे बड़ी अदालत, सुप्रीम कोर्ट, इस समस्या से जूझ रही है और दस साल से “पीएम-२.५”, “एक्यूआई” और “पोल्यूशन” जैसे शब्दों सुबह से शाम तक सभी बच्चे-बूढ़े की जबान पर हर साल अक्टूबर से फ़रवरी तक रहता है। फिर भी दिल्ली और एनसीआर इलाके के “गैस चैम्बर” बनने की समस्या का समाधान नहीं हुआ।
अमरीकी राष्ट्रपति का भारत को “गंदा देश” कहना राष्ट्र-प्रेम में बुरा तो लगता है पर कभी किसी ने सोचा है जनता की वोट से बनी सरकारें उसी जनता को घुट-घुट कर मरने को मजबूर करती हैं क्योंकि उनके लिए यह कोई गंभीर मुद्दा नहीं है।
विडम्बना है कि सभ्य समाज और प्रजातंत्र के दावों के बावजूद ४० साल से यह नहीं तय हो पाया कि प्रदूषण के मूल कारक कौन-कौन से हैं। अगर एक रिपोर्ट आती है कि आस-पास के राज्यों में जलायी जाने वाली पराली (धान के ठूंठ) से वायु प्रदूषित हो रहा है तो अगले दिन किसी अन्य अध्ययन से उसकी जगह गाड़ियों से निकलने वाले धुएं को अपराधी घोषित कर दिया जाता है।
तीसरा अध्ययन भवन निर्माण और चौथा सडकों पर पड़ी धूल का दानवीकरण करने लगता है. यह उदासीनता तभी संभव है जब सत्ताधारी वर्ग की प्राथमिकता में “शाहीनबाग का धरना”, “हाथरस का बलात्कार” बनाम “पंजाब का बलात्कार” और “नेहरु का गलतियाँ” जैसे गैर-जरूरी मुद्दे रहते हैं।
उधर कोई राजनीतिक दल जो केंद्र या राज्य में सत्ता में है, किसानों के खिलाफ सख्ती की इच्छा-शक्ति नहीं जुटा पाता। वरना किसानों को सस्ते में ऐसी मशीने दी जा सकती थीं जो पराली खेत से निकाल ले ताकि उसे बिजली बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाये।
किसानों को बताया जा सकता है कि खेत में पराली जलाने से खेत की नमी ख़त्म हो जाती है लिहाज़ा गेंहूं के उत्पादन पर असर पड़ता है। उसी तरह निर्माण-कार्य स्थल पर धूल खींचने वाले पंखे लगाने का बाध्यता की जा सकती है और यातायात के लिए निजी साधनों की जगह बेहतरीन सार्वजानिक ट्रांसपोर्ट उपलब्ध कराया जा सकता। देखना है क्या नया कानून कोई वास्तविक समाधान देता है कि वही ढाक के तीन पात फिर.