लोकतांत्रिक देशों को खुलकर समर्थन देने की जरूरत

भारत ने १९४७ में अंग्रेज़ों के जाने बाद अपनी अस्मिता को बचाने एवं देश की प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराओं, जो सभी नागरिको को बिना भेदभाव समानता के आधार पर सत्ता और व्यवस्था में बराबर की भागीदारी देने के लिए संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की गई. इसका स्वरूप भले ही ब्रिटिश व्यवस्था जैसी लगती हो, किन्तु बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जैसे मनीषियों ने इसे भारतीयता के समग्र चिंतन से जोड़ने का अद्भुत कार्य किया. भारतीय संविधान की मूल प्रति में श्री राम दरबार का चित्र , भगवान बुद्ध एवं गुरु नानक देव की शिक्षा को समाहित करने के साथ साथ, अकबर के नौ रत्नो का चित्र भी सम्मिलित है.
इसी मूल भावना के अनुरूप सारी दुनिया में  शांति के सन्देश के आधार पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने स्वतन्त्र विदेश नीति का अनुसरण करने का प्रयास किया. इसकी व्याख्या विश्व में इसी मूल भावना के अनुरूप सारी दुनियामे शांति के सन्देश के आधार पर सहयोग, पंचशील अर्थात किसी दूसरे देश के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना ही भारत की विदेशनीति का आधार रहा है.देश की प्राचीन संस्कृति को भारतोय राज्य को मूल नीतियों के अनुरूप अंतर्राष्ट्रीय पहचान देने का प्रयास भी कहा जा सकता है, जिसकी अभिव्यक्ति भारत की गुट-निरपेक्ष विदेशनीति एक सशक्त माध्यम बनी. इसका यह अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व में पूँजीवादी यूरोप के देशों ने रूस की बोल्शेविक क्रांति और चीन की साम्यवादी क्रांति को रोकने के लिए अनेक सैन्य गठबंधन किए और उसके जवाब में सोवियत संघ ने भी सैन्य संघटन बनाए। भारत ने किसी भी गुट में शामिल होने से इनकार कर दिया. 
इन सैन्य संघटनो में सबसे अधिक शक्तिशाली नाटो साबित हुआ और वह आज भी पश्चिमी यूरोप के देशों को अपने में समेटे हुए है. इस अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य संघटन के जवाब में सोवियत संघ ने वारसा फौजी संघटन बनाया, किन्तु 1996 के दशक में सोवियत संघके टूट जाने के बाद, रूस ने इसे यह कहकर विघटित कर दिया कि अब हमे दुनिया भर में साम्यवाद का विस्तार नहीं करना है और हम एक यूरोपीय राष्ट्र के रूप में यूरोप में सभी देशों के साथ सहयोग एवं शांति से रहना चाहते हैं. तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन .ने तो अमेरिका से नाटो की सदस्यता देने का भी अनुरोध किया था, किंतु किसी कारणवश उनका अनुरोध स्वीकार नहीं किया गया.
रूस को नाटो में प्रवेश न देने के अनेक कारणों में यह भी कहा जाता है कि ब्रिटेन को साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में हमेशा रूसी सम्राटों से भय लगता था, ईरान और अफ़ग़निस्तान में जब उनका प्रभाव बढ़ने लगा तो ब्रिटिश शासक सजग हो गए. यही कारण है कि आज भी ब्रिटेन समेत अमेरिका का यूरोप में सिर्फ एक ही एजेंडा है कि पूर्वी यूरोप में रूसी संस्कृति एवं भाषा के प्रभाव को घटाया जाए. सम्भवत: इसी नीति का अनुसरण करते हुए अमेरिका ने पूर्वी यूरोप के तमाम छोटे छोटे देशो को, जो कभी सोवियत संघ के साथ थे, एक-एक करके नाटो का सदस्य बना दिया और रूसियो के खिलाफ तमाम स्थानीय गुट खड़े कर दिए. यूक्रेन को नाटो में शामिल करने के प्रयास में ही आज पूरा क्षेत्र युद्ध के ज्वाला में धधक रहा है. भारत मे जिस प्रकार भाड़े के अपराधियों की मदद से सांप्रदायिक दंगे भड़काए जाते रहे हैं, उसी प्रकार यूक्रेन में रूसी भाषियों की हत्या आम बात है.
अब चूँकि रूस की सेना उनके क्षेत्रों में तैनात है और पश्चिम की भरपूर आर्थिक और फौजी सहायता के बावजूद रूसी सेना पूरे इलाके पर काबिज़ हो गई है. इसके साथ ही अमेरिका और नाटो की नीतियों की विफलता भी दुनियाँ भर में उजागर हो गई है। इसका एक प्रभाव यह पड़ा है कि यूरोप में नाटो के दो प्रमुख सदस्यों, फ़्रांस और जर्मनी ने अमेरिका से साफ़ कह दिया है कि अमेरिका यदि यूरोप के बाहर अर्थात एशिया, अफ्रीका या लैटिन अमेरिका, विशेषकर ताईवान की कोई जंग में उलझता है, तो हम उसमे शामिल नहीं होंगे। अत:हमे इस परिप्रेक्ष्य में पिछले दिनों अमेरिकी सैन्य संघटन नार्थ अटलांटिक संधि संघटन, जिसे संक्षेप मे हम नाटो कहते हैं, में तैनात अमेरिकी राजदूत जूलियन स्मिथ के इस बयान को समझना होगा कि अमेरिका भारत को नाटो का सदस्य बनाने के लिए क्यों इतना इच्छुक है.
भारत में नाटो की सदस्यता पर चर्चा—
हाल में दिए गए जूलियन स्मिथ के भारत को नाटो में शामिल किए जाने के बयान ने भारत की राजनीति एवं विदेशी मामलों के जानकारों मे हलचल मचा दी है. उन्होंने कहा है कि भारत का नाटो में स्वागत है. उन्होंने लोकतांत्रिक भारत की प्रशंसा करते हुए यहाँ तक कह दिया कि हम भारत को उत्तर अटलांटिक संधि संगठन के साथ अधिक से अधिक जोड़ने के लिए तैयार है, क्योंकि भारत पर आज कहीं अधिक भरोसा किया जा रहा है, किन्तु इस सहयोग केलिए जरूरी है कि भारत पश्चिम के लोकतान्त्रिक देशों के साथ जुड़ने के लिए तै य्यार हो। मज़े की बात तो यह है कि उन्होंने यह भी दावा किया है कि नाटो को व्यापक फौज़ी गठबंधन में और अधिक विस्तारित करने की कोई योजना नहीं है। यदि इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो फिर भारत की क्या जरूरत है नाटो में. सच्चाई तोयह है कि २०वी सदी के दोनों महायुद्ध भारतीय सैनिको के बूते ब्रिटेन लड़ा था. भारतीयों के शौर्य की दास्ताँ इण्डिया गेट नई दिल्ली में देखीं जा सकती है. दूसरे अर्थों में यह भी कहा जा सकता है कि अमेरिका सोंचता है कि भविष्य में नाटो की लड़ाईयां हिन्दुस्तानियों के बलिदान से लड़ी जाएगी।
जूलियन स्मिथ ने अपनी बात को तर्क संगत करते हुए यह भी दोहराया कि दक्षिण एशिया और हिंद-प्रशांत के साथ संबंधों को मजबूत करने की रणनीति के तहत हम उत्तर अटलांटिक संधि संगठन को भारत के साथ और अधिक जोड़ना चाहते है। अप्रत्यक्ष रूप से यह एक प्रकार से इस बात की स्वीकारोक्ति है कि अचानक नाटो में भारत में शामिल करने के पीछे मंशा क्या हो सकती है?
भारत के लिए अवसर—
कहते हैं कि हर चुनौती आपके लिए एक बेहतरीन अवसर बन सकती है, किन्तुउसके लिए आपको सजग होने के साथ साथ बुद्धिमत्ता के साथ विश्व पटल पर राजनयिक पहल लेनी होती है. पिछले महीने अप्रैल में चीन ने सऊदी अरब और ईरान के बीच दौत्य संबंध स्थापित करवा कर पूरे इलाके में अपनी धाक जमा ली थी. इस बारे में भारत को कानो-कान ख़बर तक नहीं हुई. है, इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इसके चंद हफ्तों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल एक दिन के लिए तेहरान क्यों भेजा, इसके बारे में यह कहा जा रहा है कि उन्होने आपसी हितो के मुद्दों पर ईरान के सुरक्षा प्रमुख अली शमख़ानी के साथ-साथ ईरान के राष्ट्रपति रईसी से भी भेंट की। यह बातचीत भरपूर संकेत देती है कि डोवाल की यात्रा ईरान से सिर्फ तेल खरीदने को लेकर नहीं हुई होगी, जैसा कि कुछ भारतीय मीडिया चैनलों में दावा किया जा रहा है. इसपर चर्चा करने के लिए हमारे पेट्रोलियम मंत्री जा सकते थे . निश्चय ही इस वार्ता का उद्देश्य ईरान को वापस दुनिया के साथ किस प्रकार जोड़ा जाए. क्या भारत ईरान और अमेरिका के बीच वार्ता का माध्यम बन सकता है? 
भारत के विदेशी मामलो के विशेषज्ञ एवं विचारक प्रायः इस पर सहमत के प्रतीत होते हैं कि भारत को नाटो में शामिल होने के लिए कोई उत्सुकता नहीं दिखानी चाहिए। इसका कारण यह है कि भारत की सदस्यता तभी उपयोगी होगी जब वाशिंगटन यह फैसला कर लेगा कि उसे सचमुच लोकतांत्रिक ताकतों को मज़बूत करना चाहिए. कहा जाता है कि भारतीयों की याद्दाश्त हाथी जैसी होती है. भारतीय कैसे भूल सकते हैं कि १९७१मे बांग्लादेश की खिलाफ अमेरिका ने अपने परमाणु बमो से लैस से समुद्री बेडा बंगाल की खाड़ी में भेज दिया था और भारत पर अणु बमो से प्रहार की योजना थी. और यह सब पाकिस्तान की फौजी तानाशाही को बचाने के लिए किया जा रहा था.
इसमें संदेह नहीं कि अधिनायकवादी चीन ने विश्व व्यापार पर कब्ज़ा कर लिया है और उसने अपने को एकमात्र विश्व की महाशक्ति बनने का जो दिल दहलाने वाला कार्यक्रम बनाया है, उससे सभी को सजग होना चहिए। भारत को लोकतांत्रिक देशों के साथ खुलकर आना होगा, किन्तु अमेरिकी रणनीति के चलते इसकी संभावना फिलहाल कम ही लगती है. यह अवसर है कि पश्चिमी देश भारत और उसकी रणनीति पर भरोसा करे. अमेरिका के विचारमंचों पर चीन की कन्फुसकियस संस्था ने तमाम अमेरिकी विद्वानों को अपने पे-रोल पर रख लिया है, इसलिए ताज्जुब न होगा कि यदि वे चीन की नीतियों के अनुरूप वाशिंगटन को सलाह दें, और कुछ अमेरिकी नेताओं के निजी आर्थिक रिश्ते चीन और यूक्रेन की कंपनियों से उजागर हो चुके हैं. इसमे वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन के सुपुत्र, हंटर का नाम अमेरिका में खुल कर लिया जा रहा है. भारत को सैद्धांतिक रूप से लोकतांत्रिक देशों का साथ अवश्य देना चहिए, लेकिन जरा ठहर कर. ड्रैगन की पकड़ इस समय अमेरिका के सभी क्षेत्रों में काफी मजबूत हैं, जिसमे मीडिया भी शामिल है. अमेरिका के तमाम बड़े अख़बारों और मीडया चैनलो में चीन की सरकारी कंपनियों के शेयर है. 
[लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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