मदनदास, जो हमेशा याद किए जाएंगे

तारीख 24 जुलाई, सुबह का समय। मोबाइल पर आर.के. सिन्हा की आवाज। वे सूचना देते हैं कि मदनदास का देहांत हो गया है। वे पूछते हैं, ‘क्या आप पूणे चलेंगे?’ बिना एक क्षण सोचे, मेरा जवाब था, ‘अवश्य।’ मेरे लिए यह सूचना अनपेक्षित और अचानक नहीं थी। इसका कारण यह है कि एक दिन पहले एकात्म मानव संस्थान की सालाना बैठक में अतुल जैन ने बताया था कि मदनदास जी की तबियत बिगड़ रही है। पुनः उन्हें वेंटिलेटर पर डाला जाए या नहीं, यह सोच-विचार चल रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्ता जी होसबाले ने सलाह दी है कि उन्हें इस अवस्था में वेंटिलेटर पर ले जाने की जरूरत नहीं है। इस कारण ही सिन्हा जी के फोन से मिली सूचना मेरे लिए अचानक नहीं थी। उसी दिन हम पूणे पहुंचे।

पूणे के बैकुंठ श्मशान-भूमि पर जब हम जा रहे थे, तो मुझे बार-बार याद आ रहा था कि उसी भूमि पर 2003 में रज्जू भैय्या (प्रो. राजेंद्र सिंह, पूर्व सरसंघचालक) का दाह संस्कार भी वही हुआ था। उस समय भी हजारों लोगों ने उन्हें विदा किया था। उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देने वे सभी पहुंचे थे जो पहुंच सकते थे। तब तारीख थी, 15 जुलाई। इस बार तारीख थी, 25 जुलाई। उस समय दाह संस्कार शाम को हुआ था और इस बार दोपहर से पहले करीब 12 बजे। लेकिन दृश्य एक जैसा था। जिस तरह रज्जू भैय्या का स्नेह लोगों को खींच लाया था, ठीक उसी तरह देश के हर कोने से नामी लोग जहां पहुंचे थे, वही पूणे के नागरिक भी मदनदास को अपना विनम्र प्रणाम पहुंचा रहे थे। बहुत सालों से वे किसी पद पर नहीं थे। जब स्वस्थ थे, सक्रिय थे, तब भी पद उनके लिए बहुत मायने नहीं रखता था। पद से उनका कद कहीं उंचा था। वे उन कुशल समाज शिल्पियों में से एक थे, जिन्होंने लोगों को पदों पर पहुंचाया।

दहाड़ मारकर कोई रो नहीं रहा था। लेकिन वहां हर कोई गहरे शोक में डूबा हुआ था। प्रकृति अवश्य आंसू बहा रही थी। रिमझिम बारिस में उनकी शव यात्रा प्रारंभ हुई। उससे पहले पूणे के संघ कार्यालय में लोगों को उनके अंतिम दर्शन का अवसर मिला। जो वहां नहीं पहुंच सके, ऐसे लोग कम नहीं थे। वे बैकुंठ श्मशान-भूमि पर अंतिम दर्षन कर सके। थोड़ी देर के लिए अंतिम दर्शन की व्यवस्था थी। उसी समय लोगों का आना जारी रहा। भारी भीड़ थी। मदनदास बहुत दिनों तक याद आते रहेंगे। उनकी तपस्या का प्रभाव अमिट है। इसे बानगी के तौर पर इस बात से समझा जा सकता है कि अपने सारे कार्यक्रम स्थगित कर वहां सरसंघचालक मोहन भागवत पहुंचे। मदनदास का शव लेकर विमान से स्वयं सरकार्यवाह दत्ता जी होसबाले पूणे आए। वे उदयपुर में थे। वहां से बंगलुरू पहुंचे, जहां करीब एक साल से मदनदास जी इलाज में थे।

पिछले साल 9 जुलाई को मदनदास जी का जन्मदिन उनकी उपस्थिति में दिल्ली में मनाया गया। वे दिल्ली को सलाम कर बंगलुरू पहुंचे थे। वहीं उनकी शारीरिक व्याधियों ने उन्हें कैद कर लिया। जिससे मुक्ति उन्हें 24 जुलाई की सुबह मिली। उन्हें अंतिम विदाई बंगलुरू में ही क्यों नहीं दी गई? यह उस समय लोगों ने अपने से पूछा, जो मदनदास जी के पूणे से संबंधों को नहीं जानते। लेकिन पूणे के अखबारों ने इस सवाल का जवाब 25 जुलाई को दे दिया था। अखबारों में छपा और सच ही छपा कि 9 जुलाई, 1942 को करमाल में उनका जन्म हुआ था। यह स्थान महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में है। यह भी छपा कि वे 1951 में अपने गांव में संघ के स्वयंसेवक बने। 1964 में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में बहुत पहले एक त्रिमूर्ति उभरी। वह मानव निर्मित ईश्वरीय कृति थी। उस त्रिमूर्ति के मध्य में प्रो. यषवंत राव केलकर थे। आजू और बाजू में थे, प्रो. बाल आप्टे और मदनदास।  इन तीनों की प्राथमिक कर्मभूमि पूणे थी। स्वाभाविक है कि जहां से यात्रा प्रारंभ हुई थी, वहीं उसका अंतिम विराम भी हो। इसीलिए मदनदास जी का पार्थिव षरीर वहां लाया गया होगा। शवदाह गृह को उन्हें सौंपने के बाद एक संक्षिप्त और अल्पकालीन शोक सभा वहीं पर हुई। जो उचित थी और जरूरी थी। वह प्रतीकात्मक थी। जिसमें पहले वक्ता मिलिंद मराठे थे। दूसरे वक्ता थे, भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा। तीसरे और अंतिम वक्ता थे, सरसंघचालक मोहन भागवत। हालांकि वहां उपस्थित समुदाय में भारत के गृहमंत्री अमित शाह भी थे।

सरसंघचालक मोहन भागवत ने मदनदास के व्यक्तिगत गुणो के सामाजिक प्रभाव को अपने मन की अतल गहराइयों से याद किया। थोड़े में उन्होंने बड़ी बातें बताई। उन्होंने यह कहा कि ऐसे व्यक्ति के विछोह का दुख सर्वव्यापी होता है। ऐसा ही यह अवसर है। वे जब यह कह रहे थे, तो मेरे मन में यह भाव जगा कि मदनदास जहां अशरीरी होकर पहुंचेंगे, वहां खुशी होगी, क्योंकि वे उस त्रिमूर्ति के अंग हो जाएंगे, जो इस धरती पर यशवंत राव केलकर, प्रो. बाल आप्टे और उनकी थी। मदनदास जी की सामाजिक यात्रा को आज जब कोई याद करेगा, तो पाएगा कि वे अपने पांव चलकर कीर्ति के गंगा सागर पहुंचे थे। हर नदी वहां पहुंचना चाहती है। वे भी भारत की तमाम धाराओं के प्रतिनिधि रूप थे। उनके जाने के बाद दो बातों का खास तौर पर जिक्र आया है। पहली बात है कि वे पश्चिमांचल के संगठन मंत्री बनाए गए। यह बात 1968 की है। दो साल बाद ही उन्हें अखिल भारतीय दायित्व प्राप्त हुआ। यह उनकी योग्यता और कार्य कुशलता का छोटा सा प्रमाण है।

केरल की राजधानी में अधिवेशन था। उस समय प्रो. गिरिराज किशोर संगठन मंत्री थे। वे बनारस आए। चेतावनी दी कि अगर बनारस वाले अधिवेशन के रास्ते में कोई गड़बड़ करेंगे तो उन्हें फिर कभी अधिवेशन में बुलाया नहीं जाएगा। इसका एक इतिहास है। उसका वर्णन अनावश्यक है। इतना ही बताना जरूरी है कि मैंने गिरिराज किशोर जी को तब यह जरूर कहा था कि आप अगले अधिवेशन तक रहेंगे क्या? संयोग देखिए कि यही हुआ। 1970 के उस अधिवेशन में मदनदास जी पर संगठन मंत्री का जिम्मा आया। लंबे समय तक उन्हांने इस जिम्मेदारी को जितनी सहजता से निभाया, उसका  उदाहरण खोजे नहीं मिलेगा। शायद ही कोई कार्यकर्ता हो, जिसे मदनदास जी से कभी किसी तरह की शिकायत रही हो। इसके विपरीत हजारों लोग हैं, जो मदनदास के प्रति कृतज्ञता के भाव से भरे हुए हैं और अजीवन वे उनसे प्रेरित होते रहेंगे।

अगर कोई उन लोगों की सूची बनाए जो पूणे पहुंचे थे, तो यह बात किसी के भी ख्याल में आ जाएगी। उनके सक्रिय जीवन के तीन सोपान हैं। पहला, सीखने का। दूसरा, सीखे हुए को कर्मयोग में रूपांतरित करने का। तीसरा, अनुभव का। वे त्रिमूर्ति के अंग थे। यह उनकी अपनी छबि नहीं थी। इसे उनके सहयोगियों ने समझा और माना। लेकिन, जो मदनदास जी को जानते हैं, वे उन्हें उनके अपने पूरे व्यक्तित्व में देखते हैं। इसका थोड़ा स्पष्टीकरण जरूरी है। नहीं तो भ्रम पैदा हो सकता है। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे सामाजिक कार्य में कमर कसके उतरे। जो राह ली, उससे न भटके, न ठहरे, बल्कि चलते रहे। उनकी यात्रा की कोई मंजिल नहीं थी। उनका हर कदम अपनी मंजिल आप होता था। अपनी सामाजिक यात्रा में जिन-जिन के संपर्क में वे आए, वे जितने उंचे थे, उतने ही गहरे भी थे। वे विचारवान थे। पर कर्मयोगी भी थे। ऐसे नामी और अनामी लोगों से उन्होंने सीखा। लेकिन वे उनके प्रतिनिधि नहीं थे।

हां, उन्हें प्रतिनिधि माना जाता था। यह एक दृष्टिकोण है। जरूरी नहीं कि इसका वास्तविकता से कोई संबंध हो। मेरी समझ से मदनदास जी ने संगति से विचार को ग्रहण किया। उन्हें जो रूचा और जचा उसे पचाया। इस प्रक्रिया में एक नए मदनदास नामक व्यक्तित्व का उदय हुआ। इस तरह वे अपने विचार के प्रतिनिधि पुरूष बने। उसी मदनदास को विभिन्न रूपों में उनके संस्मरणों से लोग याद करते रहेंगे। एक खास बात है। वे जहां गए और जो जिम्मेदारी संभाली, उसमें यश-अपयश से वे अछूते थे। उनको समय और स्वधर्म की अनूठी समझ थी। इसके उदाहरण अनेक हैं।

यहां दो प्रतीक उदाहरणों से बात पूरी की जा सकती है। जब उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय दायित्व संभाला तब इस संस्था का वास्तविक निर्माण काल था। वे उसके विश्वकर्मा बने। तब संस्था को जनसंघ का विद्यार्थी संगठन माना जाता था। यह मीडिया की समझ थी। जिसे मदनदास जी ने एक लंबी लकीर खींचकर दूर किया। अगर कोई सर्वे करे तो पाएगा कि उनके कार्यकाल में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिशद सातरंगा विचारों का मंच था। लेकिन एक संगठन भी था। यह एक आदर्श स्थिति है। उसी दौर में ऐसे विद्यार्थी नेता भी थे जिन्हांने राजनीति में सिर्फ एक दल की राह नहीं चुनी। इसी तरह जब उन पर कठिन परिस्थितियों में राजनीति, सत्ता और विचार के समन्वय का दायित्व आया, तो उन्होंने अपना कार्य जिस खूबी से निभाया, वह अध्याय उनके जीवन में यश और आलोचना का है। इससे बेपरवाह वे अपने कबीर थे। वे देना जानते थे। देने में उन्हांने दीनता नहीं दिखाई। लेकिन इसके लिए उन्हें मांगना पड़ता था। पर मांगने वाला मदनदास देने वाले से बड़ा होता था। ऐसे मदनदास को अनंत प्रणाम!

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