
अटल बिहारी वाजपेयी ने एक शाम फोन कर के.आर. मल्कानी को बुलाया। उन्हांने पूछा था, क्या कर रहे हो? मल्कानी ने बताया, मैं सोने जा रहा था। वाजपेयी ने अपने अदांज में कहा, सोने को अब भूल जाओ और सीधे यहां चले आओ। मल्कानी ने ऐसा ही किया। जब वे अटल बिहारी वाजपेयी के निवास पर पहुंचे तो देखा कि वहां पहले से ही बहुत से लोग बैठे हुए हैं। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में जनसंघ के नेता थे। के.आर. मल्कानी अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ के संपादक थे। वाजपेयी जी ने उन्हें बताया कि इंदिरा गांधी की सरकार जेपी (लोकनायक जयप्रकाश नारायण) को गिरफ्तार करने, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने और ‘मदरलैंड’ को बंद कराने की योजना बना रही है।
एक संपादक को भरोसेमंद नेता से जब ऐसी राष्ट्रीय महत्व की सूचना मिलती है तो उसे क्या करना चाहिए? संपादकों की कतार में अलग दिखने वाले के.आर. मल्कानी ने 50 साल पहले ही एक लंबी लाइन चलाकर बताया कि सबसे पहले खबर दो। 30 जनवरी, 1975 को उन्होंने ‘मदरलैंड’ में यह समाचार छापा कि ‘भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय किया है। उसमें जयप्रकाश नारायण को भी गिरफ्तार करने का निश्चय कर लिया है।’ इस समाचार के छपने से चार दिन पहले उन्हें चेतावनी मिली थी कि ‘मदरलैंड’ जो कुछ कर रहा है उसके बुरे नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं। उसके अगले दिन भारत सरकार के एक प्रियपात्र और संपादक ने मल्कानी को बताया कि ‘मदरलैंड’ की सनसनीखेज खबरों के बावजूद यह निर्णय हुआ है कि ‘तुम पर मुकदमा न चलाया जाए।’
इमरजेंसी की घोषणा से पहले की रात जिसे भारत सरकार ने गिरफ्तार कराया, वे के.आर. मल्कानी थे। 25 जून, 1975 की उस रात वह पहली गिरफ्तारी थी। जेपी की गिरफ्तारी दूसरी थी। के.आर. मल्कानी संपादक का कार्य पूरा कर घर
लौटे थे। उन्हांने रामलीला मैदान में जेपी के ऐतिहासिक भाषण को ‘मदरलैंड’ में छापने के लिए संपादित किया था। वे अपने बिस्तर पर लेटे ही थे कि उन्हें अपना नाम सुनाई पड़ा। वे पहले तो चकित हुए। सोचा, इस वक्त कौन पुकार रहा होगा। दिल्ली में जून की रात वैसे भी तपती है। प्रकृति की ताप सहज होती है। बनावटी ताप कष्ट देती है। वे जब उठे तो उन्हें इसका अनुमान हो गया था कि 6 महीने पहले की सूचना घटित होने जा रही है। उन्होंने जो खबर छापी थी, उसके सच होने का समय आ गया है।
जिस अंदाज में उन्हें दरवाजा खोलने के लिए बाहर से कहा जा रहा था, वह एक आदेश था। दरवाजा खोलते ही मल्कानी ने देखा कि पुलिस लोकतंत्र के यमदूत का वेश पहन कर आई है। वे इसके लिए पहले से ही तैयार थे। उन्हें मांगने पर कोई वारंट नहीं दिखाया गया। एक सत्यान्वेशी संपादक से इंदिरा सरकार डरी हुई थी। इसलिए छापामार ढंग से गिरफ्तारी हुई। वे उस समय न्यू राजेंद्र नगर में रहते थे। वहां के थाने में उनको ले जाया गया। उनकी गिरफ्तारी जिस तरह से हुई उससे एक अफवाह फैली कि पुलिस ने के.आर. मल्कानी को मार डाला है। उस अफवाह ने अपना काम किया। के.आर. मल्कानी का परिवार चिंतित हो उठा। उसने अपने हितैशी और सुप्रीम कोर्ट के वकील डा. एन.एम. घटाटे को संपर्क किया। डा. घटाटे ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
जज वी.आर. कृष्ण अय्यर की अदालत में यह मामला सुनवाई के लिए आया। उन्होंने भारत सरकार से जानकारी मांगी। के.आर. मल्कानी की पत्नी सुंदरी मल्कानी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पूछा गया था कि उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर कहां रखा है। वे किस अवस्था में हैं। भारत सरकार की ओर से उसके वकील और नामी व्यक्ति लाल नारायण सिन्हा ने कबूला कि के.आर. मल्कानी को रोहतक जेल में रखा गया है। उन्हें मीसा (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) में गिरफ्तार किया गया है। इससे भारत सरकार को इमरजेंसी में पहली ठोकर लगी। उसी दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने के बारे में रेडियो पर अपना पक्ष रखा था। उसका सच से कोई संबंध नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार को जो मुंह की खानी पड़ी उससे वह अपनी तानाशाही को एक नकाब पहनाने के लिए बेताब हो उठी।
इसलिए भारत सरकार ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को एक अध्यादेश से निलंबित किया। 27 जून, 1975 को एक अध्यादेश निकाला गया। जिससे नागरिक के तीन मौलिक अधिकार समाप्त किए गए। पहला, हर नागरिक कानून के सामने समान है। इसे निलंबित किया गया। दूसरा, हर नागरिक को जीवित रहने का अधिकार है। इसे छीन लिया गया। तीसरा, बिना कारण बताए किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यह अधिकार भी समाप्त कर दिया गया। दूसरे अध्यादेश से मीसा बंदियों को जो अधिकार कानून में थे, उसे समाप्त कर दिया गया। यह अध्यादेश 29 जून, 1975 को आया। इन अध्यादेशों का प्रभाव पूरे देश पर पड़ा। लेकिन इंदिरा गांधी की सरकार सबसे ज्यादा जिस संपादक से खौफ खाती थी, वे ‘मदरलैंड’ के संपादक के.आर. मल्कानी थे।
इसका एक इतिहास है। इंदिरा गांधी 1971 में भारी बहुमत से सत्ता में आईं थीं। उसी वर्श दिल्ली से अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ निकला। वह बड़ी निडरता से अपना कार्य कर रहा था। ‘मदरलैंड’ एक साहसी अखबार था। इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैए से बेपरवाह था। ‘मदरलैंड’ के समाचारों से सरकार के कान खड़े हो जाते थे। भारत सरकार बार–बार अपने पैरो में भूचाल अनुभव करती थी। के.आर. मल्कानी के संपादकीय लेख अगर कोई आज पढ़े तो वह पाएगा कि वे भविष्य में झांकने की महारत रखते थे। उनमें राजनीतिक दूरदर्शिता थी। पत्रकारिता के स्वधर्म का पालन करने में उन्हें आनंद आता था। उनके लेखन से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कितनी कुपित थी, इसका पता तब चला जब के.आर. मल्कानी इमरजेंसी में झूठे बहाने से एक जेल से दूसरी जेल में पूछताछ के लिए ले जाए जाते रहे।
एक दिन जेल अधीक्षक के.आर. मल्कानी से मिलने आया। उसने कहा कि आप को दूसरी जेल भेजा जा रहा है। मल्कानी ने सहज ही जिज्ञासा की, कहां? अधीक्षक ने बताया, ‘दिल्ली’। यह अविश्वनीय था। जो व्यक्ति दिल्ली से हरियाणा लाया गया हो, उसे भरी इमरजेंसी में दिल्ली भेजा जाएगा, यह ऐसी बात थी जो विष्वास से परे थी। अधीक्षक ने उन्हें जल्दी करने के लिए कहा। यह हिदायत दी कि वे भोजन कर तैयार रहे। इससे के.आर. मल्कानी को पहला संदेह हुआ क्योंकि दिल्ली कुछ देर का ही रास्ता था। एक अपराधी बंदी की तरह जालियों से घिरी जीप में पुलिस की चौकसी के साथ के.आर. मल्कानी बैठाए गए। वह यात्रा अबूझ थी। रहस्यमयी थी। दो घंटे बीत चुके थे। अचानक एक जगह जीप रूकी। के.आर. मलकानी ने देखा कि उनकी गाड़ी के पास एक कार खड़ी है। उसमें उन्हें बैठाया गया। वे जानना चाहते थे कि उनका सामान कहां है और जाना कहां है। इसका उन्हें यही उत्तर मिला कि सामान आ जाएगा। उन्हें एक छोटी कार में बैठाया गया। उनको आजू–बाजू से दो मोटे तगड़े व्यक्ति पकड़े हुए थे। थोड़ी देर बाद वह कार रूकी। जिस भवन के सामने रूकी, वह एक सरकारी ‘रेस्टहाउस’ था। वह एक नहर के किनारे बना था। वहां रोकने का कारण पूछने पर पुलिस ने बताया कि अगर कोई उत्पाती कैदी होता है तो उसे गोली मारकर नहर में फेंका जाता है। के.आर. मल्कानी के लिए यह एक असाधारण धमकी थी।
के.आर. मल्कानी खुद से पूछ रहे थे कि क्यों उन्हें ही ‘खास मेहमान’ बनाया जा रहा है। उन्हें उस रेस्टहाउस में कार से उतारा गया। फिर शुरू हुई अजीबो–गरीब पूछताछ। पांच–सात पुलिस अफसरों ने उन्हें बैठाया। सामने मेज थी। उसके चारों तरफ पुलिस अफसर थे। उनमें जो बड़ा अफसर था, उसने रोबदार आवाज में कहा, ‘मल्कानी साहब! हम आपसे सवाल करेंगे और आपसे हमें जवाब की आशा है।’ दूसरे अफसर ने धमकाया, ‘अगर आप सहयोग नहीं करेंगे तो हमें और तरीके अपनाने पड़ेंगे।’ के.आर. मल्कानी ने उनको असहमत निगाहों से निहारा। उसमें जो भाव मुद्रा थी वह पुलिस अफसरों के लिए भी डरावनी थी। सवाल–जवाब चलते रहे। चार घंटे बीत गए।
उस पूछताछ को पुलिस ने टेप किया। उसका रिकार्ड रखा। साफ था कि वह रिकार्ड प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवास पर पहुंचाया जाएगा। जो सवाल थे वे अंग्रेजी अखबार ‘मदरलैंड’ से जुड़े हुए थे। उन सवालों के दो हिस्से थे। पहले हिस्से के सवाल ‘मदरलैंड’ के बारे में थे। पुलिस के जरिए इंदिरा गांधी जानना चाहती थी कि ‘मदरलैंड’ की संस्थागत नेटवर्किंग कैसी थी। इसके लिए ही ज्यादातर सवाल जानकारी पाने के लिए पूछे गए थे। दूसरे हिस्से में वह खबर थी जो ‘मदरलैंड’ में छपी थी। उसका शीर्षक था-‘‘1976 की शुरूआत में इंदिरा गांधी के पतन की भविष्यवाणी।’’ यह खबर 26 जनवरी, 1975 को ‘मदरलैंड’ में छपी थी। यहां अवश्य यह याद करें कि उस खबर के छपने पर इंदिरा गांधी कितनी बेचैन थीं और अपनी वेचैनी में उनहोंने कुछ फैसले कर लिए थे। जिसकी जानकारी अटल बिहारी वाजपेयी को मिली। जिसका इस लेख के प्रारंभ में ही वर्णन है।
इंदिरा गांधी के पतन की भविष्यवाणी की खबर ‘मदरलैंड’ में अहमदाबाद की डेट लाइन से छपी थी। पुलिस वालों ने के.आर. मल्कानी को वह खबर अक्षरशः पढ़कर सुनाई। वह पंडित ‘वराहमिहिर’ से बातचीत थी। उस बातचीत में ‘मदरलैंड’ के संवाददाता ने प्रष्न पूछे थे। ज्योतिषी ने उत्तर दिए थे। उसका सार यह था कि 1966 से देश पर साढ़े साती का ग्रह घूम रहा है। वह 1976 तक बना रहेगा। इंदिरा गांधी 1976 में अपदस्थ हो जाएंगी। याद करें, 1966 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं। ज्योतिषी ने यह भी बताया था कि उनकी अप्राकृतिक मृत्यु होगी। 1976 से 1978 के दौरान देश अनेक उतार–चढ़ावों से गुजरेगा। उसके बाद स्थितियां सुधरेंगी। इंदिरा गांधी तानाशाह बनने का प्रयास करेंगी और उन्हें एक जनांदोलन का मुकाबला करना होगा। इसके बारे में के.आर. मल्कानी से पुलिस वालों ने जानना चाहा कि इंदिरा गांधी की अप्राकृतिक मृत्यु से आशय क्या है? उनसे लंबी पूछताछ हुई। लेकिन पुलिस वाले संपादक के.आर. मल्कानी से कुछ भी हासिल करने में विफल रहे। अंत में यह स्वीकार किया कि वे एक निर्देश पर यह काम कर रहे हैं।
के.आर. मल्कानी से इमरजेंसी में इंदिरा गांधी इतनी कुपित थी कि उन्हें समय–समय पर अलग–अलग जेलों में रखा गया। इमरजेंसी के 21 महीनों में वे संभवतः अकेले पत्रकार थे जिन्हें रोहतक, हिसार और दिल्ली जेल में घुमाया जाता रहा। वे मीसा बंदी थे। मीसा का पूरा नाम है, मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट। लेकिन के.आर. मल्कानी ने इसका नाम बदल दिया। उन्हांने इसका नाम रखा, मेंटेनेंस ऑफ इंदिरा एंड संजय एक्ट। इंदिरा गांधी कोई संत तो थी नहीं। आखिरकार एक साधारण राजनीतिक नेता थी, सत्ता के लाभ और लोभ से लबालब थी, तो उनकी नाराजगी मानवीय थी हालांकि विकृत थी। संविधान की भाषा में अलोकतांत्रिक थी। इसलिए इमरजेंसी को सुअवसर मानकर के.आर. मल्कानी को जितना सताया जा सकता था उतना पुलिस से उन्हें परेशान कराया गया। लेकिन के.आर. मल्कानी उससे न विचलित हुए और न परेशान।
उन्हांने इमरजेंसी में जो देखा, समझा और अनुभव किया उसे अपने संस्मरण ‘आधी रात कोई दस्तक दे रहा है’ में लिखा। उनका संस्मरण बार–बार पढ़े जाने योग्य है। अगर कोई पढ़ेगा तो उसे इमरजेंसी के कुराज की झलक मिलेगी। एक पत्रकार के साहस से वह परिचित हो सकेगा। सिर्फ साहस की बात नहीं है, के.आर. मल्कानी का भारतीय जन–जीवन में जो महत्वपूर्ण स्थान था, वह भी पुस्तक से झांकता हुआ दिखता है। के.आर. मल्कानी की पुस्तक को एक मकान मानें, तो इसका हर अध्याय वह खिड़की है जो उस दौर के नजारे को दिखाने के लिए चारों दिशाओं में खुलती है। इस पुस्तक में एक गंभीर संवैधानिक प्रश्न उठाया गया है। संभवतः किसी संविधानविद् ने यह प्रश्न न तो उठाया न इस पचड़े में कोई पड़ा। लेकिन यह स्थाई महत्व का प्रश्न है।
क्या इंदिरा गांधी की सरकार विधिसम्मत थीं? यही वह प्रश्न है जो आज भी प्रासंगिक है। इसे के.आर. मल्कानी ने अपनी पुस्तक के उस अध्याय में उठाया है जिसका शीर्षक है, ‘परीकथाओं से भी अजीब।’ इस प्रश्न का एक आधार है। वह यह
है कि 12 जून, 1975 को जब इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध ठहरा दिया गया और उन्हें सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत नहीं मिली, तो वे प्रधानमंत्री पद पर न तो कानूनी रूप से और न नैतिक दृष्टि से बने रह सकती थीं। इस संवैधानिक विद्रुपता को छिपाने के लिए इंदिरा गांधी ने भारत की जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। वह संविधान के साथ छल था। इमरजेंसी की घोशणा एक साजिश थी। क्योंकि जब इंदिरा गांधी की सरकार विधिसम्मत नहीं थीं तो उसे इमरजेंसी की घोषणा का संवैधानिक अधिकार भी नहीं था।
के.आर. मल्कानी की पुस्तक में एक रहस्योद्घाटन भी है। यह तो सभी जानते हैं कि 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव कराने की रेडियो पर उसी तरह घोषणा की जैसे कि उन्होंने इमरजेंसी लगाने की घोषणा की थी। लेकिन बड़े–बड़े लोग भूल जाते हैं कि चुनाव इमरजेंसी में कराए गए थे। चुनाव के ही दौरान 11 फरवरी, 1977 को राष्ट्रपति फख्ररूद्दीन अली अहमद की मृत्यु हुई। के.आर. मल्कानी ने इसे रहस्यमय बताया है। वह रहस्य तब ज्यादा गहरा हो जाता है जब राष्ट्रपति फख्ररूद्दीन अली अहमद के कुआलालंपुर के वक्तव्य को कोई उनकी मृत्यु से जोड़कर देखता है। कुआलालंपुर में उन्हांने पत्रकारों से कहा था कि वे इमरजेंसी के खिलाफ हैं। उस बयान को सरकारी न्यूज एजेंसी ‘समाचार’ ने दबाया और विदेशी न्यूज एजेंसी ‘रॉयटर्स’ ने जारी किया। उसे दुनिया भर में अखबारों ने छापा। उस घटना के बाद उन्हें वापस बुलाया गया। इंदिरा गांधी की सरकार ने घोषित करवाया कि राष्ट्रपति अस्वस्थ हैं।
इससे यह साबित होता है कि राष्ट्रपति फख्ररूद्दीन अली अहमद पर दबाव बनाया गया और उनसे इमरजेंसी की घोषणा पर अनुचित हस्ताक्षर कराया गया। अनुचित इसलिए कि मंत्रिमंडल में इमरजेंसी पर विचार नहीं हुआ था। मंत्रिमंडल की कोई सिफारिश नहीं थी। देष में आंतरिक अशांति का कोई खतरा नहीं था। खुफिया एजेंसियों ने जो रिपोर्ट गृह मंत्रालय को दी थी, उसमें भी अशांति की सूचना नहीं थी। उल्टे, उस रिपोर्ट में इसका विवरण था कि कानून–व्यवस्था में अपेक्षाकृत सुधार हुआ है। जेपी आंदोलन से जो वातावरण बना था और पुलिस की निगाह में कानून और व्यवस्था बिगड़ रही थी वह सुधरने लगी थी। राष्ट्रपति फख्ररूद्दीन अली अहमद इसी आधार पर इमरजेंसी लगाए जाने के पक्ष में नहीं थे। उनके निजी डाक्टर आर.के. करौली भी बातचीत में इसकी पुष्टि करते थे। वे राष्ट्रपति के डाक्टर थे। जिस समय आर.के. धवन इमरजेंसी की घोषणा के कागज पर दस्तखत कराने के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंचे उससे पहले ही वहां डा. आर.के. करौली बुला लिए गए थे। उन्होंने जो देखा वह याद रखा। उसे बातचीत में बताते थे।
