आहत कालखंड

अपनी अद्वितीय प्राकृतिक संपदा, विपुल मानव संसाधन, अकूत सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी तथा समृद्ध विरासत के बावजूद भारत की गिनती आज गरीब देशों में होती है। देश की आधी से अधिक आबादी गरीबी की मार झेल रही है। चारों ओर भूख, बेरोजगारी एवं तमाम किस्म की अन्य समस्याओं का बोलबाला है। भारत की इस स्थिति के लिए काफी हद तक हजार वर्षों की गुलामी जिम्मेदार है। इन वर्षों में हम अपना पारंपरिक ज्ञान लगभग भूल गए। हमारे ऊपर ऐसी व्यवस्थाएं लद गईं या लाद दी गईं जिनके कारण हमारा अपने ऊपर से विश्वास उठ गया।

भारतभूमि पर विदेशी लोगों का आना तो इतिहास में प्रायः होता रहा, किंतु भारतीय सभ्यता की एकरूप धारा सर्वदा अबाध प्रवाहित होती रही। इस निर्बाध प्रवाह में अवरोध की संभावना पहली बार ईसा की प्रथम सहस्राब्दी के उत्तरार्ध में भारत की उत्तर पश्चिमी सीमाओं पर मुस्लिम आक्रांताओं के धमकने से ही उपस्थित हुई। 713 ईस्वी में इस्लामी हमलावरों ने सिंध पर कब्जा कर लिया। लगभग तीन शताब्दी तक रुके रहने के बाद 11वी शताब्दी से फिर इस्लामी हमला शुरू हो गया।

सन् 1000 से 1026 के बीच गजनवी ने सत्रह बार भारत पर आक्रमण किया और वह पंजाब प्रदेश को अपने राज्य में मिलाने में सफल रहा। बाद में 1192 में मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हरा कर भारत के हृदय प्रदेश पर इस्लामी शासन स्थापित कर दिया। बारहवीं शताब्दी के अंत से लेकर प्रायः अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक मध्य एशियाई तुर्क एवं मंगोल मूल के अनेक फारसीभाषी इस्लामी शासक परिवारों ने भारत के बड़े भूभाग पर शासन किया। भारतभूमि पर राज करने वाले इन मुस्लिम शासनों में सर्वाधिक सक्षम मुगल शासन था।

जिस इस्लामी विश्व की छोर पर मुगल भारत स्थित था, उसके केंद्र में इस्तांबुल, इस्फाहान और समरकंद थे। भारत के मुस्लिम शासक अपने को पश्चिम के इस्लामी विश्व का प्रतिनिधि मानते थे। वे इस्लाम के नाम पर शासन करते थे और मूूल इस्लामी विश्व के आटोमन एवं सफावी शासकों से प्रशस्तियां पाने की सतत अपेक्षा में रहते थे। वे अपने तुर्क एवं मंगोल मूल के प्रति सर्वदा गर्वित एवं सचेत थे। अतः वे आग्रहपूर्वक भारतीय सभ्यता की एकरूप मुख्यधारा में विलीन होने से बचते रहे। इस प्रकार वे भारत की एकरूपता को खंडित करने का प्रथम स्रोत बने। इससे पहले भारतीय सभ्यता यहां की समस्त विविधताओं को अपने में समेटे हुए एक एकरूप धारा के रूप में प्रवाहित हो रही थी। मुस्लिम शासनकाल में यह धारा दो भागों में बंट गई।

भारत पर अपने शासन के दौरान इस्लामी शासकों ने न केवल अपने को भारतीय सभ्यता की सनातन धारा से अलग रखा, बल्कि उसे नष्ट करने का भी भरपूर प्रयास किया। इस्लाम से इतर बुद्धि-धाराओं को शैतानियत और कुफ्र बताकर गैर मुस्लिम शिक्षा, धर्म एवं संस्कृति केंद्रों को बार-बार तहस-नहस किया गया। तक्षशिला, नालंदा, सिंध-हैदराबाद, लरकाना, पाटन, मुल्तान, चित्तौड़, रणथंभौर, उज्जयिनी, चंदेरी, धार, वृंदावन, मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, काशी, कामरूप, नवद्वीप, पाटलिपुत्र जैसे प्रमुख भारतीय केंद्रों को खासतौर से निशाना बनाया गया।

भारत की एक बड़ी आबादी को इस्लाम कबूल करने के लिए मजबूर किया गया। यद्यपि हिंदू राजाओं के प्रचंड प्रतिकार, हिंदू बौद्धिक समूहों की निरंतर बुद्धिसाधना एवं हिंदू समाज के जातिगत दृढ़ संगठन ने इस्लामी मंसूबों को पूरी तरह सफल नहीं होने दिया, बल्कि उसकी प्रचंडताको शिथिल और मर्यादित किया। फिर भी इसमें कोई दो राय नहीं कि इस्लामी शासन के दौरान भारतीय सभ्यता बुरी तरह आहत हुई। पहले जो भारतीय समाज प्रतिगतिशील था, इस्लामी शासन के दौरान उसमें जड़ता के लक्षण दिखाई देने लगे। स्वयं को परिमार्जित करते रहने की क्षमता प्रभवित होने के कारण उसमें कई कुरीतियां घर कर गई। यही नहीं, लगभग 30 प्रतिशत आबादी और 35 प्रतिशत क्षेत्रफल पर भारतीय सभ्यता और संस्कृति लगभग समाप्त हो गई। यहां इस्लाम ने सब कुछ अपने शिकंजे में ले लिया।

समय के साथ जब 18वीं शताब्दी में इस्लामी साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा तब भारत के विभिन्न प्रदेशों में मराठे, जाट और सिख आदि समर्थ सैनिक शक्तियों के रूप में उभरे और उन्होंने भारत के विभिन्न भागों में स्वदेशी भारतीय शासन को पुनः स्थापित करने का कार्य प्रारंभ किया। परंतु इससे पहले कि उनके ये प्रयास अपनी परिणति पर पहुंचते और भारतवर्ष पर एक सशक्त, समेकि, स्वदेशी साम्राज्य स्थापित हो पाता, ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियां यहां आ धमकीं। और इस प्रकार भारतवर्ष मध्ययुग के इस्लामी वैश्विक साम्राज्य से छूटकर अंग्रेजी साम्राज्य के चंगुल में आ फंसा।

इस्लामी हमलावरों ने भारतीय समाज संचालन में लगी शक्तियों के बाह्य स्वरूप पर प्रमुखता से प्रहार किया था-जैसे मंदिरों का ध्वंस करना, जजिया कर लगाना, बलपूर्वक धर्मांतरण कराना आदि। लेकिन, अंग्रेजों ने समाज के बाह्य प्रतीकों पर खुलेआम हमला नहीं किया। उन्होंने भारतीय समाज की सोच को अपना निशाना बनाया। मुस्लिम शासकों के विपरीत अंग्रेजों ने भारत को कभी अपना स्थायी निवास नहीं बनाया। उन्होंने यहां की राजसत्ता पर नियंत्रण स्थापित करके इसे एक उपनिवेश बनाया और यहां एक ऐसा तंत्र विकसित किया जिसके द्वारा वे यहां की धन-संपदा को बड़े पैमाने पर अपने देश ले जा सकें। मद्रास में बोर्ड आफ रेवेन्यू के अध्यक्ष रहे जान सूलीवान ने एक बार कहा था, ‘‘हमारी प्रणाली एक ऐसे स्पंज के रूप में काम करती है जो गंगा किनारे से प्रत्येक अच्छी वस्तु ले लेती है और फिर उसे टेम्स के किनारे निचोड़ देती है।’’ जान सूलीवान का इशारा उस लूट की तरफ है जो इस देश में लगभग ढाई सौ साल तक चली। मुसलमान लुटेरों ने केवल वहां लूटा जहां सब जगह से धन आकर एकत्रित होता था। वे झोपड़ियों को नहीं लूटते थे, लेकिन अंग्रेजों ने हर एक भारतीय, चाहे उसकी आर्थिक स्थिति कैसे भी हो, की कमाई में अपना हक निर्धारित किया और उसे बड़ी निर्ममता से वसूल भी किया।

मुस्लिम आक्रमणकारियों एवं ब्रिटिश हुकूमत की शोषणकारी नीतियों के बावजूद वहां के आर्थिक विकास की संभावनाों पर पाश्चात्य विद्वान मैडिसिन ने अपने अध्ययनों में यहां पाया कि भारत में आर्थिक समृद्धि और विकास की असीम संभावनाएं हैं। उनको अपने अध्ययन से यह पता चला कि तत्कालीन भारतीय समाज में आर्थिक गतिविधियां लोगों के बीच में वृहद् रूप से विभाजित थीं या यों कहें कि कई स्तरों में विभाजित थीं। उन्होंने विलियम डैरिम्पल का हवाला दिया जिसने भारत के उदय को ‘साम्राज्य का पुनः उदय’ के रूप में रेखांकित किया।

अंग्रेजों की लूट में यहां के आत्मकेंद्रित एवं स्वावलंबी गांव बहुत बड़ी बाधा थे। गांवों की इस ताकत को तोड़ने के लिए उन्होंने कई कदम उठाए। इसमें 1793 का लैंड सेटलमेंट एक्ट प्रमुख था। विदेशी हुकूमत के पहले भारत में भूमि व्यक्ति या राज्य की नहीं बल्कि गांव और समाज की सम्पत्ति होती थी। मुसलमानों ने इस व्यवस्था को कमजोर किया जबकि अंग्रेजों ने इसे समाप्त ही कर दिया। उन्होंने कुछ जमीन गिने-चुने लोगों को दे दी और काफी बड़ा हिस्सा प्रत्यक्ष रूप से अपने नियंत्रण में ले लिया। भूमि के व्यक्तिगत स्वामित्व के कारण ‘हमारी जमीन हमारा हक’ की मनोवृत्ति बढ़ी और समाज का ध्यान पीछे छूट गया। इससे गांव के सामाजिक ताने-बाने पर बहु बुरा असर पड़ा। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने गांवों को उनकी फैक्ट्रियों  के लिए कच्चा माल तैयार करने का उपकरण बना दिया।

कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होने वाले उत्पादों को नकदी फसल के तौर पर पेश किया गया। पहले जो कृषि जीवनयापन का माध्यम थी, उसका वाणिज्यीकरण हो गया। अपने बड़े-बड़े मिल कारखानों को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजी शासन ने यहां के हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योगों को भी नष्ट करने की मुहिम चलाई। इन नीतियों से बेरोजगार हुए लोगों को खेतों और कारखानों में मजदूरी करने के लिए विवश किया गया। पहले जहां कानून व्यवस्था का काम गांव की पंचायतें किया करती थीं, वहीं इसके लिए अब कोर्ट-कचहरी और थानों की एक श्रृंखला स्थापित की गई।

भारत की इस बेतहासा लूट का ही परिणाम था कि 1857 के विद्रोह में यहां के आम आदमी ने खुलकर हिस्सा लिया। इस विद्रोह को अंग्रेजों ने कुचल दिया, किंतु वे इसके बाद अधिक सावधान हो गए। भारतीय समाज की शक्ति को कुंद करने के लिए आम्र्स एक्ट एवं सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट जैसे कई कानून बनाए गए। उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति में हेर-फेर करके भारत के स्वाभिमान और आत्मविश्वास को खंडित करने की प्रक्रिया को तेज कर दिया। अंग्रेजों ने हमारे लिए एक संपूर्ण वैचारिक-बौद्धिक व्यवस्था रच डाली। भारत के लोग जिन-जिन विषयों को महत्वपूर्ण एवं मूूल्यवान माना करते थे उन सबकी निंदा एवं निषेध करना, भारत की समस्त नैसर्गिक एवं सभ्यतागत संपदाओं, उपलब्धियों तथा दक्षताओं को निकृष्ट, तुच्छ और उपेक्षणीय परिभाषित करना उनकी वैचारिक-बौद्धिक संरचना का एकमात्र उद्देश्य था।

इस सबका परिणाम यह हुआ कि भारत के लोग, विशेष रूप से भारत के समर्थ और संभ्रांत लोग भारतीय सभ्यता की मूल प्रवृत्तियों की सच्चाई और उपयोगिता के प्रति संदेह एवं शंका का भाव रखने लगे। भारत पर इस्लामी शासन काल पर्याप्त रूप से लंबा एवं कठिन था, परंतु इस काल में कभी ऐसा नहीं हुआ कि साधारण अथवा संभ्रांत भारतीयों ने इस्लामी सभ्यता को भारतीय सभ्यता से किसी भी आयाम में उच्चतर माना हो।

इस्लामी शासन के संपूर्ण काल में भारत के लोग भारतीय सभ्यता की मूल प्रवृत्तियों एवं संस्थाओं के संरक्षण का निरंतर प्रयास करते रहे। लेकिन, अंग्रेजों के आने के बाद भारत के संभ्रांत लोग भारतीय सभ्यता के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों में विश्वास खोने लगे। 1915 से 1955 के छोटे से कालखंड में महात्मा गांधी साधारण एवं संभ्रांत भारतीयों के भारतीयता में विश्वास को पुनर्जीवित करने में सफल हुए। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी द्वारा प्रज्ज्वलित आत्मविश्वास की ज्योति उस गहन अंधकार का निवारण नहीं कर पायी जो यूरोपीय शिक्षा एवं कुप्रचार के प्रभाव में संभ्रांत भारतीयों के मन में पसर गया था। इस प्रकार प्रभाव की दृष्टि से यदि देखा जाए तो लगभग 200 वर्ष का ब्रिटिश शासनकाल, मुसलमानों के 600 वर्ष लंबे शासनकाल मसे कई गुना अधिक हानिकारक रहा। इसने भारतीय सभ्यता को वो चोट पहुंचाई जिसका आज भी निदान ढूंढ़ना मुश्किल साबित हो रहा है।

व्यवस्था परिवर्तन की राह पुस्तक से

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