खेती और पशुपालन भाग – १

 

हमारे देहातियों का गुजर खेती पर होता है और खेती का गाय पर । मैं इस विषय में अंधा सा हूँ । निजी अनुभव मुझे नहीं है। परंतु ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ खेती न हो और गाय न हो। भैंसें हैं, लेकिन वे कोंकण वगैरह को छोड़कर खेती के लिए अधिक उपयोगी नहीं हैं। तब भी भैंस का हमने बहिष्कार किया है, ऐसी बात नहीं है। इसलिए ग्राम्य पशुधन का, खासकर अपने गाँव के पशुओं का, हमारे कार्यकर्ता को पूरा खयाल करना होगा। इस बड़ी भारी समस्या को यदि हम हल न कर सके, तो हिंदुस्तान की बरबादी होने वाली है और साथ-साथ हमारी भी; क्योंकि उस अवस्था में हमारे सामने पश्चिमी देशों की तरह इन पशुओं का, आर्थिक दृष्टि से उनके बोझ रूप होने पर कत्ल किए सिवा कोई चारा न रहेगा।

प्रारंभ से ही मेरी यह दृढ़ श्रद्धा रही है कि इस देश के वासियों के लिए खेती ही एकमात्र अटूट और अचल सहारा है। इसकी भी खोज हम करेंगे और देखेंगे कि इसके सहारे कहाँ तक जाया जा सकता है। यदि हमारे लोग खादी के बदले खेती में विशारद होकर लोगों की सेवा करेंगे, तो मुझे अफसोस न होगा। मैं इतना देख चुका हूँ कि हमें बहुत कष्ट उठाना है। अब खेती की ओर ध्यान देने का समय आ गया है। आज तक मैं मानता रहा कि जब तक सरकार के अधिकार हमारे हाथों में नहीं आते, देश की खेती का सुधार असंभव है। अब मेरे उन विचारों में कुछ परिवर्तन हो रहा है। मैं यह महसूस करता हूँ कि मौजूदा हालत में भी हम कुछ हद तक सुधार कर सकते हैं। यदि यह ठीक है तो लगान वगैरह आसानी से देकर भी जमीन के सहारे किसान अपने लिए कुछ प्राप्त कर सकेगा। जवाहरलाल कहता है कि खेती सुधारोगे तब भी, जब तक विदेशी सरकार हम पर है तब तक किसी-न-किसी बहाने या तरीके से वह किसान की कमाई लूटती रहेगी। लेकिन अब मैं सोचने लगा हूँ कि यदि ऐसा हो तब भी खेती के ज्ञान और जानकारी का प्रचार करने से हम क्यों रुकें ? फिर भले ही हमारा किया कराया सरकार लूट ले । लूटेगी तो हम भी लड़ेंगे। लोगों से लड़ने को कहेंगे, सिखाएँगे। सरकार को बता देंगे कि तुम इस तरह हमें नहीं लूट सकते। इसलिए अब हमें ऐसे कार्यकर्ता खोजने होंगे, जिन्हें खेती में रस हो ।

इसलिए मैं यही सोचता हूँ कि खेती, गो-पालन और अन्य सब ग्रामीण उद्योगों को किस तरह देहातों में फिर से बसाऊँ, जिससे लोगों की स्थिति अच्छी हो । यदि दो-चार देहात में भी मैं यह कर सका तो मेरी समस्या हल हो जाएगी – यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे

जिसे अहिंसा का पालन करना है, सत्य की आराधना करनी है, ब्रह्मचर्य पालन को स्वाभाविक बनाना है, उसके लिए तो शरीर – श्रम रामबाण हो जाता है। यह श्रम वास्तव में देखा जाए तो खेती से ही संबंध रखता है । पर आज की जो स्थिति है, उसमें सब उसे नहीं कर सकते। इसलिए खेती का आदर्श ध्यान में रखकर आदमी बदले में दूसरा श्रम, जैसे- कताई, बुनाई, बढ़ईगिरी, लुहारी इत्यादि कर सकता है।

कई साल हुए, मैंने एक कविता पढ़ी थी, जिसमें किसान को दुनिया का पिता कहा गया है । अगर परमात्मा देनेवाला है तो किसान उसका हाथ है। हम पर किसान का जो ऋण है, उसे चुकाने के लिए हम क्या करनेवाले हैं? अभी तक तो हम उसके गाढ़े पसीने की कमाई खाते रहे हैं। हमें खेती से काम शुरू करना चाहिए था, लेकिन हम ऐसा कर न सके। इस कसूर की जिम्मेदारी कुछ हद तक मुझ पर है।

कुछ लोग कहते हैं कि जब तक राजनीतिक ताकत हमारे हाथ में न आ जाए तब तक खेती में कोई बुनियादी सुधार नहीं हो सकता। उनका स्वप्न है कि भाप और बिजली का बड़े पैमाने पर उपयोग करके मशीन की ताकत से खेती की जाए। जल्दी- जल्दी फसल लेने के लालच में जमीन के उपजाऊपन का व्यापार करना अंत में बरबाद कर देनेवाला सिद्ध होगा और वह सिर्फ संकुचित दृष्टिवाली नीति होगी। इसका नतीजा यह होगा कि जमीन का उपजाऊपन कम होता जाएगा। अच्छी जमीन से खुराक पैदा करने के लिए पसीना बहाने की जरूरत होती है।

लोग शायद इस दृष्टि की टीका करें और कहें कि यह दृष्टि प्रगति-विरोधी है और इससे काम धीमा होगा। मैं भी इससे जल्दी कोई नतीजा निकलने की आशा नहीं रखता। फिर भी जमीन और उस पर रहनेवाले लोगों की समृद्धि की कुंजी इसी में है । स्वास्थ्य और शक्ति देनेवाली खुराक ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था का आधार है। किसान की आमदनी का ज्यादा हिस्सा उसके और उसके परिवार के भोजन पर ही खर्च होता है। बाकी सब चीजें बाद में आती हैं। खेती करनेवाले को अच्छी खुराक दो। उसे ताजे और शुद्ध घी, दूध और तेल काफी मात्रा में मिलने चाहिए और अगर वह मांस खाता हो तो उसे मछली, अंडे और गोश्त भी मिलना चाहिए। अगर उसे पेट भर भी पोषक खाना नहीं मिला तो मिसाल के तौर पर, उसके पास अच्छे कपड़े हुए भी तो क्या लाभ ! इसके बाद पीने के पानी की व्यवस्था करने का सवाल और दूसरे सवाल आएँगे। इन सवालों पर विचार करते हुए कुदरती तौर पर ऐसी बातें भी निकल आएँगी, जैसे ट्रैक्टर से हल चलाने और मशीन से जमीन को पानी देने की तुलना में खेती के अर्थशास्त्र में बैल का क्या स्थान है। इस तरह से एक-एक बात करते-करते ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था का पूरा चित्र उनके सामने उभर आएगा। इस चित्र में शहरों का भी उचित स्थान होगा। आज की तरह वे समाज – शरीर पर उठे हुए फोड़ों या गाँठों की तरह अस्वाभाविक नहीं मालूम होंगे। आज यह खतरा बढ़ रहा है कि कहीं हम अपने हाथों का उपयोग करना ही न भूल जाएँ । मिट्ठी खोदने और जमीन की देखभाल करने की बात को भूलना अपने आपको भूलना है। अगर आप यह समझें कि सिर्फ शहरों की सेवा करके अपने मंत्री पद का कर्तव्य पूरा कर दिया तो आप इस बात को भूल जाते हैं कि हिंदुस्तान असल में सात लाख गाँवों में बसा हुआ है। अगर किसी आदमी ने सारी दुनिया ले ली, लेकिन साथ ही अपनी आत्मा खो दी तो उसने इस सौदे में क्या पाया ?

इन भारतीय किसानों से ज्यों ही आप बात करेंगे और वे आपसे बोलने लगेंगे, त्यों ही आप देखेंगे कि उनके होंठों से ज्ञान का निर्झर बहता है। आप देखेंगे कि उनके अनगढ़ बाहरी रूप के पीछे आध्यात्मिक अनुभव और ज्ञान का गहरा सरोवर भरा पड़ा है। मैं इसी चीज को संस्कृति कहता हूँ । पश्चिम में आपको यह चीज नहीं मिलेगी । आप किसी यूरोपीय किसान से बातचीत करके देखें, तो पाएँगे कि उसे आध्यात्मिक वस्तुओं में कोई रस नहीं है ।

भारतीय किसान के फूहड़पन के बाहरी आवरण के पीछे युगों पुरानी संस्कृति छिपी पड़ी है। इस बाहरी आवरण को हम अलग कर दें, उसकी दीर्घकालीन गरीबी और निरक्षरता को हटा दें, तो हमें सुसंस्कृत, सभ्य और आजाद नागरिक का एक सुंदर-से- सुंदर नमूना मिल जाएगा।

हमें उन्हें यह सिखाना है कि वे समय, स्वास्थ्य और पैसे की बचत कैसे कर सकते हैं। लिओनेल कर्टिस ने हमारे गाँवों का वर्णन करते हुए उन्हें घूरे के ढेर कहा है। हमें उन्हें आदर्श गाँवों में बदलना है। हमारे ग्रामवासियों को शुद्ध हवा नहीं मिलती, यद्यपि वे शुद्ध हवा से घिरे रहते हैं; उन्हें ताजा अन्न नहीं मिलता, यद्यपि उनके चारों ओर ताजे से ताजा अन्न होता है। इस अन्न के मामले में मैं मिशनरी की तरह इसलिए बोलता हूँ कि मैं गाँवों को एक सुंदर दर्शनीय वस्तु बना देने की आकांक्षा रखता हूँ ।

हमें गाँवों को अपने चंगुल में जकड़कर रखनेवाले जिस त्रिविध रोग का इलाज करना है, वह रोग इस प्रकार है :

(१) सार्वजनिक स्वच्छता की कमी, (२) पर्याप्त और पोषक आहार की कमी, (३) ग्रामवासियों की जड़ता। ग्रामवासी अपनी उन्नति की ओर से उदासीन हैं। स्वच्छता के आधुनिक उपायों को न तो वे समझते हैं और न उनकी कद्र करते हैं। अपने खेतों को जोतने-बोने या जिस तरह का परिश्रम वे करते आए हैं, वैसा परिश्रम करने के सिवा अधिक कोई श्रम करने के लिए वे राजी नहीं हैं। ये कठिनाइयाँ वास्तविक और गंभीर हैं। लेकिन इनसे हमें घबराने की या हतोत्साह होने की जरूरत नहीं। हमें अपने ध्येय और कार्य में अमिट श्रद्धा होनी चाहिए। हमारे व्यवहार में धीरज होना चाहिए। ग्राम- कार्य में हम खुद भी तो नौसिखिया ही हैं। हमें एक पुराने और जटिल रोग का इलाज करना है । धीरज और सतत परिश्रम से, यदि हममें ये गुण हों तो, कठिनाइयों के पहाड़ तक जीते जा सकते हैं। हम उन परिचारिकाओं की स्थिति में हैं, जो उन्हें सौंपे हुए बीमारों को इसलिए नहीं छोड़ सकतीं कि उन बीमारों की बीमारी असाध्य है।

आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि लोग हमेशा हर काम को, चाहे वह खेती हो या गाँवों से संबंध रखनेवाला कोई अन्य उद्योग हो, व्यवस्थित रीति से और इस तरह करने लग जाएँ, जिससे उन्हें अच्छी आय होने लगे। अगर हम लोगों को यह सिखा दें या उन्हें इस तरह काम करने के लिए राजी कर लें तो वही सबसे बड़ी शिक्षा होगी।

मैं तो यह भी कहने का साहस करता हूँ कि एक वर्ग की हैसियत से साधारणतया हिंदुस्तान की ग्रामीण जनता भले ही असंस्कृत नजर आए, परंतु मनुष्य स्वाभाव की स्वाभाविक गुण-संपत्ति में वह किसी भी देश की ग्रामीण जनता की तुलना में कम नहीं उतरेगी। इसकी साक्षी तो वे अधिकांश विदेशी यात्री दे सकते हैं, जो ह्वेनसाँग के समय से आज तक वहाँ आए हैं और जिन्होंने अपने प्रवासों के वर्णन लिख रखे हैं। हिंदुस्तान के ग्राम जनों की स्वाभाविक संस्कृति, उनके मकानों में दिखाई देनेवाली कला, उनके आचार-व्यवहार और संयम – ये सब उस धर्म की देन हैं, जो अनादिकाल से उन्हें एकसूत्र में बाँधे हुए है।

किसानों का – वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करनेवाले जमीन मालिक हों- स्थान पहला है। उनके परिश्रम से ही पृथ्वी उपजाऊ और समृद्ध हुई और इसलिए सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाहिए, जमीन से दूर रहनेवाले जमींदारों की नहीं। लेकिन अहिंसक पद्धति में मजदूर-किसान इन जमींदारों से उनकी जमीन बलपूर्वक नहीं छीन सकता। उसे इस तरह काम करना चाहिए कि जमींदार के लिए उसका शोषण करना असंभव हो जाए। किसानों में आपस में घनिष्ठ सहकार होना नितांत आवश्यक है। इस हेतु की पूर्ति के लिए जहाँ वैसी समितियाँ न हों, वहाँ वे बनाई जानी चाहिए, और जहाँ हों, वहाँ आवश्यक होने पर उनका पुनर्गठन होना चाहिए। किसान ज्यादातर अनपढ़ हैं। स्कूल जाने की उम्र वाले बालकों और वयस्कों को शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा पुरुषों और स्त्रियों दोनों को दी जानी चाहिए। भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की मजदूरी इस हद तक बढ़ाई जानी चाहिए कि वे सभ्यजनोचित जीवन की सुविधाएँ प्राप्त कर सकें। यानी उन्हें संतुलित भोजन और आरोग्य की दृष्टि से जैसे चाहिए, वैसे घर और कपड़े मिल सकें ।

अगर मेरा वश चले तो हमारा गवर्नर जनरल किसान होगा, हमारा प्रधानमंत्री किस न होगा, सब कोई किसान होंगे; क्योंकि यहाँ का राजा किसान है। मुझे बचपन में एक कविता पढ़ाई गई थी – ‘हे किसान तू बादशाह है।किसान जमीन से अन्न पैदा न करे, तो हम क्या खाएँगे ? हिंदुस्तान का सच्चा राजा तो वही है। लेकिन आज हम उसे गुलाम बनाकर बैठे हैं। आज किसान क्या करे ? एम. ए. पास करे ? बी. ए. पास करे ? ऐसा उसने किया तो किसान मिट जाएगा। बाद में वह कुदाली नहीं चलाएगा। जो आदमी अपनी जमीन से अन्न पैदा करता है और खाता है, वह यदि जनरल बने, मंत्री बने तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी। आज जो सड़ाँध फैली हुई है, वह मिट जाएगी ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *