बिहार में चुनावी दंगल

प्रज्ञा संस्थानतारीखों के ऐलान के साथ ही बिहार में विधानसभा चुनाव की सियासी जंग तेज होती जा रही है। चुनाव आयोग ने 6 अक्टूबर को इसकी घोषणा की। इसके बाद छोटे-बड़े सभी दल एवं नेता अपनी राजनीतिक गोटियां फिट करने में जुट गए। नेताओं का एक पार्टी छोड़कर दूसरे में जाने का सिलसिला भी शुरू है। दलबदल का यह सिलसिला टिकट कटने से पहले ही शुरू हो गया। लेकिन इन सबसे इतर इस बार विधानसभा चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण होने जा रहा है। बिहार में एसआईआर संपन्न होने के बाद यह पहला चुनाव है। इसके अलावा दशकों से यहां दो प्रमुख गठबंधनों के बीच होने वाले चुनाव में इस बार प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी को तीसरी शक्ति के रूप में बताया जा रहा है। एसआईआर और जनसुराज पार्टी का नतीजों पर प्रभाव पड़ता है या नहीं, इसे देखना बेहद दिलचस्प होने वाला है। इसलिए न केवल बिहार के राजनीतिक विश्लेषक, बल्कि देश भर के विश्लेषकों एवं राजनीतिक दलों की नजर इस विधानसभा चुनाव पर है, क्योंकि चुनाव आयोग ने घोषणा कर दी है कि बिहार के बाद अब पूरे देश में एसआईआर लागू किया जाएगा।

सत्तारूढ़ एनडीए को उम्मीद है कि बिहार की जनता एक बार फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सुशासन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास (डबल इंजन) वाली सरकार पर भरोसा जताएगी। इसलिए आगामी विधानसभा चुनावों में एनडीए ने विकसित बिहारका नारा दिया है। गठबंधन ने केंद्र की मोदी और बिहार की नीतीश सरकार की विकास योजनाओं को चुनावी एजेंडा बनाया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बार एक करोड़ युवाओं को रोजगार देने का वादा किया है। इसके अलावा पिछले दिनों ही केंद्र सरकार ने बिहार में दो नए एक्सप्रेस-वे की घोषणा की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों बिहार की एक रैली में कहा, ’2047 को जब देश अपनी स्वतंत्रता का शताब्दी वर्ष मनाएगा, तब देशवासी विकसित भारत के सपने को साकार करेंगे। इसमें बिहार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होने वाली है।गठबंधन के सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) के नेताओं का भी यही मानना है। नीतीश कैबिनेट के मंत्री एवं जदयू के वरिष्ठ नेता अशोक चौधरी कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य जंगल राजकी अंधेरी गलियों से निकल कर विकसित भारत 2047’ के सपने की ओर तेजी से फर्राटे मार रहा है।

पिछले बिहार दौरे के समय केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी राज्य के विकास को ही चुनावी मुद्दा बताया। उन्होंने विपक्ष पर जाति एवं धर्म आधारित राजनीति करने का भी आरोप लगाया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि एनडीए सरकार से  पूर्व बिहार में जंगलराज था। यह किसी से छिपा नहीं है और ये मेरे शब्द भी नहीं हैं। न्यायालय ने तत्कालीन शासन व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए बिहार में जंगलराजकहा था। जब से राज्य में एनडीए की सरकार बनी है, तबसे उसने बिहार को जंगलराज से बाहर निकाल कर विकास और सुशासन की नई दिशा दी है। गृहमंत्री अमित शाह को पूरा भरोसा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में भी राज्य की जनता एक बार फिर जंगलराजको नहीं, बल्कि विकास की राजनीतिको ही चुनेगी। उन्होंने कहा, ‘इस चुनाव में एनडीए पहले के सभी चुनावों से ज्यादा सीटें जीतकर सरकार बनाने जा रहा है। बिहार की जनता सुशासनपर ही बटन दबाएगी। जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा ने भी इन्हीं शब्दों को दोहराया है। उन्हें पूरा विश्वास है कि बिहार में फिर से एनडीए की सरकार बनेगी। इसके पीछे वह बिहार में हो रहे विकास कार्यों को कारण मानते हैं। उन्होंने कहा कि यह चुनाव राज्य के विकास को जारी रखने, घुसपैठियों से मुक्ति दिलाने और जंगलराजकी वापसी रोकने के लिए है।

इसके उलट इंडी गठबंधन (बिहार में महागठबंधन) ने जाति आधारित राजनीति कर सत्ता की कुर्सी पर बैठने की रणनीति बनाई है। महागठबंधन में शामिल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस जैसी पार्टियां सामाजिक न्याय के नाम पर वोट बैंक मजबूत करने में जुटी हैं। 3 मई को पटना में राष्ट्रीय जनता दल के अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) प्रकोष्ठ ने अति-पिछड़ा जगाओ, तेजस्वी सरकार बनाओरैली का आयोजन किया था। इस रैली को तेजस्वी यादव ने भी संबोधित किया था। रैली को संबोधित करते हुए तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री एवं जनता दल (यूनाइटेड) सुप्रीमो नीतीश कुमार पर तीखा हमला बोला और कहा, ‘कोई भी अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का परिवार उनके शासन में सुखी नहीं हो पाया। आपकी स्थिति आज भी वही है, जो पहले थी। इस दौरान सिर्फ नीतीश चाचा ही फले-फूले हैं। उन्होंने आपसे रोजगार और सुरक्षा का वादा किया था। अपराध और अपराधियों से भी मुक्ति का वादा किया था। लेकिन क्या आप सुरक्षित हैं? आपको रोजगार मिला? इसका जवाब सिर्फ नहीं है।

तेजस्वी यादव की रैली का नामकरण भी जाति आधारित है। यह नामकरण खुद-ब-खुद उनकी जातिवादी राजनीति की गवाही देता है। इस रैली से ठीक चार दिन पहले यानी 29 अप्रैल को तेजस्वी ने वैश्य समुदाय के लोगों को संबोधित किया था। तब मौका था, भामा शाह जयंती का। 16वीं सदी के इस नायक के सम्मान में राष्ट्रीय जनता दल ने पटना स्थित अपने कार्यालय में एक समारोह आयोजित किया था। पिछले कुछ वर्षों में तेजस्वी यादव द्वारा कभी उनकी जयंती नहीं मनाई गई थी। लेकिन चुनावी वर्षों में उन्हें पिछड़ा, अति पिछड़ा के साथ-साथ वैश्य समुदाय के लोगों की चिंता सताने लगी है। भामा शाह जयंती में तेजस्वी यादव ने वैश्य समुदाय से कहा, ‘आपकी व्यापारिक क्षमता ने बिहार के विकास को गति दी है। लेकिन इस सरकार ने आपके योगदान की कभी सराहना तक नहीं की। तेजस्वी ने यह भी कहा कि अगर आप मेरे साथ एक कदम चलेंगे, तो मैं आपके लिए चार कदम चलूंगा।

मालूम हो कि अति पिछड़ा वर्ग जदयू और वैश्य समुदाय भाजपा का वोटर रहा है। तेजस्वी की नजर इन वोटरों पर है। इसके पीछे एक स्पष्ट कारण है। पिछले विधानसभा चुनाव (वर्ष 2020) में तेजस्वी यादव सत्ता की कुर्सी पर नहीं पहुंच पाए। उक्त चुनाव में महागठबंधन को 110 सीटें, तो एनडीए को 125 सीटें मिली थीं। दोनों गठबंधनों के बीच 15 सीटों का अंतर था, लेकिन वोट शेयर में महागठबंधन सिर्फ 0.03 प्रतिशत से पिछड़ कर सत्ता का स्वाद नहीं चख पाया। वोटों की बात करें तो दोनों गठबंधनों में सिर्फ 11,150 वोटों का अंतर था। तेजस्वी यादव वोटों के इस अंतर को पाटने के लिए भाजपा-जदयू के वोटरों पर नजर टिकाए हुए हैं। उन्हें अपने पाले में करने के लिए तेजस्वी यादव जाति आधारित रैलियां करने और समुदाय विशेष को रिझाने में लगे हुए हैं। चुनाव की घोषणा के चार दिन पहले भी तेजस्वी यादव आरक्षण की बात करके पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति को अपने पाले में करने का प्रयास करते दिखे। 2 अक्टूबर को तेजस्वी यादव ने भाजपा को उनकी सरकार द्वारा बढ़ाए गए 65 प्रतिशत आरक्षण को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल न करने पर घेरा। उन्होंने कहा कि इन वर्गों के लिए हमारी लड़ाई जारी रहेगी। यह तब तक जारी रहेगा, जब तक जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं हो जाती।

राजद का वोट बैंक यादव और मुस्लिम रहा है। वह अपने इस वोट बैंक में विस्तार के लिए छटपटा रहा है। इसीलिए वह अलग-अलग जातियों के सम्मेलन करने और उनके नायकों की जयंती मनाने सहित दूसरी जातियों के बड़े नेताओं को पार्टी में शामिल करा रहा है। कभी भूरा बाल साफ करोका नारा देने वाला राजद अब भाजपा के सवर्ण वोटों में भी सेंध लगाने का प्रयास कर रहा है। पार्टी ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री चेहरा बनाने के लिए मुस्लिम-यादव समीकरण के साथ-साथ सवर्ण जातियों को साधने की रणनीति बनाई है। इसके लिए वह भूमिहार और ब्राह्मण वर्ग के बड़े नेताओं को अपने साथ शामिल कर रही है। तेजस्वी 2022 से ही लगातार भूमिहार और ब्राह्मणों के सम्मेलनों में भाग ले रहे हैं। हाल ही में उन्होंने जेडीयू विधायक डॉ. संजीव कुमार और बेगूसराय के भूमिहार नेता बोगो सिंह को पार्टी में शामिल किया है। इस बीच यह जानकारी बेहद महत्वपूर्ण है कि 2020 में आरजेडी ने इन जातियों से किसी को टिकट नहीं दिया था।

जातीय समीकरण

नीतीश कुमार पिछले 20 सालों से मुख्यमंत्री हैं। जातियों का यह गणित सीट बंटवारे और उम्मीदवारों के चयन में भी प्रमुख भूमिका निभाता है। इसलिए बिहार में विभिन्न जातियों का राजनीतिक रुख और झुकाव समझना बेहद जरूरी है।बिहार की राजनीति और चुनावी हार-जीत में यहां की जातियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं। कहा यहां तक जाता है कि बिहार में बिना जातिगत समीकरण को साधे कोई भी पार्टी चुनाव नहीं जीत सकती। इसलिए सभी दल अपने वोट बैंक से इतर अलग-अलग जातियों को साधने में लगे रहते हैं। नीतीश कुमार ने सत्ता में आने के बाद अपने परंपरागत वोट बैंक के अलावा अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) एवं महादलित जैसे बड़े और बिखरे हुए वोटों को साथ लाने का सफल प्रयास किया। 

यादव

आबादी के मामले में यहां यादव सबसे बड़ी जाति है। इनकी आबादी करीब 14.3 प्रतिशत है। इस वोट बैंक के बल पर लालू यादव एवं उनका परिवार करीब दो दशकों तक सत्ता में रहा। लालू यादव एवं राबड़ी देवी के बाद यादव अब उनके बेटे तेजस्वी यादव के साथ भी खड़े हैं। लालू यादव ने 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को मुज्जफरपुर में रोक कर यादव वोटों में मुस्लिम वोटों (करीब 17 प्रतिशत) को भी जोड़ लिया। इससे वह बिहार में अजेय हो गए थे। ये मुस्लिम-यादव (एमवाई) वोट अभी भी राजद के साथ हैं। लेकिन 2000 में लालू यादव के भ्रष्टाचार ने उनकी सत्ता को हिला दिया।

हिंदू सवर्ण

बिहार की कुल आबादी में हिंदू सवर्ण जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ) की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से कुछ ज्यादा है। यह वोट मुख्यत: भाजपा के साथ जुड़ा हुआ है। राजनीति में ओबीसी के उभार से पहले तक इसका झुकाव कांग्रेस की ओर रहा। लेकिन बिहार में लालू यादव के उदय और ओबीसी राजनीति के बढ़ते प्रभाव के बाद कांग्रेस यहां कमजोर हुई। इस कारण सवर्ण वर्ग ने कांग्रेस का हाथ छोड़कर एक नए राष्ट्रीय विकल्प (भाजपा) की तलाश की। तबसे वर्तमान तक हिंदू सवर्ण जातियां भाजपा के साथ मजबूती से खड़ी हैं। मोदी युग शुरू होने के बाद इन सवर्णों के साथ गैर यादव ओबीसी की कई जातियां भाजपा का वोट बैंक बन गईं। बिहार में सवर्णों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन ये संगठित और मुखर होकर यहां किसी भी पार्टी की जीत-हार में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

कुर्मी और कुशवाहा

बिहार की राजनीति में कुर्मी और कुशवाहा जातियों को लव-कुश समीकरणकहा जाता है। यहां इनकी कुल आबादी करीब 7.1 प्रतिशत है। इसमें कुशवाहा करीब 4.2 और कुर्मी लगभग 2.9 प्रतिशत हैं। दोनों जातियां यहां ओबीसी वर्ग में आती हैं। लालू यादव के शासनकाल में यादव समुदाय का वर्चस्व बढ़ने पर इन जातियों ने आरजेडी को छोड़ दिया। इसके बाद ही कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश कुमार ने बिहार में कुर्मी और कुशवाहा को मिलाकर लव-कुशनाम से एक मजबूत राजनीतिक समीकरण बनाया। इसी समीकरण ने उन्हें एक दशक से अधिक समय तक बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखा। कुशवाहा जाति के बड़े नेताओं में उपेंद्र कुशवाहा प्रमुख हैं, लेकिन अभी भी नीतीश का जलवा दोनों जातियों में समान रूप से बरकरार है।

(साभार युगवार्ता )

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