इस विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के सौ स्वर्णिम साल पूरे हो गए। सौ साल पहले डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने अपने कुछ साथियों के साथ राष्ट्र जागरण का संकल्प लेकर संघ के रूप में एक दीप जलाया था। इन सौ सालों में वह अखंड ज्योति बनकर भारत की आत्मा को आलोकित कर रहा है। उसकी मजबूत उपस्थिति आज समाज के हर क्षेत्र में है। वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कई बार दोहराया है कि संघ में सब कुछ परिवर्तनशील है, सिवाय इस मूल विश्वास के कि भारत हिंदू राष्ट्र है। संघ हिंदू समाज को संगठित करने और उसे सामर्थ्यवान बनाने का कार्य कर रहा है। वह न तो किसी का तुष्टिकरण करता है और न किसी से भेदभाव। संघ के आसपास बने विभिन्न संगठनों में कांग्रेस तो एक हद तक अपनी मौजूदगी बनाए हुए है, लेकिन जिस नेता (महात्मा गांधी) के बूते उसे आजाद भारत की सत्ता मिली, उसके विचारों से जुड़ी संस्थाएं मृतप्राय: हैं। समाजवादी दल तहस-नहस हो गए। वामदल तमाम टूट-फूट के बाद हाशिए पर पहुंच गए हैं।
इन दलों के नेता बड़े स्वार्थी निकले। उन्होंने अपने हित में संस्था को ही दांव पर लगा दिया। संघ ने इस सौ साल की यात्रा के दौरान तमाम मिथ्या आरोप झेले और तीन-तीन बार प्रतिबंध का सामना किया। इन सभी बाधाओं को पार करके वह विश्व का सबसे बड़ा संगठन बन गया। संघ में निरंतरता बनी रही। संघ ने भी अपनों का विरोध झेला, लेकिन उसके नेताओं की नेतृत्व क्षमता और संगठन कौशल ने उसे मजबूत बनाए रखा। यही नहीं, वह इस देश को परम वैभव पर पहुंचाने के अपने लक्ष्य के लिए लगातार कार्य कर रहा है। संघ ने सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में मानक स्थापित करने वाले संगठन बनाए। वास्तव में उनका कार्यक्षेत्र संघ के सहयोग से संघ से भी बड़ा हो गया है। अंग्रेजों के शासन से देश को आजाद कराने के आंदोलन के समय अनेक संगठन वजूद में आए। कुछ क्रांतिकारी संगठन तो अपने नेता के न रहने पर या आजादी के साथ समाप्त हो गए, लेकिन विचारधारा से जुड़े संगठन आगे भी चलते रहे। 1885 में कांग्रेस की स्थापना भले ही किसी और उद्देश्य से हुई हो, लेकिन बाद में वह आजादी के आंदोलन की ध्वज वाहक बन गई। इसलिए समाजवादी दल, वाम (तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी थी) दल या डॉ. हेडगेवार और उनके साथी, सभी आजादी के आंदोलन में कांग्रेस के साथ ही सक्रिय थे।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की प्रेरणा से आजादी के आंदोलन में सक्रिय होकर डॉ. हेडगेवार जेल गए। लेकिन उनका कांग्रेस के नेतृत्व से जल्द ही मोहभंग हो गया। जो सवाल आंदोलन की दिशा और नेतृत्व पर उन्होंने उठाए, वही सवाल संघ को सही मायने में अखिल भारतीय बनाने वाले दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवरकर (गुरु जी) ने उठाए। डॉ. हेडगेवार ने संघ के व्यक्ति निर्माण के कार्य को प्राथमिकता से करना जारी रखा। उनके साथ लोग जुड़ते गए और कारवां बढ़ता गया। 1947 में देश आजाद हुआ, लेकिन उसका दु:खद बंटवारा हुआ। लाखों लोग मरे और करोड़ों लोग उजड़े। देश में कांग्रेस का शासन हुआ। पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने और आगे बने रहने के लिए क्या-क्या किया, यह तारीख में दर्ज है। महात्मा गांधी आजादी के आंदोलन के साथ सामाजिक आंदोलन चलाना चाहते थे। इसलिए देश की आजादी की जमीन तैयार होने पर उन्होंने कांग्रेस को भंग करने की सलाह दी। कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया।
गांधी जी की सोच के अनुरूप एक नया संगठन-गांधी सेवा संघ बना। उसकी लोकप्रियता से कांग्रेस के ही नेता परेशान होने लगे तो खुद गांधी जी ने उसे भंग करा दिया। लेकिन वह आजादी के बाद सामाजिक कार्यों के लिए संगठन बनाना
चाहते थे। 1948 में उनकी हत्या के बाद उनके सहयोगियों ने उस तरह की दो संस्थाएं- सर्वोदय और सर्व सेवा संघ बनाईं। दोनों ज्यादा कारगर नहीं हो सकीं और सरकारों पर निर्भर हो गईं। माना जाता है कि गांधी जी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाया। इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री बनवाया। बाद में भी कांग्रेस पर उनके परिवार का ही नियंत्रण बना रहा। दो बार कांग्रेस का विभाजन होने और कई नेताओं द्वारा पार्टी से अलग होकर अपनी मजबूत जगह बनाने के बावजूद कांग्रेस बनी हुई है। आचार्य विनोबा भावे को गांधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना गया, लेकिन वह उनके कार्यों को बढ़ाने में ज्यादा कामयाब नहीं हो पाए। उनका अपना भूदान आंदोलन भी बड़ी कामयाबी नहीं हासिल कर पाया।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान नेहरू के जेल में होने के चलते जयप्रकाश नारायण देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता बन गए थे। उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए 1934 में अशोक मेहता, मीनू मसानी, यूसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन और राम मनोहर लोहिया आदि के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई। आजादी मिलने तक कांग्रेस में भी बने रहे। जैसे ही बाहर निकले, 1948 में पार्टी का विभाजन हो गया। 1952 में देश में हुए पहले आम चुनाव से पूर्व कांग्रेस के अध्यक्ष रहे जेबी कृपलानी कांग्रेस से अलग होकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाकर चुनाव लड़े। चुनाव तो 1925 में बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और सोशलिस्ट पार्टी भी लड़ीं, लेकिन सोशलिस्ट पार्टी से ज्यादा चुनाव में भाकपा सफल हुई। उसी साल हुए पंचमढ़ी अधिवेशन में अशोक मेहता आदि अलग-थलग पड़ने लगे। अशोक मेहता तो कांग्रेस में लौट आए। पार्टी में मतभेद के चलते उससे पहले ही जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने अलग रास्ता पकड़ लिया। वह भूदान से जुड़ गए और 1951 में अपना जीवन भूदान आंदोलन में दान करने की घोषणा कर दी।
पंचमढ़ी से ही सोशलिस्ट पार्टी में राम मनोहर लोहिया का राजनीतिक कद बढ़ने लगा। 1952 में ही लोहिया ने कृपलानी के साथ मिलकर उनको अध्यक्ष और खुद को महासचिव बनाकर अपने दबदबे को जता दिया। नई पार्टी बनी। दो साल में कृपलानी ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से इस्तीफा दे दिया। 1954 में उन्होंने केरल की अपनी ही पार्टी की पी. थानु पिल्लै की सरकार के खिलाफ नागरकोट जिले में मजदूरों पर गोली चलाने के खिलाफ आंदोलन चलाकर सरकार गिरवा दी। 1955 में लोहिया ने नई सोशलिस्ट पार्टी बनाई। सोशलिस्ट पार्टी के बनने और बंटने का सिलसिला चलता रहा। 1967 के चुनाव में देश भर में गैर कांग्रेस वाद के लिए माहौल बनाने में जनसंघ के साथ सोशलिस्ट पार्टी की बड़ी भूमिका रही। लोहिया खुद चुनाव जीते, लेकिन उसी साल उनका निधन हो गया। लोहिया के बाद ज्यादा बिखराव हुआ। 1977 में जनता पार्टी के प्रयोग के बाद तो कोई दल ऐसा नहीं बचा, जिसमें समाजवादी न काबिज हों।
लोहिया के एक उत्तराधिकारी किशन पटनायक ने 1972 में लोहिया विचार मंच बनाया। आपातकाल विरोधी आंदोलन में सक्रिय रहने और जनता पार्टी का प्रयोग असफल होने के बाद 1980 में समता संगठन और 1985 में समाजवादी जन परिषद बनाई। मधु लिमये एवं राजनारायण समेत अनेक समाजवादी अपने प्रयोग में लगे रहे। लेकिन आज की तारीख में समाजवादी पार्टी या राष्ट्रीय जनता दल जैसी पारिवारिक पार्टियों को छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी केवल व्यक्तियों में जिंदा है। वामपंथी दलों की कथा तो इनसे भी अनोखी है। उसकी बुनियाद ही विदेशी सोच पर पड़ी। सोवियत संघ (1991 के बिखराव के बाद रूस) की प्रेरणा से 1925 में संघ की स्थापना के साल ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की स्थापना हुई। पहले तो भाकपा के नेता आजादी के आंदोलन में कांग्रेस के साथ लगे रहे। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ जैसे निर्णायक आंदोलन के समय वे रूस के इशारे पर अंग्रेजों के साथ हो गए। उनका एक धड़ा रूस से ज्यादा चीन के साथ हो गया।
परिणाम यह हुआ कि 1962 में जब चीन ने धोखे से भारत पर हमला किया तो भाकपा का एक धड़ा यह प्रचारित करता रहा कि चीन ने हमला नहीं किया। हमला तो भारत ने किया। इस चीन प्रेम ने 1964 में भाकपा का विभाजन करा दिया। चीन समर्थक नई पार्टी बनी, जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का नाम दिया गया। इसे आम बोलचाल में माकपा कहा जाता है। लेकिन उन्होंने चीन के नेता माओत्से-तुंग की तरह सशस्त्र क्रांति नहीं शुरू की तो 1967 में सशस्त्र क्रांति के उद्देश्य से भाकपा (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) आम बोलचाल में माले बनाया। माले का एक धड़ा सीधे बंदूक की भाषा बोलते हुए नक्सलवादी बन गया। फिर तो उनके कितने टुकड़े हुए, इसकी गिनती वामदल के नेता भी नहीं कर पा रहे हैं। इन हथियारबंद गिरोहों से सरकार मजबूती से लड़कर उनका खात्मा कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने देश से नक्सलवाद समाप्त करने का ऐलान किया है। भाकपा एक दल तो बनी रही, लेकिन वह अमूनन कांग्रेस के साथ खड़ी रही।
आपातकाल विरोधी आंदोलन में भी भाकपा कांग्रेस और इंदिरा गांधी के साथ खड़ी रही। उसके बाद तो उसका पराभव बड़ी तेजी से हुआ। कभी भाकपा नंबर एक वाम दल होती थी, बाद में वह माकपा की पिछलग्गू बन गई। माकपा भी हर चुनाव में सिमटती जा रही है। भाकपा तो अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। 1939 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस से अलग एक राजनीतिक दल-फॉरवर्ड ब्लॉक बनाया था। वाम दलों ने उस पर भी अपना रंग चढ़ा दिया। आरएसपी आदि अन्य कई दलों के साझा फ्रंट भी देश की राजनीति में कोई बड़ी जगह बनाने में कामयाब नहीं हुए। संघ की स्थापना 1925 में विजयादशमी के दिन हुई। कलकत्ता (अब कोलकाता) से डॉक्टरी की पढ़ाई करके लौटे केशव बलिराम हेडगेवार ने अपने कुछ साथियों के साथ संघ की स्थापना की। वह देश की आजादी के आंदोलन में सक्रिय होकर जेल भी गए। 1940 में उनके निधन तक संघ की पहचान एक बड़े संगठन के तौर पर हो गई थी। उन्होंने अपना उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवरकर (गुरु जी) को बनाया, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में प्राणी विज्ञान के प्रोफेसर थे। उन पर अध्यात्म का प्रभाव ज्यादा था। वह 33 सालों तक सरसंघचालक रहे।
इस दौरान 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के मिथ्या आरोप में संघ पर चार फरवरी को प्रतिबंध लगा और गुरु जी समेत बड़ी संख्या में संघ के कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए। 12 जुलाई 1949 को संघ से प्रतिबंध हटा। 9 जुलाई 1949 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन हुआ। परिषद आज देश का सबसे बड़ा छात्र संगठन है। उसने अपना घोष वाक्य बनाया-छात्र शक्ति, राष्ट्र शक्ति। 1936 में महिलाओं के बीच काम करने के लिए राष्ट्र सेविका समिति बनी। 1955 में भारतीय मजदूर संगठन बना। संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने इसे देश का सबसे बड़ा संगठन बनाया। इसके साथ 44 फेडरेशन और 5300 यूनियन हैं। उन्होंने मजदूर संगठनों की नई परिभाषा बना दी। नया नारा दिया- देश हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम। 3 दिसंबर 1950 को राजनीतिक दल जनसंघ का गठन हुआ, जो जनता पार्टी से अपनी यात्रा को पूरी करके 1980 में भाजपा बना।
पहले संघ के कार्यकर्ता अटल बिहारी वाजपेयी और 2014 से मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। 1966 में विश्व हिंदू परिषद बनी। इसी तरह हर क्षेत्र में संगठन बने। संस्कार भारती, सेवा भारती, वनवासी कल्याण केंद्र, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, एकल विद्यालय, गोरक्षा, अधिवक्ता परिषद, नेशनल मेडिको आॅर्गनाइजेशन इत्यादि। आज संघ की 83 हजार शाखाएं 51 हजार स्थानों पर लग रही हैं। संघ से जुड़े 1,29,000 सेवा प्रकल्प शिक्षा एवं स्वास्थ्य से लेकर भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लक्ष्य पर कार्य कर रहे हैं। संघ की प्रेरणा से श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति महायज्ञ संपन्न हुआ। संघ की प्रेरणा से ही जम्मू-कश्मीर से धारा 370 समाप्त हुई। केंद्र की मौजूद भाजपा सरकार ने संघ के सहयोग से अनेक बड़े कार्य किए और यह अभियान लगातार जारी है। संघ की इस सौ साल की यात्रा में अनेक बाधाएं आईं। अनेक प्रभावशाली पदाधिकारी और नेता संघ से नाराज होकर घर बैठ गए। लेकिन किसी ने दूसरा संघ बनाने का प्रयास नहीं किया।
संघ में नेतृत्व क्षमता के अनेक उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं। गुरु जी के बाद अब तक सरसंघचालक का सबसे लंबा कार्यकाल बाला साहब (मधुकर दतात्रेय) देवरस का रहा। वह और संपूर्ण उत्तर भारत में संघ कार्य खड़ा करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले उनके छोटे भाई भाऊ राव (मुरलीधर दत्तात्रेय) देवरस सात साल (1953 से 1960) तक संघ नेतृत्व से मतभेद के चलते घर लौट गए थे। गुरु जी ने उनसे संवाद बनाए रखा और उन्हें वापस लाकर पहले रेशम बाग में बन रहे डॉक्टर साहब की समाधि निर्माण की जिम्मेदारी दी। फिर सह सरकार्यवाह और फिर सरकार्यवाह और 1973 में अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। वह अगले बीस साल तक संघ के सरसंघचालक रहे। इसी तरह दिल्ली में संघ कार्य खड़ा करने वाले वसंत राव ओक संघ से नाराज रहे, लेकिन उन्होंने कोई नया संगठन नहीं बनाया। संघ के किसी पदाधिकारी से या किसी मुद्दे पर नाराज होने वालों की बड़ी संख्या है। लेकिन न तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से संघ की आलोचना की और न कोई संगठन बनाया। यही नहीं, संघ से जुड़े संगठनों खासकर, राजनीतिक दल जनसंघ या भाजपा से अनेक नेता अलग हुए। कुछ ने अपना दल भी बनाया, लेकिन वे लंबे समय तक नहीं चल पाए।
यह बार-बार साबित हुआ कि संघ के नेताओं ने जिन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया, वे न केवल उनके पदचिन्हों पर चले, बल्कि कई मायने में नए कीर्तिमान बनाए। संघ पर दूसरा प्रतिबंध 1975 में चार जुलाई को लगा। सरसंघचालक बाला साहब देवरस समेत करीब सवा लाख कार्यकर्ता जेल गए। 1977 में संघ से प्रतिबंध हटा। जनता पार्टी की सरकार बनी। संघ को कुचलने के इस दूसरे प्रयास को कार्यकर्ताओं ने न केवल असफल किया, बल्कि संघ पहले से ज्यादा ताकतवर बना। बाला साहब ने संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के कार्य को देश के कोने-कोने में पहुंचाया। उन्होंने सेवा कार्य को प्राथमिकता दी। उनका कहना था कि अगर छुआछूत पाप नहीं है तो दुनिया में कोई पाप नहीं है। इसी भावना को मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने आगे बढ़ाया। उन्होंने हिंदू समाज के लिए एक कुंआ, एक मंदिर और एक श्मशान का लक्ष्य रखा है। तमाम अफवाहों को दरकिनार करते हुए बाला साहब ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर रहे राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
बाला साहब ने अपना कोई स्मारक न बनाने, नाम के साथ परम पूजनीय न लगाने और संघ के आयोजनों में पहले के दोनों सरसंघचालकों के ही फोटो लगाने के निर्देश दिए। रज्जू भैया केवल छह साल तक सरसंघचालक रहे, लेकिन उतने कम समय में भी उन्होंने समाज पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन उनके ही मार्गदर्शन में चला। 6 दिसंबर 1992 को ढांचा टूटने पर संघ पर तीसरी बार 10 दिसंबर को प्रतिबंध लगा, जो अदालती आदेश से चार जून 1993 को हटा। रज्जू भैया ने भी अपनी कोई समाधि न बनाने का आग्रह करते हुए जहां शरीर छूटा, वहीं अंतिम संस्कार करने का आग्रह किया। दूसरे सरसंघचालक गुरु जी ने तो जीते जी अपना श्राद्ध कर लिया था, ताकि किसी को परेशान न होना पड़े। पांचवें सरसंघचालक के. एस. सुदर्शन ने भी अपने पूर्ववर्ती सरसंघचालकों का कार्य आगे बढाया। उन्होंने स्वदेशी का सर्वाधिक आग्रह किया, जो अब केंद्र सरकार का मुख्य एजेंडा बन गया है। उन्होंने भाजपा का नेतृत्व युवा हाथों में सौंपने का सुझाव दिया।
मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत 2009 से इस पद पर हैं। उन्होंने कई नए मानक बनाए। उनका कहना है कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर से संघ जुड़ा था। मंदिर बनने के बाद किसी और मंदिर के लिए संघ आंदोलन नहीं
करेगा। लेकिन हिंदू मानस काशी और मथुरा भी चाहता है। इसका हिंदू समाज आग्रह करेगा। लेकिन हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग न खोजने का भी उन्होंने आग्रह किया। संघ ने पंच परिवर्तन का आह्वान किया है। सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, कुटुंब प्रबोधन-परिवार मूल संस्थाएं, स्वदेशी और नागरिक कर्तव्य बोध। संघ केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार के 2047 के विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल कराने में सहयोगी बना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सौ साल पूरे होने पर संघ पर डाक टिकट और सिक्का जारी करके अपनी सहभागिता सुनिश्चित की। लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने मोदी संघ से अपने जुड़ाव के चलते उसे और भाजपा को एक बनाए रखने में सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। दोनों में बेहतर समन्वय बना हुआ है। बूंद-बूंद से सागर बनता है, यह संघ ने साबित कर दिया। अब संघ महासागर बनने की दिशा में अग्रसर है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सौ साल पूरे होने पर संघ पर डाक टिकट और सिक्का जारी करके अपनी सहभागिता सुनिश्चित की। वह संघ से अपने जुड़ाव के चलते उसे और भाजपा को एक बनाए रखने में सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। दोनों में बेहतर समन्वय बना हुआ है।
(साभार युगवार्ता)
