भगीरथ पुरुषार्थी : नरेन्द्र मोदी

रामबहादुर राय

इमरजेंसी के कुराज से दोदो हाथ करने वाले लोकतंत्र के सेनानी कहलाए। कुछ तो ऐसे सेनानी रहे जो बिना लड़े वीरगति को प्राप्त हो गए। इस श्रेणी में वे आएंगे जिन्हें पुलिस ने औचक पकड़ा। कुछ तो मैदान में उतरे पर मुखवीरों के शिकार हो गए। कुछ ऐसे भी लोकतंत्र सेनानी हुए जो लड़ते हुए धरे गए। लेकिन जिन्हें पुलिस पूरे इमरजेंसी में अपनी हर चंद कुचालों के बावजूद नहीं पकड़ पाई ऐसे लोकतंत्र सेनानियों की संख्या भी काफी बड़ी थी। उनमें सबसे ज्यादा संख्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की रही। इन्हीं लोकतंत्र सेनानियों  ने इमरजेंसी को हटवाया और लोकतंत्र को वापस लाया। इमरजेंसी के कुराज से शायद ही कोई अपरिचित हो। जितना सच यह है, उतना ही यह भी एक सच है कि बहुत थोड़े ही लोग है, जो यह जानते हों कि भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकतंत्र की पुनःस्थापना के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर अहिंसक प्रतिरोध का हर तरह से संगठित किया था। उसी प्रतिरोध का सफल परिणाम निकला कि इमरजेंसी अंततः हटानी पड़ी। इमरजेंसी का मतलब था, इंदिरा की तानाशाही। उस दौर में इंदिरा की तानाशाही का तानाबाना मजबूत दिखता था।

शासन तंत्र में पुलिस हरावल दस्ता थी। संजय ब्रिगेड कंट्रोल रूम में बैठी थी। कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया हरावल दस्ते के लिए मुखविरी करती थी। कांग्रेस के ज्यादातर नेता, कार्यकर्ता और सांसदविधायक लोकतंत्र सेनानियों को जेल में बंद कराने के लिए रातदिन एक करते थे। ऐसी थी विषम परिस्थति। रावण रथी विरथ रघुवीराचरितार्थ हो रहा था। इस चुनौतीपूर्ण परिस्थति में जिस युवा ने एक क्षण भी नहीं गवाया, वे थे नरेन्द्र मोदी। इमरजेंसी को गुजरे 50 साल हो गए हैं। इमरजेंसी में नरेन्द्र मोदी 25 साल की जीवन रेखा के करीब थे। घरबार छोड़कर समाज कार्य में दोतीन साल पहले से ही सक्रिय थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। इमरजेंसी की घोषणा से पहले की रात का जैसा सजीव वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक में किया है, उसे पढ़कर कोई भी अपनी आंखों में वह चित्र बना सकता है, जो तब इंदिरा गांधी के निवास के आदेश से घटित हो रहा था। पुस्तक है– ‘आपातकाल में गुजरात इसके लेखक नरेन्द्र मोदी हैं। यह गुजराती में लिखी गयी थी। इस पुस्तक को गुजराती साहित्य की अमूल्य धरोहर श्रेणी में स्थान मिला है। स्वभाषा का भाव जो नरेन्द्र मोदी में पाया जाता है, उसकी यह पहली झलक भी है। इस पुस्तक को जैसे ही कोई हाथ में लेगा और पढ़ने से पहले उस पर नजर दौडाएगा तो दो बातें उसे सोचने के लिए ठहरने का संकेत देगी। पहली कि दंत्तोपंत ठेंगड़ी ने इसकी प्रस्तावना लिखी है।

दंत्तोपंत ठेंगड़ी के बारे में जो जानते हैं, वे प्रस्तावना के हर शब्द के जादू को अनुभव कर सकेंगे। जो नहीं जानते उन्हें यह जानना चाहिए कि वे राष्ट्रीय नेताओं में बड़े नेता, संगठनकर्ताओं में सबसे कुशल संगठनकर्ता, विचारकों में शिखर  विचारक और डॉ. अंबेडकर के एक निकट सहयोगी भी थे। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आजीवन प्रचारक थे। उनका बड़ा सम्मान था। यह भी जानने की बात है कि इमरजेंसी में वे नानाजी देशमुख, रवीन्द्र वर्मा की गिरफ्तारी के बाद लोक संघर्ष समिति के महासचिव का दायित्व संभाले रहे। फिर भी पुलिस से बचे रह सके। पूरी इमरजेंसी में भूमिगत संघर्ष के एक सूत्रधार थे। 

उन्होंने नरेन्द्र मोदी की पुस्तक– ‘आपातकाल में गुजरातकी प्रस्तावना में एक जगह लिखा है– ‘जब इमरजेंसी घोषित हुई, उस समय तीन राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें थीं, किंतु इनमें से गुजरात राज्य सरकार ने ही तानाशाही का खुलकर विरोध किया और लोकतंत्र सेनानियों को अभय क्षेत्र प्रदान किया। इस प्रदेश में उस समय साहित्यनिर्माण आदि ऐसे कार्य हुए, जो अन्य प्रदेशों में करना संभव नहीं था।साधनातथाभूमिपुत्रपत्रिकाओं ने देश के अखबारी इतिहास में एक नए गौरवशाली अध्याय का निर्माण किया। इस संघर्ष के अहिंसात्मक तंत्र में गुजरात प्रारंभ से ही प्रशिक्षित था, क्योंकि महात्मा गांधी, सरदार पटेल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की यह भूमि रही है। अखिल भारतीय स्तर पर लोक संघर्ष समिति ने जितने भी कार्यक्रम दिए उन सबका कार्यान्वयन गुजरात ने बहुत अच्छे से किया। इस दृष्टि से संघर्ष की अखिल भारतीय पृष्ठभूमि पर इस प्रदेश के लोकतंत्र सेनानियों की समग्र कारवाईयों का इतिहास सुसूत्र तथा प्रसंगबद्ध ढंग से लिखना एक कठिन कार्य था, किन्तु यह कार्य इस कृति के लेखक नरेन्द्र मोदी ने संतोशजनक ढंग से किया है। इस तरह का लेखन किस ढंग से किया जाए, इसका नमूना भी इस पुस्तक में लेखक ने प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक इतिहास लेखकों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होगी।

 दूसरी, बात पुस्तक के परिशिष्ट-4 में है। उसका शीर्षक है– ‘कुछ निजी बातें नरेन्द्र मोदी लिखते हैं– ‘इमरजेंसी कैसे आई, इस बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है, परंतु इमरजेंसी हटी कैसे, इस बारे में बहुत ही कम लिखा गया है। इस स्थिति से ही इस पुस्तक का जन्म हुआ। चुनाव आए। जनता पक्ष की विजय हुई। क्या यह निरा चमत्कार था!’… ‘वास्तविकता यह है कि लक्षित परिणामों की प्राप्ति के लिए लगातार 21 माह तक सुनियोजित ढंग से संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष से संबंधित छोटे प्रकार के अनेक सूक्ष्म, ज्ञातअज्ञात पहलुओं की अपनी एक भव्य गाथा है। इस प्रकार से इस दूसरे स्वातंत्रय संघर्ष का अंग्रेजों के विरोध में हुए स्वातंत्रय संघर्ष से लेशमात्र कम महत्व नहीं है। गुजरात ने भी इस संघर्ष के प्रारंभ से ही जमकर लोहा लिया है।’… ‘यह मेरी प्रथम पुस्तक है।’… ‘भूमिगत संघर्ष के बारे में अब तक अनुत्तरित रहे, कुछ कठिन प्रश्नों की कुंजी स्वरूप यह पुस्तक मैंने किसी लेखक की तरह नहीं, वरन लडाई के एक सिपाही की हैसियत से लिखी है।उन्होंने यह भी जोड़ा किकुछ मूक सेवकों की उनके बारे में कुछ लिखे जाने की इच्छा के वश होकर मुझे संयमित रहना पड़ा है। इसके अलावा सफल भूमिगत जीवन के गुर, युक्तियांप्रयुक्तियां एवं कुछ योजनाओं के बारे में आज कुछ भी कहना समय से पहले कही गई बात होगी।

पचास साल पहले की इमरजेंसी का सीधासपाट मतलब है, इंदिरा गांधी की तानाशाही। उस दौर को बहुविध पीड़ा से इस समय याद किया जा रहा है। यह सर्वथा उचित है। यही वह सही समय है जब यह भी जानना चाहिए कि उसी तानाशाही के दौर में भारतीय लोकतंत्र का पुनर्जन्म हुआ। उसके एक नायक आज भारत के स्वराजी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। नरेन्द्र मोदी के 75वें पर देशसेवा पखवाड़ामना रहा है। तरहतरह के देश और दुनियाव्यापी आयोजन हो रहे हैं। ऐसे समय में इमरजेंसी के सफलअभिमन्युनरेन्द्र मोदी की उन सच्ची गाथाओं को पुनः स्मरण करना चाहिए। इसके दो कारण हैं। पहला कि इमरजेंसी के पचास साल हुए हैं। दूसरा कारण ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उस संघर्ष गाथा का एक नायक आज भारत का प्रधानमंत्री है। दूसरे शब्दों में इमरजेंसी में जो लोकतंत्र का सेनानी था, वह भारत के जीवंत लोकतंत्र का आज प्रथम पुरुष है। यह भारतीय लोकतंत्र की जीवंतता के लिए दीप स्तंभ सरीखा आश्वासन है।

इन दोनों कारणों का एक वैचारिक और सैद्धांतिक आधार है। वह यह कि जो समाज लोकतंत्र के अपने पुनर्जन्म का इतिहास भूल जाता है उसका भविष्य भयंकर तानाशाही के खतरे में पड़ा रहता है। यह खतरा कैसे बड़ी चुनौती है और उससे पार पाने का रास्ता क्या है, इसे ही एक इतिहास बोध से सुलझाया जा सकता है। इस लेख में जोजो गाथाएं आप पढ़ेंगे वे डींग हांकने के लिए नहीं लिखी जा रही है। इसलिए लिखी जा रही है कि भविष्य में कोई स्वार्थी, पदलोलुप तानाशाह लोकतंत्र को फांसी पर लटकाए। उसे वही काला इतिहास दोहराने की हिम्मत हो। इमरजेंसी में एक तिकड़ी काम कर रही थी। उसका जाल पूरे देश में था। वह तिकड़ी कौन सी थी? उसका स्वरूप क्या था? उसका काम क्या था? ये तीनों सवाल बहुत महत्वूपर्ण है। इनका उत्तर इमरजेंसी के अनुभवां में समाया हुआ है। जिन्होंने भी इमरजेंसी का दौर देखा और लोकतंत्र की बहाली के लिए प्रयास करने की सक्रियता दिखाई वे भलिभांति जानते हैं कि उन्हें उस तिकड़ी से बड़ा खतरा था।

आमतौर पर विद्वान लोग जब इमरजेंसी के बारे में अपनी कलम चलाते हैं तो वे पुलिस राज की चर्चा तक ही सीमित रहते हैं। किताबी अध्ययन की अपनी सीमा है। इसलिए उन लोगों का कोई दोष नहीं है, जो पुलिस की ज्यादतियों के आधार पर इमरजेंसी की तानाशाही का वर्णन करते हैं। इसमें दो तत्व और उस समय सक्रिय थे। उनकी अनदेखी करके चलेंगे तो तस्वीर अधूरी रहेगी। पुलिस के अलावा जो दो तत्व थे, उन्हें बर्बर पुलिस की दूसरी और तीसरी कतार कह सकते हैं। कांग्रेस की संजय ब्रिगेड और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के लोग बढ़ चढ़ कर पुलिस की आंख, नाक, कान, हाथ और पांव का काम कर रहे थे। इसी से तिकड़ी बनी थी। पुलिस को कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों से जो मदद मिली वह इमरजेंसी के दौर में बर्बर घटनाओं में बदली।

ऐसे भयावह वातावरण में युवा नरेन्द्र मोदी ने लोकतंत्र के लिए चेतना जगाने का बीड़ा उठाया। संकल्प करना एक बात है और उसे हर विपरीत परिस्थिति में पूरा कर लेना एक असंभव को संभव बनाना जैसा होता है। सोचिए, नरेन्द्र मोदी तब अपना सामाजिकसार्वजनिक जीवन शुरू ही कर रहे थे। यह नहीं कह सकते कि उन्हें उस संग्राम का अनुभव था जिसमें वे कूद पड़े थे। नरेन्द्र मोदी संघ के युवा प्रचारक थे। इंदिरा गांधी और उनकी तिकड़ी का सबसे प्रबल प्रहार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर था। परिस्थितियां विपरीत और भयावह थी। चुनौती बड़ी थी। क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध घोषित हो गया था। इमरजेंसी लगाये जाने के एक सप्ताह बाद ही संघ पर प्रतिबंध लगा। 4 जुलाई, 1975 की तारीख थी। उसी रात माधव कोडोपंत मुले ने एक बैठक बुलाई। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह थे। उसमें मोरोपंत पिंगले, भाऊराव देवरस, प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जूभैया), बापूराव मोघे थे। बेहतर समन्वय के लिए उस बैठक में सुंदर सिंह भण्डारी, दंत्तोपंत ठेंगड़ी और नानाजी देशमुख भी उपस्थित थे। नानाजी देशमुख उस समय लोक संघर्ष समिति के महासचिव थे। इन नेताओं ने परिस्थिति को समझा, आंका और कार्ययोजना बनाई।

एक संगठनात्मक संरचना बनाने का निर्णय हुआ। जो इमरजेंसी में लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्ष चला सके। पूरे देश को छह क्षेत्रों में बांटकर उसके क्षेत्रीय प्रमुख बनाए गए। हर क्षेत्र का एक केंद्र था। इस तरह दिल्ली, कानपुर, कलकत्ता, बंगलोर, बंबई और नागपुर केंद्र निर्धारित हुए। बंबई केंद्र से महाराष्ट्र (विदर्भ को छोड़कर) गोवा तथा गुजरात में संघर्ष को संचालित करने की जिम्मेदारी लक्ष्मणराव इनामदार पर आई। लक्ष्मणराव इनामदार कौन थे? उनका यहां जरूरी परिचय इन षब्दों में पढ़िये। ये शब्द नरेन्द्र मोदी के हैं, ‘लक्ष्मण माधव इनामदारनाम गुजरात में कितने लोग जानते होंगे? लेकिनवकील साहबकहो तो गुजरात के केवलहरों में ही नहीं, गांवों में भी वे लोकप्रिय थे।लक्ष्मणराव इनामदार हमारेवकील साहबबने, इसमें उनकी तपस्या, अथक परिश्रम और कार्य तथा कार्यक्षेत्र के साथ संपूर्ण समरसता का इतिहास है।’ 

जैसे रामकृष्ण परमहंस की कथा बिना स्वामी विवेकानंद के पूरी नहीं होती, जैसे महात्मा गांधी की कथा बिना सरदार पटेल और महादेवभाई देसाई के पूरी नहीं होती, वैसे ही लक्ष्मण राव इनामदार (वकील साहब) की कथा नरेन्द्र मोदी की पुस्तक, ‘आपातकाल में गुजरातके बिना पूरी नहीं हो सकती। इस पुस्तक में परिशिष्ट-1 है, जिसका ऐतिहासिक महत्व है। क्यों? क्योंकि इसमें वह पत्र है, जिसे लक्ष्मणराव इनामदार ने बंदी लोकतंत्र सेनानियों को लिखा था। यह पत्र लंबा है। उस पर 31 मई, 1976 की तारीख है। इस पत्र में बंदी लोकतंत्र सेनानियों का हौंसला बढ़ाने के लिए कुछ बातें कही गई है। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात पत्र में वह है जिसे आज पढ़ने पर अचंभा होता है। वह बात क्या है? उस अंश को पढ़ें और अनुभव करें, ‘संभवतः अक्टूबर 1976 से मार्च 1977 के बीच इंदिरा बहन अपनी अनुकूलता के अनुसार चुनाव घोषित करेंगी।यह बात लक्ष्मणराव इनामदार के पत्र में है। इस सूचना के बाद वे पूरी रणनीति क्या होनी चाहिए, इसका एक खाका वे अपने पत्र में उन लोगों के लिए बनाते हैं जिन्हें समझना है और जानना है। वे लिखते हैं कि चुनाव में धांधली हो सकती है। लेकिन इस कारण चुनाव का बहिश्कार नहीं करना चाहिए। उस समय लोकतंत्र सेनानियों में दो मत थे। कुछ लोग चुनाव के बहिष्कार के पक्षधर थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चुनाव को पूरी शक्ति से लड़ने और जीतने के लिए कटिबद्ध था। यह बात इस पत्र में भी है। यह पत्र आज दो बातें बताता है। एक, इंदिरा गांधी के तानाशाही तानेबाने को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी व्यूह रचना से भेद लिया था। जो तानाबाना मजबूत दिखता था वह खोखला साबित हुआ। दो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व को यह इंदिरा गांधी के निवास से ही पता चल गया था कि वे लोकसभा चुनाव कराने जा रही है।

लक्ष्मणराव इनामदार के एक सहयोगी युवा नरेन्द्र मोदी थे। उनपर यह जिम्मेदारी आयी कि वे उस चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में संघर्ष के लिए एक संगठनात्मक ढांचा बनाएं। संघ पर प्रतिबंध का व्यावहारिक अर्थ यह था कि उसके कार्यालयों पर ताले लगा दिये गए थे। लेकिन पुलिस की विफलता यह थी कि उसे कार्यालयों से कार्यकर्ताओं की सूची और नाम नहीं मिले। उसे यह कार्य अलग से करना पड़ा। पुलिस को दोहरी मेहनत करनी पड़ी। उसे पहले तो यह पता करना पड़ा कि संघ के नए केंद्र कौन से हैं। दूसरा कि कहां कौन सक्रिय है। संघ के लोकतंत्र सेनानियों ने पुलिस को खूब छकाया। संघ की योजना में जो कार्य होना था वह पुलिस और इंदिरा गांधी की तिकड़ी से नजर बचाकर ही किया जा सकता था। इसके लिए हर सक्रिय नायक ने अपना नाम बदला। नरेन्द्र मोदी बने बटुक भाई।

लोकतंत्र सेनानी नरेन्द्र मोदी ने अपने लिए दो लक्ष्य निर्धारित किए। एक कि गुजरात और पूरे देश में जहां जरूरत पड़ेगी वहां जाएंगे और लोकतंत्र के लिए अलख जगाते रहेंगे। दो कि किसी भी कीमत पर पुलिस से बचे रहेंगे लेकिन सक्रियता में कोई कमी नहीं आने देंगे। इमरजेंसी के 21 महीने का इतिहास साक्षी हैं कि नरेन्द्र मोदी ने जो लक्ष्य अपने लिए निर्धारित किया, उसे वे पूरा कर सके। ऐसे उदाहरण विरले हैं। इसे जाननेसमझने के लिए यह अंश पढ़िए, ‘नरेन्द्र मोदी के लिए आपातकाल के दिनों में नाम बदलकर काम करना आसान नहीं था। उन्हें कई तरह के जोखिमों का सामना करना पड़ता था। नाम और पहचान बदलकर रहने के बावजूद ऐसा नहीं था कि गिरफ्तारी का संकट टल गया था। दूसरे वेश में रहने के बावजूद यह खतरा लगातार बना रहता था कि कहीं से कोई पुलिस को यह जानकारी पहुंचा दे कि नरेन्द्र मोदी फलां वेश में फलां नाम के साथ घूम रहे हैं।इस खतरे के बीच वे अपनी जिम्मेदारी निभाते रहे। गिरफ्तारी से भी बच सके। ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने  जोखिम के साथ सूझबूझ को बनाए रखा। जो चूके वे पकड़े गए। आज किसी के लिए यह कल्पना करना भी कठिन होगा कि इमरजेंसी के दिन कैसे बीतते थे। जब मुखबिर चारो ओर फैले हो वैसे ही जैसे अभिमन्यु कौरवों के बीच फंसा था।

गुजरात के वरिष्ठ साहित्यकार और राज्य साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पंड्या का यह कथन एक गवाही है, ‘एक बैठक में मैं, नरेन्द्र मोदी, संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी केशवराव देशमुख, शंकर सिंह वाघेला और नाथालाल झगड़ा उपस्थित थे। उस बैठक में हम सभी लोगों को साहित्य, संगठन और संघर्ष की जिम्मेदारी दी गई। दुर्भाग्य से सबसे पहले पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद शंकर सिंह वाघेला भी पकड़े गए। मोदी और देशमुख नहीं पकड़े गए थे।मोदी ने जिस तरह का बेहतरीन कार्य गुजरात में किया था, उसे देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जोलोक संघर्ष समितिबनी थी, उसमें उन्हें शामिल किया गया। इसमें संघ के नानाजी देशमुख जैसे बड़े लोग भी थे। सरदारजी का वेश धारण करके मोदी काफी जोखिम लेते हुए कुछ मौकों पर हम लोगों से मिलने जेल भी आए। प्रकाशन, प्रतिरोध और संगठन को चलाए रखने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां मोदी जैसे उन लोगों के कंधों पर गईं, जो जेल से बाहर थे।

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