
जेपी-इंदिरा गांधी की भेंट से पहले एक और अत्यंत महत्वपूर्ण घटना हुई। वह इतिहास के पन्नों में खोजने पर भी नहीं मिलेगी, क्योंकि वह दर्ज नहीं है। वह मौखिक इतिहास का हिस्सा है। बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर और भारत के गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित की दिल्ली में भेंट से जुड़ी वह घटना है। उसका सीधा संबंध 4 नवंबर, 1974 से ही है।
महात्मा गांधी की जन्मस्थली गुजरात का छात्र आंदोलन बहुअर्थी बना रहेगा। उससे अनेक पगडंडियां निकलीं। जो इंदिरा गांधी की दोहरी राजनीति के लिए चुनौतियों का भयानक सबब बनती चली गईं। जैसी उनकी दोहरी राजनीति थी, वैसे ही कांग्रेस और विपक्ष के स्तर पर उन्हें गंभीर प्रश्नों का कदम-कदम पर सामना करना पड़ा। चिमन भाई पटेल के इस्तीफे से उत्पन्न राजनीतिक परिस्थिति पर वे देर तक संतोष की सांस नहीं ले सकीं। क्योंकि छात्र मुख्यमंत्री के इस्तीफे से ही सिर्फ संतुष्ट नहीं हुए। विधानसभा को भंग करने के लिए छात्रों ने आवाज दी। वह प्रबल मांग बन गई। जिसे समाज की दूसरी शक्तियों ने भी अपनी मांग बना लिया। उससे कांग्रेस और इंदिरा गांधी अछूती नहीं रह सकीं। वह तो शुरुआत मात्र थी। उसके बाद दूसरी चुनौतियों की एक शृंखला सी है। उस शृंखला को 50 साल बाद समझने के लिए इस लेख के शीर्षक से सहायता मिल सकती है। इस शीर्षक में एक अभिप्राय है। अर्थ और अभिप्राय में अंतर होता है। अर्थ सीधा समझ में आ जाता है। लेकिन अभिप्राय को एक परिप्रेक्ष्य में समझना पड़ता है।
वह परिप्रेक्ष्य क्या है और उसे 50 साल पहले के राजनीतिक इतिहास में किस प्रकार देखना चाहिए? ये कुछ साधारण से प्रश्न हैं, जिनका महत्व असाधारण है। 1 नवंबर, 1974 का दिन इतिहास में दर्ज है। उस दिन इंदिरा गांधी के बुलावे पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण दिल्ली आए। उनमें वार्ता हुई। वह विफल रही। इसका विवरण बहुत अच्छी तरह आचार्य राममूर्ति ने अपनी पुस्तक ‘जेपी की विरासत’ में दिया है। दिल्ली में कई लोग ऐसे थे, कांग्रेस में भी थे, जिन्हें इस बात की चिंता थी कि इंदिरा जी और जेपी के बीच की दूरी दूर होनी चाहिए। वे चाहते थे कि दोनों की भेंट हो, दोनों एक-दूसरे की बात सुनें, समझें, ताकि कोई रास्ता निकले और संवाद का सिलसिला हो।
1 नवंबर, 1974 को प्रधानमंत्री के निवास पर जेपी-इंदिरा मुलाकात हुई। इंदिरा जी का रुख अच्छा नहीं रहा। उनका आग्रह था कि जेपी अपना आंदोलन बिहार के बाहर दूसरे राज्यों में न ले जाएं। जेपी ने कहा कि जहां समस्याएं होंगी, वहां आंदोलन की हवा अपने-आप पहुंचेगी। उसे रोका कैसे जाए और क्यों रोका जाए? बात हुई, लेकिन बात बनी नहीं, बल्कि और बिगड़ गई। बिगड़ने का प्रमाण तीन ही दिन बाद पटना में मिल गया। जिस दिन दिल्ली में जेपी-इंदिरा मुलाकात हुई, उसी दिन शाम को दिल्ली की एक आमसभा में इंदिरा जी ने कहा, ‘‘मैं इस्तीफा देना पसंद करूंगी, मगर बिहार की विधानसभा के विसर्जन के लिए तैयार नहीं होऊंगी। जब जयप्रकाश जी कहते हैं कि जनता उनके आंदोलन के साथ है तो उन्हें सब्र से काम लेना चाहिए। फैसला अगले चुनाव में हो जाएगा।’’ इंदिरा गांधी ने जेपी को चुनाव मैदान में उतरने के लिए ललकारा। उसे जेपी कैसे नहीं स्वीकार करते! उन्होंने भी इसे अपनी नियति का एक मुकाम समझा। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दृष्टिकोण से जेपी का वह निर्णय कितना उचित था? यह एक अलग, लेकिन मूल प्रश्न है।
जेपी-इंदिरा गांधी की भेंट से पहले एक और अत्यंत महत्वपूर्ण घटना हुई। वह इतिहास के पन्नों में खोजने पर भी नहीं मिलेगी, क्योंकि वह दर्ज नहीं है। वह मौखिक इतिहास का हिस्सा है। बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर और भारत के गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित की दिल्ली में भेंट से जुड़ी वह घटना है। उसका सीधा संबंध 4 नवंबर, 1974 से ही है। आचार्य राममूर्ति ने भी यह लिखा कि ‘4 नवंबर कूच का दिन था। जनता को आंदोलन की ओर से उस दिन पटना आने के लिए आमंत्रित किया गया था। आमसभा का कार्यक्रम तो था ही, विशेष कार्यक्रम यह था कि बिहार के निर्वाचन-क्षेत्रों से आई हुई जनता अपने-अपने प्रतिनिधि से कहेगी, ‘‘आप हमारे प्रतिनिधि नहीं रहे, इसलिए विधानसभा से इस्तीफा दीजिए।’’ जेपी खुद इस कार्यक्रम में शरीक होने वाले थे। सरकार ऐसा कार्यक्रम नहीं होने देना चाहती थी। उसने अपनी पूरी शक्ति लगाकर इस कार्यक्रम को न होने देने की ठान ली थी। उस दिन पटना आने वाली बसें रद्द कर दी गईं, टिकट पास रहते हुए भी कितने ही लोग रेलों से उतार दिए गए, लोगों को डराया-धमकाया गया, नावों में पानी भर दिया गया, आदि इस तरह के उपाय किए गए, ताकि लोग पटना न पहुंच सकें।
वह सब इंदिरा गांधी की भारत सरकार के संकेतों पर किया जा रहा था। उसी दौरान की यह बात है, जिसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर ने बहुत वर्षों बाद एक बातचीत में बताया। वह इस प्रकार है, ‘एक दिन गृहमंत्री उमाशंकर दीक्षित का मुझे फोन मिला कि दिल्ली पहुंचिए! उन दिनों आंदोलन तेज था और उस पर काबू पाने के लिए पटना में रहना मेरी प्राथमिकता थी। गृहमंत्री का आदेश पाकर दिल्ली पहुंचा। उन्हें अपने पहुंचने की सूचना दी तो उमाशंकर दीक्षित ने मुझे अपने नॉर्थ ब्लॉक के कार्यालय में बुलाया। मुझे बातचीत के विषय की कोई जानकारी नहीं थी। मेरे अपने अनुमान थे। जो-जो अनुमान मैंने लगाए थे, वे बातचीत के दौरान दरकिनार होते गए। उमाशंकर दीक्षित ने जो बात मुझसे कही, वह मेरे लिए एक सदमा था। मुझे उसका कतई अंदाजा नहीं था। इसलिए मैं चौका। लेकिन संभलने में देर नहीं की। उमाशंकर दीक्षित को मैंने अपना सीधा-सपाट उत्तर देकर उतना ही चौंकाया, जितना दीक्षित जी ने मुझे चौंकाया था। गृहमंत्री चाहते थे कि बिहार लौटकर मैं जेपी को गिरफ्तार कराऊं। इस पर मैंने कहा कि मैं मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए तैयार हूं। लेकिन जेपी को गिरफ्तार करने का कलंक लेने को तैयार नहीं हूं।’
प्रश्न था कि क्या हो? इसका समाधान भी गफूर ने ही दीक्षित को सुझाया। कहा कि ‘उठिए और रैक (वह फोन सिस्टम था जिससे प्रधानमंत्री सीधे जुड़ी हुई थीं) पर जाइए। मैडम (इंदिरा गांधी) से बात करिए। उन्हें बताइए कि गफूर का निर्णय क्या है। प्रधानमंत्री का निर्देश मुझे चाहिए।’ ऐसा ही दीक्षित जी ने किया। वे बात करके लौटे। उन्होंने गफूर साहब को बताया कि आप पटना लौट जाइए और वहां की परिस्थिति को संभालने का प्रयास करिए। यह प्रसंग जेपी-इंदिरा वार्ता से कुछ दिन पहले का है।
आचार्य राममूर्ति ने लिखा है, ‘इन सारी बाधाओं के बावजूद लोग गांधी मैदान पहुंचे। और सौ-दो सौ नहीं, हजारों की संख्या में पहुंचे। कई जगह लोगों ने केले के खंभों की नावें बनाकर गंगा पार किया। लेनिन की कही बात सच निकली कि लोगों को विचार मिल जाए तो हथियार वे खुद बना लेते हैं। जेपी निश्चित समय पर निकले। गांधी मैदान पहुंचते ही पास-पड़ोस की गलियों से लोग निकल कर जेपी के साथ हो गए। उस दिन जेपी सही अर्थ में लोकनायक का रोल अदा कर रहे थे। जेपी के आत्मविश्वास, दृढ़ता और साहस को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि इस आदमी का शरीर बीमारी से जर्जर हो चुका है।’ पटना के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. सीपी ठाकुर (जो बहुत बाद में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री थे) ने एक दिन ठीक ही कहा था, ‘‘इस आदमी का हृदय, फेफड़ा, लिवर, किडनी कुछ भी ठीक नहीं है, फिर भी यह जिंदा है, कैसे जिंदा है, और जवान की तरह जिंदा है, कोई भी डॉक्टर नहीं बता सकता है।’’
सरकार नहीं चाहती थी कि जेपी के पास भीड़ इकट्ठी हो और भीड़ को साथ लेकर वे किसी एमएलए के घर पहुंचें। इसलिए भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस तो छोड़ी ही गई, लाठी चार्ज भी हुआ, अनेक लोग घायल हुए। स्वयं जेपी पर लाठी चार्ज हुआ। चोट खाकर गिर गए। जेपी को ऊपर से अगर कुछ साथियों तथा जेपी के ‘सेक्योरिटी गार्ड’ ने ढक कर लाठियों के सारे वार अपने ऊपर न ले लिए होते तो क्या होता, कौन कह सकता था? पटना की रेवेन्यू बिल्डिंग के चौराहे पर यह सारा जुल्म हो रहा था। लेकिन उसका संचालन दिल्ली से स्वयं प्रधानमंत्री कर रही थीं-दूर दिल्ली के कंट्रोल रूम से। 4 नवंबर की घटना से यह सिद्ध हो गया कि निरंकुश सत्ता किस सीमा तक जा सकती है, विशेष रूप से जब वह ऐसे व्यक्ति के हाथ में हो, जो स्वभाव से अधिकारवादी हो।
बिहार आंदोलन की आंच को हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने राज्य उत्तर प्रदेश में आने से रोक लिया। यह उनकी सफलता थी। जिसे इंदिरा गांधी के तानाशाही मिजाज ने हेमवती नंदन बहुगुणा में अपना प्रतिद्वंद्वी पाया। इसलिए इंदिरा गांधी की कुपित दृष्टि के वे शिकार हुए। उस दौर में जहां चिमन भाई पटेल ने इंदिरा गांधी की मर्जी को चुनौती दी। उनके उम्मीदवार घनश्याम ओझा को पराजित कर मुख्यमंत्री बने। उसी दौर में उत्तर प्रदेश में एक नया राजनीतिक इतिहास लिखा जा रहा था। आज भी लोग जानने को उत्सुक हैं कि ‘हेमवती नंदन बहुगुणा इंदिरा गांधी के इतने निकट थे, फिर उन्हें मुख्यमंत्री पद से क्यों हटाना पड़ा?’ उस समय की कुछ घटनाएं इस प्रश्न का उत्तर देती नजर आती हैं। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया। अपने निर्णय में पाया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चुनावों में सत्ता का बहुत दुरुपयोग किया। इस ऐतिहासिक फैसले से मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा पर काले बादल मंडराने लगे। यह तथ्य उसका साक्षी है। उस फैसले की जैसे ही बहुगुणा को जानकारी मिली, उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में उस समय वकालत कर रहे अपने पुत्र विजय बहुगुणा को निर्देश दिया कि वे तत्काल निर्णय की प्रति लेकर दिल्ली पहुंचें।
ऐसा ही उनके वकील पुत्र ने किया। अपने बेटे के साथ मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा प्रधानमंत्री निवास पहुंचे। उनके साथ विजय बहुगुणा भी थे। वहां इंदिरा गांधी की चांडाल चौकड़ी से उनका पहला सामना हुआ। जिसे हेमवती नंदन बहुगुणा की जीवनी में इस तरह लिखा गया है, ‘‘वहां ‘काकस’ पहले से मौजूद था। हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल ने हेमवती नंदन बहुगुणा के पहुंचते ही उन पर छींटाकशी की, ‘बहुगुणा जी, यह आपने क्या करा दिया? हमारे हरियाणा में होता तो देखते इंदिरा जी कैसे हारतीं?’ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा का उत्तर था, इसीलिए उत्तर प्रदेश से प्रधानमंत्री होते हैं और हरियाणा से मुख्यमंत्री। हम लोग न्याय प्रक्रिया में कभी हस्तक्षेप नहीं करते हैं।’’
ऐसा मुख्यमंत्री न तो इंदिरा गांधी को और न तो उनके दुलरुआ बेटे संजय गांधी को रास आया। उसी समय राजस्थान से मोहन लाल सुखाड़िया और महाराष्ट्र से वीपी नायक को भी मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था। असुरक्षा भाव से ग्रस्त इंदिरा गांधी को कांग्रेस की पगडंडियों से प्रतिरोध की आहट सुनाई पड़ती थी। इमरजेंसी की घोषणा के चार महीने बाद ही मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा से इंदिरा गांधी ने इस्तीफा मांगा। यह बात 27-28 नवंबर, 1975 की है। हेमवती नंदन बहुगुणा ने इंदिरा गांधी से कहा कि ‘मैं त्याग पत्र लेकर आया हूं, लेकिन संवैधानिक रूप से इसे राज्यपाल को सौंपना चाहिए। आपको दूंगा तो इसका संदेश अच्छा नहीं होगा।’ जाते-जाते भी उन्होंने राजनीतिक और संवैधानिक मर्यादा की इंदिरा गांधी को याद दिलाई।
बिहार आंदोलन की आंच को हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने राज्य उत्तर प्रदेश में आने से रोक लिया। यह उनकी सफलता थी। जिसे इंदिरा गांधी के तानाशाही मिजाज ने हेमवती नंदन बहुगुणा में अपना प्रतिद्वंद्वी पाया। इसलिए इंदिरा गांधी की कुपित दृष्टि के वे शिकार हुए।