गो रक्षा आंदोलन तो अंग्रेजों के खिलाफ था

गो रक्षा आंदोलन तो अंग्रेजों के खिलाफ था
रामबहादुर राय

गोधन की रक्षा पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। इसके खासतौर पर दो कारण हैं। पहला उस आयोग की रिपोर्ट है जो सरकार के विचारधीन है। वाजपेयी सरकार ने इतिहासकार धर्मपाल की अध्यक्षता में पिछले साल आयोग बनाया था। उसकी रिपोर्ट आ गई है। जिन दिनों रिपोर्ट बन रही थी एक दूसरी प्रक्रिया भी उन्हीं दिनों पूरे जोरों पर थी। रिपोर्ट के ही वक्त एक किताब छापी गई। किताब अंग्रेजी में है। करीब पांच सौ पेज की इस किताब से इतिहास के अनेक अज्ञात तथ्यों पर रोषनी पड़ती है। वास्तव में यह किताब बड़ी मेहनत और लगन से सालों का वक्त लगाकर खोजे गए दस्तावेजों का संग्रह है। धर्मपाल और टीएम मुकुंदन की किताब का षीर्शक है- द ब्रिटिष ओरिजिन आफ काऊ स्लाटर इन इंडिया। इस पवन गुप्त की संस्था सोसाएटी फार इंटीग्रिटेड डवलपमेंट आफ हिमालयाज (सिद्ध) ने प्रकाषित किया है। इन दो घटनाओं का आपसी संबंध है। इससे ही बहस तेज हुई है।
आयोग की अध्यक्षता स्वीकार करने के कुछ दिनों बाद धर्मपाल ने महसूस किया िकवे एक पचड़े में फंस गए हैं। कई बातें उनको मालूम पड़ी। उसका जिक्र उन्होंने रिपोर्ट के साथ अपनी टिप्पणी में जोड़ा है। उनकी यह टिप्पणी ध्यान देने लायक है कि हाल-हाल तक मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि भारत सरकार का प्षुपालन विभाग वास्तव में किसलिए बना है। उन्होंने यह भी लिखा कि आयोग में षामिल होने के बाद मैंने महसूस किया कि मैं गलत जगह आ गया हूं। इसका स्पश्टीकरण उन्होंने दिया है। नाम ऐसा लगता है कि पषुपालन विभाग भारत में पषुधन के लिए बनाया गया है। सच यह नहीं है। यथार्थ इसके विपरीत है। अंग्रेजों ने इस विभाग को अपने लिए बनाया था। अंग्रेजों को पषुओं का मांस चाहिए था। अपने लिए खुराक का इंतजाम वे इस विभाग से करवाते थे। वह विभाग उसी ढर्रे पर चल रहा है। उस विभाग के तहत बनाया गया आयोग गो धन की रक्षा के लिए कैसे प्रयास करेगा?
इस मायने में वाजपेयी सरकार एक आघोशित युद्ध की स्थिति में है। इस सरकार से आषा थी िकवह गो धन की रक्षा के लिए हर स्तर पर प्रयास करेगी। वह आषा खत्म होती नजर आ रही है। कांचीपुरम के षंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती के दबाव में गो पषु आयोग बना। धर्मपाल उसके अध्यक्ष बनाए गए। यह सब जब चल रहा था उन्हीं दिनों जयेंद्र सरस्वती को यह मालूम पड़ा कि धर्मपाल ने अंग्रेजों के जमाने के दस्तावेजों, पत्रों, गोपनीय रिपोर्टो और ऐसे ही अनेक कागजातों को जुटा रखा है। इन दस्तावेजों को खेजने में धर्मपाल ने सालों लगाए है। इससे पहले कभी-कभार कुछ बातें इन दस्तावेजों के आधार पर छापी गई हैं। गो पषु आयोग बनने के साथ-साथ एक काम यह भी हुआ है कि उन दस्तावेजों को एक पुस्तक में संग्रह कर दिया गया है। इस तरह आयोग की रिपोर्ट धर्मपाल की नई पुस्तक से वाजपेयी सरकार की मंषा पर सवालिया निषान लग गया है। क्या यह सरकार गो धन की रक्षा करना चाहती है? तथ्यों से दूसरे निश्कर्श निकल रहे हैं। पिछली सरकारों के ही ढर्रे पर यह भी चल रही है। आजादी के बाद सरकारों ने गो धन की रक्षा के उपाय नहीं किए। कसाईखानों को बढ़ाने के फैसले किए गए जहां गांय और बछड़े मांस के लिए काटे जाते हैं। करीब दो करोड़ साठ लाख पषु हर साल इन कसाईखानों में काटे जाते हैं। इतने बड़े पैमाने पर पषुओं को अंग्रेजों के जमसाने में भी नहीं काटा जाता था। अगर सरकार गो धन और पषु के बारे में अपनी नीति नहीं बदलती तो यह सिलसिला बढ़ेगा। मांस निर्यात के लिए यह सब किया जा रहा है।
जो बहस चल रही है वह गो रक्षा तक सीमित नहीं क्योंकि गो रक्षा का सवाल पूरी राज्य व्यवस्था से जुड़ गया है। धर्मपाल इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आजादी आने के समय ही यह तय हो गया था कि सनातन धर्म या गांव वालों की जो भारतीयता है वह पुनः स्थापित नहीं होगी। उनके इस निश्कर्श का ठोस आधार है। उसका जिक्र वे कई जगह कर चुके हैं। 1950 के आसपास ासोचा गया था कि राज्य अपने-अपने यहां गोवध बंदी की घोशण रें। ऐसा विचार हो ही रहा था कि भारत सरकार ने 20 दिसंबर 1950 को एक पत्र राज्यों को भेजा। उसमें सलाह थी कि पूरी तरह गोवध बंदी से आर्थिक नुकसान होगा। चमड़ा उद्योग बैठ जाएगा। इसी कड़ी में 1954 की एक रिपोर्ट का हवाला धर्मपाल देते हैं। वह रिपोर्ट एक विषेशज्ञ दल की है। उसमें सुझाया गया है कि चारा वगैरह की कमी को देखते हुए 60 फीसदी पषुओं को कसाईखाने ही भेजना उचित रहेगा। यह हाल षुरूआती दिनों का है। उसके बाद हमारे यहां खेती का जो तौर तरीका बदला और विकसित हुआ है उसमें पुषधन का महत्व घटा है। खेती और गोवंष का परंपरागत संबंध बदल गया है। किसान मन से गो धन के प्रति अभी भी निश्ठा रखते हैं। पर परिस्थितियां उन्हें विवष कर रही है। जब तक यह असंतुलन दूर नहीं होता गो धन की रक्षा के लिए वातावरण नहीं बनेगा।
धर्मपाल की नई किताब से गो रक्षा के लिए चले लंबे आंदोलन की जानकारी मिलती है। हमारे नामी इतिहासकारों ने जिस तथ्य को बताने लायक नहीं समझा उसे धर्मपाल ने खोजा और अब छपवा दिया है। उन्होंने इतिहास लिखा नहीं है, खोजा है। अंग्रजों के अभिलेखागारों से एक-एक पन्ने को ढूंढ निकाला है। उनके पास हजारों पन्नों का भंडार है। उसमें से ही कुछ का इस्तेमाल इस किताब में हो सका है। उस इनसे एक ऐतिहासिक तथ्य प्रकट होता है कि गो रक्षा के लिए अंग्रेजी जमाने में बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ था। उसमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया। वह आंदोलन देषव्यापी था जो लगातार चैदह साल तक चलता रहा। उसकी षुरूआत 1880 में हो गई थी। 1894 तक यह तूफान की तरह छाया रहा। पंजाब, उत्तर प्रदेष, बिहार, बंगाल आदि राज्यों में आंदोलन इतना तेज था कि अंगे्रज षासकों की नींद हराम हो गई थी। उन्हें आंदोलन पर अपनी रिपोर्ट लंदन भेजनी पड़ती थी। उन्हीं कागजातों से आंदोलन की जानकारी छनकर आई है।
गो रक्षा के लिए आंदोलन इसी काल खं डमें क्यों खड़ा हुआ? इस प्रष्न का उत्तर खोजते वक्त कई ऐतिहासिक तथ्य हाथ लगते हैं। हमारी इतिहास दृश्टि क्या हो? इस बारे में भी एम समझ पैदा होती है। धर्मपाल का मानना है कि मुसलमानों के कार्यकाल में गोवध बहुत कम हुआ। मुसलमानों का दौर पांच सौ साल रहा है। उस खंड को दो हिस्सों में देखना चाहिए। पहला हिस्सा है जब मुसलमा हमलावर के रूप् में आए। दूसरा हिस्सा है जब उनका राज कायम हो गया। धर्मपाल ने पाया है कि मुसलमान गाय मारने वाले नहीं थे। उनकी खुराक में गो मांस का स्थान नहीं था। वे भेड़, बकरी और ऊंट मारते थे। ऊंट की जगह गाय मारने का सिलसिला मुसलमानों ने 1919 के बाद षुरू किया होगा। जो बाहर से मुसलमान आए वे षहरों में बसे। गांव वालो मुसलमान वे हैं जो धर्मातरित हुए। इनमें गाय खाने वाले बहुत ही कम रहे होंगे क्योंकि धर्म बदल देने से भोजन की आदतें नहीं बदल गई होंगी। एक और तथ्य धर्मपाल बताते हैं कि बाबर ने हुमायूं को सलाह दी कि गाय को मारना अच्छा नहीं होगा। उससे मुसीबत पैदा होगी। हुमायंू का षासन तो कुछ खास नहीं रहा लेकिन अकबर, जहांगीर के षासनकाल में गो हत्या बंद रही। धर्मपाल यह भी मानते हैं कि मुसलमान गो रक्षा के पक्षधर रहे हैं। कुछ खास मोकों पर मुसलमानों में गोवध का प्रचलन है। लेकिन इस पर षोध का काम कम हुआ है। यह पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता कि कम-कब ऐसा होता है।
पक्के तौर पर जो बात कही जा सकती है वह यह कि अंग्रेजों ले रोज गो हत्या का सिलसिला चलाया। हरदेव सहाय की जीवनी से पता चलता है कि मुसलमान षासकों के जमाने में एक साल में अधिक से अधिक बीस हजार गाय मारी गई होंगी। यह हिसाब किस आधार पर लगाया गया इसका प्रमाण नहीं है। अंग्रेजों के षासन के आखिरी चरण में साल में एक करोड़ से अधिक गाय, बैल, बछड़े और सांड काटे जाते थे। इनमें नब्बे फीसदी के मांस का उपयोग अंग्रेज करते थे। जहां-जहां उनकी फौज थी वहां-वहां मांस की जरूरत पड़ती थी। आजकल उससे भी ज्यादा गायें काटी जाती हैं। अब मांस के निर्यात का कारोबार होता है। इसलिए कत्लखाने बढ़ाए जा रहे हैं। धर्मपाल के अध्ययन के एक निश्कर्श पर गहरा विवाद है। विष्व हिन्दू परिशद के नेता अषोक सिंघल उनके इस निश्कर्श से असहमत हैं। एक हद तक खफा हैं। धर्मपाल का निश्कर्श है कि भारत में मुसलमान यहां के समाज से घुलमिल जाते। अंग्रेजों ने उस प्रक्रिया को पलट दिया। अंग्रेज और फ्रेंच ने यहां आकर मुसलमानों को भड़काया। हिन्दुओं से उन्हें लड़ाया। गो रक्षा आंदोलन की जो भी घटनाएं अभिलेखागार में हैं उनसे ये बातें निकलती हैं। धर्मपाल की पुस्तक में रानी विक्टोरिया का एक पत्र हैं जो उस समय के वायसराय लैंस डाउन को लिखा गया है। इस पत्र से साफ होता है कि अंग्रेज अपनी सेना के लिए गोवध करवाते थे। मुसलमानों का वे इस्तेमाल करते थे। रानी विक्टोरिया को उस समय के आंदोलन के बारे में जब बताया गया तो उन्होंने लिखा कि यह आंदोलन मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। यह हमारे खिलाफ है क्योंकि गोवध तो अपनी सेना के लिए हम ही ज्यादा कराते हैं। इसे दर्ज कर धर्मपाल ने इतिहासकारों को नई समझ दी है। वे अब तक उस दौ के आंदोलन को हिन्दूम-मुसलमान का झगड़ा बताते रहे हैं। सच दूसरा है। वह पूरा आंदोलन गो रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ था। जो मुसलमान गोवध में षामिल होते थे वे अंग्रेजों के दबाव और धमकी के कारण होते थे।
धर्मपाल ने बताया है कि इस तथ्य को महात्मा गांधी ठीक से समझा। इस मायने में महाम्मा गांधी पहले नेता हैं जिन्होंने इसे पहचाना। यह फर्क समझा कि गोवध का सवाल अंग्रेजों को संबोधित है। 1917 में वे मुजफफ्रपुर में भाशण करते हुए कहते हैं कि अगर हम गो रक्षा चाहते हैं तो हमें कत्तखानों को बंद कराना होगा। कम से कम तीस हजार गाय और बछड़े रोज अंग्रेजों के लिए काटे जाते हैं। उसे हम रोकने में सफल नहीं हुए। हमें कोई अधिकर नहीं है कि हम इसका दोश मुसलमानों पर मढ़ें। गो रक्षा के लिए जो लंबा आंदोलन चला वह 1894 में पिट गया। लेकिन वह हमेषा के लिए खत्म नहीं हुआ। उसकी आंच धीमी पड़ गई। आजादी से पहले वह समय≤ पर उभरता रहा। आजादी के बाद छठे दषक फिर से गो रक्षा अभियान चला। लेकिन वह अल्पकालिक रहा। गो रक्षा का आंदोलन भले ही सड़कों पर न दिखे पर हर भारतीय के लिए वह मूल सवाल है। गो पषु आयोग की रिपोर्ट और धर्मपाल की पुस्तक से उस सवाल की जड़ों को पहचानना आसान हो गया है।

जनसत्ता 19.10.2001

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