क्या भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है

बृजकिशोर शर्मा

‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द का संविधान की उद्देशिका में समावेश करने का केवल इतना अर्थ हुआ कि हमने नामपट्ट में राज्य को पंथनिरपेक्ष घोषित कर दिया।

इस घोषणा का प्रभाव उतना ही है जितना बाजार में कोई अपने नामपट्ट में लिखा दे कि वह विश्व का सर्वश्रेष्ठ वास्तुकार है। इस प्रकार की गर्वीली घोषणाएं थोथी और अर्थहीन होती हैं। पंथनिरपेक्षता का दावा तथ्य पर आधारित है या नहीं, यह जानने के लिए संविधान के उपबंधों की परीक्षा आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम चार अनुच्छेदों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। ये चारो ‘मूल अधिकार’ के भाग में हैं। अनुच्छेद- 25, 26, 19 और 30।

अनुच्छेद 25 का प्रारंभिक भाग इस प्रकार है- “लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए…।” आगे यह स्पष्ट रूप से उपबंध है कि राज्य धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रिया-कलाप का विनिमयन कर सकेगा। दूसरी बात यह भी कही गई है कि राज्य सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए उपबंध कर सकेगा।

स्टेनस्लास के मामले में उच्चतम न्यायालय में यह तर्क दिया गया कि हिंदुओं और अन्य लोगों को ईसाई धर्म में धर्मांतरित करना, ईसाइयों का मूल अधिकार है। इतिहास इसका साक्षी है कि मुस्लिम शासन में बलपूर्वक हिंदुओं को मुसलमान बनाया गया। ब्रिटिश शासन में और बाद में लालच देकर छलपूर्वक ईसाई मिशनरी मतांतरण करती हैं। न्यायाधीश केसी. नियोगी की अध्यक्षता में एक आयोग ने मिशनरियों की अवांछनीय गतिविधियों पर प्रकाश डाला था। कुछ राज्यों ने अधिनियम बनाकर इस प्रकार के मतांतरण पर रोक लगाई है। संसद में ओमप्रकाश त्यागी ने एक विधेयक पेश किया था जो संपूर्ण भारत में इस प्रकार के कार्यों को रोकता, किंतु वह पारित नहीं हो सका। यह ध्यान देने वाली बात है कि ‘सिविल और राजनीतिक अधिकार की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविद’, संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अंगीकार की गई है। इसका अनुच्छेद-19.2 इस प्रकार है ‘‘किसी व्यक्ति को इस प्रकार प्रताड़ित नहीं किया जाएगा, जिससे उसकी अपनी रुचि का धर्म या विश्वास मानने या अपनाने की स्वतंत्रता कम होती हो।

सड़कों और राजमार्ग को बाधित कर नमाज पढ़ते हुए हर नगर में देखा जा सकता है। यह लोक व्यवस्था के विरुद्ध है। मुंबई में कुछ मार्गों पर पूरा यातायात थम जाता था। इसकी प्रतिक्रिया में शिवसेना ने महाआरती आरंभ कर दी। तब कहीं जाकर शासन ने अवरोध हटाने पर कार्रवाई की। दिल्ली जामा मस्जिद के साथ-साथ अनेकानेक मस्जिदों का उपयोग राजनीतिक और भड़काऊ भाषणों के लिए किया जाता है। कश्मीर में तो मुख्यमंत्री स्वयं यह कार्य करते हैं। स्वर्ण मंदिर का ऐसा ही उपयोग जरनैल सिंह भिंडरावाले के समय हुआ। यह सब लोक व्यवस्था के विरुद्ध है।

हमारे देश में विचित्र स्थिति है। राजनीतिक दल जाति और धर्म के आधार पर मत की याचना करते हैं और फिर धर्म या पंथ के आधार पर संविधान का निर्वचन करने के लिए न्यायालय से अनुरोध करते हैं।

हिंदू विधि में संशोधन को इसी अनुच्छेद के आधार पर उचित ठहराया जाता है, किंतु जब मुस्लिम विधि में स्त्रियों को अधिकार देने की बात उठती है तो यह कहा जाता है कि यह धार्मिक मामले में हस्तक्षेप है। इसी आधार पर शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उलटा गया। अनुच्छेद-26 में यह कहा गया है कि प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को अपनी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार होगा। किंतु प्रतिदिन दिखाई देता है कि सार्वजनिक पार्क में मस्जिद बना ली जाती है, पुरातत्व विभाग के संरक्षित स्थानों को मस्जिद घोषित कर वहां नमाज पढ़ी जाती है, उनमें निर्माण कर वहां निवास बनाए जाते हैं। दूकानें और बाजार बनाए जाते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि यह भी मांग की जाती है कि किराया नियंत्रण की या संपत्ति अंतरण की विधि इन्हें लागू नहीं की जाए। इस प्रकार धर्म के आधार पर विभेद किया जाता है।

अनेक राज्य सरकारों ने हिंदुओं के मंदिरों और मठों के लिए धार्मिक विन्यास अधिनियम बनाए हैं, उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु हिंदू धार्मिक विन्यास अधिनियम और तिरुपति देवस्थान या नाथद्वारा मंदिर आदि हैं।   यह पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध है। हिंदुओं के विभिन्न संप्रदायों के मठ और मंदिर हैं। उन मठों और मंदिरों से उनका अधिकार छीन लिया गया है। मंदिरों की पूजा पद्धति का निर्णय उस संप्रदाय के लोग नहीं करते हैं, बल्कि सरकारी कर्मचारी करते हैं। मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर का न्यासी एक मुसलमान को बनाया गया था। यह पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध है। यह शासन का सीधा हस्तक्षेप है। अनेक मंदिरों में श्रद्धालु जो चढ़ावा चढ़ाते हैं, उसका उपयोग सरकार अपने कार्यों के लिए करती है। यही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों की संस्थाओं को भी उसका अंश दिया जाता है।

बोहरा लोगों के सैयदना एक अत्यंत शक्तिशाली व्यक्ति हैं। प्रत्येक बोहरा को अनिवार्य रूप से अपनी आय का एक भाग उन्हें देना होता है। सैयदना जब चाहे किसी भी बोहरा को संप्रदाय से निष्कासित कर सकता है। निष्कासित व्यक्ति से कोई रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं कर सकता। मरने के बाद उसे बोहराओं के कब्रिस्तान में दफनाया नहीं जा सकता। इसी प्रकार फतवा और हुकूमनामा जारी करके सिविल अधिकारों का हनन होता है। यह सब पंथनिरपेक्षता के प्रतिकूल है। हमारे देश में विचित्र स्थिति है। राजनीतिक दल जाति और धर्म के आधार पर मत की याचना करते हैं और फिर धर्म या पंथ के आधार पर संविधान का निर्वचन करने के लिए न्यायालय से अनुरोध करते हैं।

एक मामले में भारत सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह तर्क दिया गया कि संस्कृत की शिक्षा देना पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध है। संस्कृत भाषा के व्याकरण और शब्द भंडार की प्रशंसा पूरे विश्व के भाषा विज्ञानियों ने की है। संस्कृत में लिखा साहित्य अमूल्य निधि है और हमारे देश की संस्कृति का मूल आधार है, किंतु सरकार को इसमें पंथवाद का दोष दिखाई दिया। न्यायालय ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि हमारी सांस्कृतिक विरासत के पोषण में संस्कृत का बहुत महत्व है। इसी कारण हमारी शासकीय शिक्षा नीति में संस्कृत की शिक्षा पर बल दिया गया है। संस्कृत को एक वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाना और यह प्रतिष्ठा अरबी या फारसी को न देना पंथनिरपेक्षता के आधारभूत सिद्धांतों के विरुद्ध कदापि नहीं हो सकता।”

गुरु नानक विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को गुरु नानक द्वारा प्रणीत पंथ से छात्रों को परिचित किया जाता था। इसका विरोध करते हुए यह तर्क दिया गया कि कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने यह तर्क अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि धार्मिक शिक्षा का अर्थ है, वह शिक्षा जो किसी संप्रदाय या वर्ग के सिद्धांतकर्मकांड, पूजा-पाठ या उपासना पद्धति को बढ़ावा के लिए दिया जाए। भारत के प्रतिष्ठित संतों का जीवन, उनके उपदेश, दर्शन आदि का शास्त्रीय अध्ययन करने की व्यवस्था करना धार्मिक शिक्षा नहीं है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *