इरफ़ान हबीब आप इतिहासकार हैं या मुसलमान..

देवांशु झा

इरफ़ान हबीब के प्रति मेरे मन में कभी कोई शंका नहीं रही। मैं उन्हें बहुत पहले से बेईमान इतिहासकार मानता रहा हूं लेकिन जिस व्यक्ति की ख्याति मध्यकालीन भारत में इतनी हो उसका इतना दरिद्र इतिहासबोध क्षुब्ध करता है । इससे पहले भी वे अपनी वामपंथी प्रज्ञा से संघ की तुलना आईएसआईएस कर के यह साबित कर चुके हैं कि उनकी दृष्टि किसी टोपीधारी मौलाना से बेहतर नहीं है । रत्ती भर की ईमानदारी नहीं । रत्ती भर का आत्मावलोकन नहीं । सांप्रदायिकता और आतंकवाद जैसे मुद्दों का वस्तुनिष्ठ आकलन तो दूर की कौड़ी है ।

अयोध्या और प्रयाग को मूल नाम दिये जाने से परेशान हबीब साब कहते हैं कि अमित शाह को भी अपना नाम बदल लेना चाहिए क्योंकि शाह तो फारसी नाम है । कहावत है पढ़े फारसी बेचे तेल…हबीब साहब भी वही करते हैं ! जो साह शब्द शाह हुआ है वह पर्शिया..ईरान के इलाके में श्रीवन के राजाओं द्वारा धारण किया जाता था । श्रवंशा: जिसका अपभ्रंश है शाह..कहना ज़रूरी नहीं है कि श्रीवन कोई फारसी शब्द नहीं । संस्कृत है । जो शाह है.. वह संस्कृत में क्षत्र है.. जिससे क्षत्रिय बना । वह साहू भी है.. । हमारे इलाके के सबसे बड़े जमींदार थे साहू परबत्ता । साहू को संस्कृत के साधु का अपभ्रंश माना जाता है ।

भारतीय जीवन में सभ्यताओं का इतना घालमेल हो चुका है कि नाम और उपनाम, उपाधियां बदल चुकी हैं । परंतु किसी व्यक्ति की उपाधि उसकी निजी पहचान है । वह किसी सभ्यता या संस्कृति, नगर को पराजित कर, लूट कर एक महान तीर्थ के इस्लामीकरण की दारुण कथा नहीं है । जैसा कि हबीब साहब कहते हैं कि अकबर ने किला बनाया और नगर का नाम रख दिया इलाहाबाद और जो प्रयाग है वह तो बस संगम है ! कितने मासूम हैं हबीब !!परंतु उन्हें बताना जरूरी है कि प्रयाग एक जीवंत नगरी थी और है ।

जिस प्रयाग को संगम तक सीमित कर इलाहाबाद शहर को उससे अलग करने की कोशिश में वे हैं, वह हास्यास्पद तो है ही, बहुत मूर्खतापूर्ण भी है । मैंने एक बार पहले भी लिखा था कि मेरी निरक्षर दादी को मैंने कभी इलाहाबाद कहते हुए नहीं सुना, या उस दौर के सभी लोग इलाहाबाद को प्रयाग ही कहते थे । प्रयाग को प्रयाग कहना नाम बदलना नहीं बल्कि मूल नाम वापस देना है । प्रयाग तीर्थराज है । इरफान हबीब को भारतीय जीवनधारा में प्रयाग की महत्ता का भान होता तो इतनी छोटी बात न करते ।

फिर वे कहते हैं कि अहमदाबाद तो कर्णावती था ही नहीं । मतलब.. झूठ बोलते हुए शर्म भी नहीं आती । हालांकि उन्हें तो कर्णावती कहना भी नहीं आता.. करनवती करनवती कर रहे थे । लेकिन वह तो सर्वविदित है कि चालुक्य सम्राट ने कर्णावती नगर को बसाया था, जिसे बाद में अहमद शाह ने अहमदाबाद कर दिया । हबीब कहते हैं.. आबाद किया…इस्लाम के आक्रांता आबाद करते थे ! नगर पर अधिकार करने से पहले की रक्तरंजित कथाएं कौन सुने और सुनाए..हबीब साहब तो उसे साम्राज्यवाद की सहज प्रक्रिया मानते हैं । जैसा कि वे आगे कहते हैं कि आप यह न कहें कि आप मुग़लों, तुर्कों, अफगानों के ग़ुलाम थे। अगर ऐसा कहते हैं तो आपको यह भी कहना चाहिए कि आप तो क्षत्रियों के भी गुलाम रहे !

यह आदमी इतिहास पढ़ाता है..! आश्चर्य है कि हबीब इतने मूर्ख हैं ।
उन्हें भारतीय समाज में क्षत्रिय राजाओं की उपस्थिति और इस्लाम के
बर्बर लुटेरों, हत्यारों की फौज में कोई अंतर ही नहीं दीख पड़ता !!

हबीब और ओवैसी की भाषा में कोई फर्क नहीं है । हबीब और ओवैसी की मानसिकता में भी कोई फर्क नहीं है और दोनों की बुद्धिमत्ता का स्तर भी एक जैसा है । दोनों सिर्फ मुसलमान हैं उससे अधिक कुछ भी नहीं । दोनों आत्मावलोकन नहीं करते । दोनों इस सत्य से मुकर जाते हैं कि अयोध्या और प्रयाग भारतीय सभ्यता के प्राणस्थल हैं । उन्हें तो उनका मूल नाम मिलना ही चाहिए ।

ये वही लोग हैं जिन्हें सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार से दुःख होता है । ये वही लोग हैं जो कहते हैं कि मुगलों ने तो भारत को बसाया । गोया…मुगलों के आने से पहले तो भारत दरिद्र.कलाविहीन पशुओं की धरती था । यहां न तो महान इमारते थीं..ना ही किसी तरह का..कला संगीत का ज्ञान..! जैसा कि पाकिस्तान के टीवी चैनल में बैठकर कई मर्तबा लोग बातें करते हैं किहमने तो उन्हें तहज़ीब सिखाई..! इतने कूपमंडूक लोग कभी नहीं देखे । अंग्रेजों ने हमें आधुनिक चेतना से संपन्न किया लेकिन वे हमारी प्राचीन सभ्यता और धरोहर के प्रति बहुत आदर का भाव भी रखते रहे । बल्कि उन्होंने तो कई चीजें उद्घाटित कर सामने रखीं । परंतु ये तो मुल्लों और मूढ़ मौलवियों की भाषा बोलते हैं । इन्हें इतिहासकार कहना एक अपराध है क्योंकि इतिहासबोध तो है नहीं ।

मैं समझता हूं कि इरफ़ान हबीब औरंगजेब के नाम से बनी सड़क का नाम बदले जाने से भी दुःखी रहे होंगे । दुःख होना भी तो चाहिए !आखिर औरंगज़ेब भी तो इतना महान बादशाह था !

देवांशु झा की फेसबुक वाल से..

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