विपक्ष का अरण्य रोदन

 

बनवारी

भारत की वर्तमान सरकार की उदारता ही है कि उसने नागरिकता कानून में संशोधन करके केवल भारतीय मूल के धर्मों  के अनुयायी हिन्दू, बौद्ध, सिख और जैन को ही भारतीय नागरिक होने का अवसर नहीं दिया, पारसी और इसाइयों को भी इस श्रेणी में सम्मिलित किया है। इन सभी लोगों को भारतीय नागरिकता देना किस तरह भारतीय संविधान की मूल भावना का, अपरिभाषित सेक्यूलरिज्म का या भारत के नागरिकता कानूनों का उल्लंघन हो सकता है, यह समझ से परे है।

यह संतोष की बात है कि लंबे समय के बाद उन कई करोड़ लोगों को भारत में नागरिकता पाकर सम्मान से जीने का अधिकार मिल गया है, जो अंगे्रजों द्वारा किए गए भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में मजहबी असहिष्णुता और घोर उत्पीड़न का शिकार होकर भारत आए थे तथा अब तक की सरकारों द्वारा नागरिकता न दिए जाने के कारण अपराधी की तरह भारत में रह रहे थे। महात्मा गांधी जिनके नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन लड़ा गया था, भारत विभाजन के विरूद्ध थे।

नेहरू और पटेल द्वारा भारत विभाजन स्वीकार कर लिए जाने के बाद उन्होंने विवशता में यह कहकर कांग्रेस महासमिति को विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए तैयार किया था कि अब 77 वर्ष की आयु में वे कांग्रेस का नया नेतृत्व पैदा नहीं कर सकते और न ही उसे नेतृत्वविहीन छोड़ सकते हैं। वे विभाजन के दुष्परिणाम जानते थे और उन्होंने कहा था कि इसके फलस्वरूप हमारे पड़ोस में एक स्थायी दुश्मन पैदा हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत का नैतिक दायित्व है कि वह विभाजन से अलग हुए इन देशों से उत्पीड़न का शिकार होकर भारत आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध आदि धर्मों के अनुयायी को नागरिकता प्रदान करे।

विभाजन के बाद दो बार बड़े पैमाने पर लाखों लोग शरणार्थी होकर भारत आए, पहले 1947 में पाकिस्तान से और फिर 1971 में बांग्लादेश से। इसी तरह अफगानिस्तान में इस्लामी असहिष्णुता के कारण वहां पीढ़ियों से रह रहे हिन्दू, सिख और बौद्ध आदि को पलायन करना पड़ा। 1947 और 1971 के बाद विशाल संख्या में भारत आए लोगों को नागरिकता दी गई। लेकिन नागरिकता कानून में यह व्यवस्था नहीं की गई कि इस्लामी असहिष्णुता का शिकार होकर भारत आए सभी अल्पसंख्यकों को नागरिकता का अधिकार होगा। अब नागरिकता कानून में यह परिवर्तन कर लिया गया है।

लेकिन यह क्षोभ की बात है कि यह सर्वानुमति से नहीं हुआ। विपक्षी दलों ने उस पर निराधार विवाद ही नहीं वितंडा खड़ी की। यह विचित्र बात लगती है कि जो अवसर हमारे तीन पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर निरंतर होने वाले बर्बर और अमानुषिक व्यवहार तथा उत्पीड़न की घटनाओं को दुनिया के सामने लाने का था उसे भारत के मुसलमानों के साथ इस कानून के कारण होने वाले काल्पनिक भेदभाव का बना दिया गया। इससे हमारी राजनीति के उस पतन का पता चलता है, जिसमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल उसे ले गए हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि महात्मा गांधी के समय तक जो कांग्रेस भारत की सभ्यतागत मान्यताओं और भारतीय समाज की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की वाहक थी, वह आज भारतीय सभ्यता के निषेध और राष्ट्रीय हितों की अवमानना का कारक हो गई है।

हमारा आज का लगभग पूरा विपक्ष, मार्क्सवादियों और मुस्लिम लीग को छोड़कर कांग्रेस से छितरे नेताओं और समूहों से ही बना है। देश के भीतर पिछले सात दशकों में नेहरू कांग्रेस ने बौद्धिक प्रतिष्ठानों और समाचार माध्यमों में भी एक बड़ा वर्ग पैदा कर दिया है, जो उसी के फैलाए वैचारिक दुराग्रहों से ग्रसित है। इन सब लोगों के कारण पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले लोमहर्षक अमानवीय व्यवहार को अनदेखा किया जाता रहा। देश के बंटवारे से पहले आज के पाकिस्तान में भारतीय मूल के धर्मों के अनुयायी की संख्या आबादी का 20 प्रतिशत थी और बांग्लादेश में 33 प्रतिशत। आज वह पाकिस्तान में घटकर पौने दो प्रतिशत रह गई है और बांग्लादेश में आठ प्रतिशत। भारत के मूल धर्मों के अनुयायी पर वहां कैसे अत्याचार होते रहे हैं, इसके अचर्चित ब्योरों की झलक आजादी से ठीक पहले की महात्मा गांधी की नोवाखाली यात्रा के वर्णनों में देखी जा सकती है।

इन देशों में भारत के मूल धर्मों के अनुयायी को मार दिया गया, भागने के लिए मजबूर किया गया या उनका जबरन धर्मांतरण कर दिया गया, यह प्रक्रिया आज भी जारी है। उनके बारे में भारतीय संसद को सर्वसम्मति से यह संकल्प लेना चाहिए था कि उनके साथ अन्याय नहीं होने दिया जाएगा। उनके साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार को भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाएगा। हमें यह निर्णय तो स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद कर लेना चाहिए था कि इन देशों से प्रताड़ित होकर भारत आने वाले भारतीय मूल के धर्मों के अनुयायी को भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार होगा। लेकिन दुर्भाग्य से देश की बागडोर जिन हाथों में रही है, वे भारतीय सभ्यतागत मान्यताओं और धार्मिक आस्थाओं के प्रति ऐसी आत्महीनता पाले हुए थे कि इन सब अभागे लोगों की ओर देखना उन्हें अपने तथाकथित सेक्यूलरिज्म के विपरीत लगता था।

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि कांग्रेस के नेतृत्व में लगभग पूरा विपक्ष और बौद्धिक लोगों का एक बड़ा समूह नागरिकता कानून में संशोधन करके दुर्भाग्य से घिरे रहे इन लोगों को भारतीय नागरिकता दिए जाने को मुसलमानों के साथ कुछ उसी तरह की मानसिकता से ग्रस्त अत्याचार बता रहा है, जैसा जर्मनी में यहूदियों के साथ हुआ था। इस कुतर्क की कोई सीमा नहीं है। संसद में दिया गया यह तर्क गलत नहीं था कि इन सभी मुस्लिम देशों में केवल उन्हीं धर्मों के अनुयायी का उत्पीड़न नहीं हो रहा, जिन्हें संशोधन विधेयक में गिनाया गया था। वहां अहमदिया और शिया आदि मुस्लिम संप्रदायों का भी उत्पीड़न हो रहा है। लेकिन क्या आप यह कह सकते हैं कि इन मुस्लिम देशों में जिन मुस्लिम समुदायों का उत्पीड़न हो रहा है, उनके लिए भी हमारे दरवाजे खुले हुए हैं? क्या ऐसा कहने पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह हल्ला नहीं मचा दिया गया होता कि भारत इन सभी देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है और उन्हें भीतर से तोड़ना चाहता है? अपने तमाम दुराग्रहों के बावजूद कांग्रेसियों में इतनी बुद्धि तो है ही कि वह यह जानें कि ऐसा करना राजनयिक मर्यादाओं और अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन होता।

यह भारत की वर्तमान सरकार की उदारता ही है कि उसने नागरिकता कानून में संशोधन करके केवल भारतीय मूल के धर्मों के अनुयायी, हिन्दू, बौद्ध, सिख और जैन को ही भारतीय नागरिक होने का अवसर नहीं दिया, पारसी और इसाइयों को भी इस श्रेणी में सम्मिलित किया है। इन सभी लोगों को भारतीय नागरिकता देना किस तरह भारतीय संविधान की मूल भावना का, अपरिभाषित सेक्यूलरिज्म का या भारत के नागरिकता कानूनों का उल्लंघन हो सकता है, यह समझ से परे है।

यूरोप में विकसित हुई डेमोक्रेसी में दलीय प्रतिस्पर्धा कभीकभी परस्पर विद्वेष तक पहुंच जाती है, इसलिए कांग्रेस भाजपा के बनाए हर कानून का विरोध करे, यह समझ में आता है। लेकिन यह विरोध कुतर्क करते हुए मुसलमानों को उकसाने और भारत की मौजूदा सरकार को दुनिया में बदनाम करने में परिवर्तित हो जाए तो इससे बड़ी विडंबना क्या होगी। कांग्रेस के नेता जिस सेक्यूलरिज्म के आधार पर नागरिकता कानून में किए गए संशोधन का विरोध कर रहे हैं, वह मूल संविधान में नहीं था।

उसे इंदिरा गांधी ने आपात स्थिति का लाभ उठाकर संविधान में जोड़ा था। उसकी कभी किसी ने कोई परिभाषा नहीं की। इस यूरोपीय विचार का मूल अर्थ यह है कि देश के लोगों का धार्मिक जीवन चर्च के अधीन है और धर्मेतर भौतिक जीवन राज्य के। क्या इस परिभाषा की भारत में कोई संगति है, जहां जीवन को इस तरह विभाजित करके नहीं देखा जाता। इतना ही नहीं भारतीय सभ्यता राज्य केंद्रित नहीं समाज केंद्रित रही है। इसलिए भारतीय सभ्यता की दृष्टि से भी सेक्यूलरिज्म स्वीकार नहीं हो सकता। सब आस्थाओं के प्रति समभाव और सहिष्णुता भारत की सनातन दृष्टि और सनातन धर्म की देन है। वह यूरोप में न पहले कभी थी, न आज है। वह ईसाई या इस्लाम मजहब की विशेषता नहीं है, हिन्दू धर्म की ही विशेषता है। अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास और सभ्यता के प्रति जो हीन भावना पैदा की थी, उसी आत्महीनता में से नेहरूवाद का जन्म हुआ है।

इस नेहरूवाद के आधार पर आज के कांग्रेसी नेता भारत को मुस्लिमवाद का बंधक बना देना चाहते हैं। विपक्ष ने नागरिक संशोधन विधेयक के बारे में जो भी शंकाएं रखीं, उनका पूरी स्पष्टता और विस्तार से तथा धैर्य के साथ गृहमंत्री अमित शाह ने संसद के दोनों सदनों में उत्तर दिया। ऐसा संसद में विरले ही देखा गया है। इसके बाद भी इस कानून और उसके पीछे की सरकार की दृष्टि के बारे में गलतफहमी फैलाई गई। इसका कारण समझने की कोशिश करनी चाहिए। विपक्ष के अन्य दल भले मुसलमानों को भड़काकर अपना वोट बैंक बनाए रखने के लोभ से इस संशोधन का विरोध कर रहे हों, कांग्रेस का विरोध मात्र इतना नहीं है।

कांग्रेस का शिखर नेतृत्व अपनी राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण ही भाजपा से नफरत नहीं करता, उसकी मुख्य आपत्ति भारत और उसकी सभ्यता का मूल स्रोत सनातन धर्म को समझने पर है। इसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति उनके हिन्दू विरोध में दिखाई देती है। अपने इसी दुराग्रह के कारण वे इस कानून को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिन्दुओं, बौद्धों, सिखों, जैनों, पारसियों और इसाइयों के होते रहे उत्पीड़न को ध्यान में रखकर भारत आने पर उन्हें नागरिकता देने के लिए बनाए गए कानून के रूप में नहीं देख पाए। यह कानून उन्हें अपनी मतांधता के कारण भारत के मुसलमानों का निषेध दिखाई दे रहा है।

कांग्रेस का शिखर नेतृत्व अपनी राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण ही भाजपा से नफरत नहीं करता, उसकी मुख्य आपत्ति भारत और उसकी सभ्यता का मूल स्रोत सनातन धर्म को समझने पर है।

इस कानून ने असम तथा पूर्वोत्तर राज्यों में कुछ उद्वेलन पैदा किया है। वहां के लोगों को डर है कि शरणार्थियों के उनके यहां बसने से उनका जनभूगोल बदल रहा है। उनकी आशंकाओं को दूर करने में विपक्ष समेत सभी को आगे आना चाहिए था। क्योंकि यह कानून उनकी भी रक्षा करता है। इसके बजाय राहुल गांधी ने आग में घी डालते हुए कहा है कि यह कानून बनाकर भाजपा सरकार पूर्वोत्तर के कबीलाई समाज को अपनी जड़ों से उखाड़ देना चाहती है। यह भारतीय समाज की सहनशीलता ही है कि इस तरह के प्रलाप और समाज को तोड़ने वाली भूमिका के बावजूद ऐसे सभी नेताओं को बर्दाश्त किया जा रहा है। आशा की जानी चाहिए कि विपक्ष का यह दुष्प्रचार उसका अरण्य रोदन ही साबित होगा।

 

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