पिछले दिनों तीन बातें हुई हैं, लेकिन ज्यादातर ध्यान सिर्फ चुनाव के परिणाम पर दिया गया है। इसे अस्वाभाविक नहीं कहेंगे, क्योंकि जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए हैं, वे भविष्य के संकेतक हैं। एक देश में लोकतंत्र के लिए सबसे महत्वपूर्ण समय चुनाव का ही होता है। उसमें कुछ लोग सीखते हैं। मतदाता फैसला सुनाता है। कुछ लोग उसका अध्ययन करते हैं। चुनाव परिणाम का पूर्वानुमान लगाते हैं। भारत में 1980 के चुनाव से यह राजनीति विज्ञान की एक नई शाखा बनी। चुनाव अध्ययन धीरे-धीरे एक उद्योग बन गया। उसका विस्तार भी हो रहा है। इस बार भी अनेक पूर्वानुमान लगाए गए। हर कोई यह दावा कर रहा था कि उसका अनुमान ही वास्तव में चुनाव परिणाम में सटीक बैठेगा।
पिछले कई चुनावों से ज्यादातर अनुमान गलत साबित हो रहे हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। किस एजेंसी ने यह अनुमान लगाया कि भाजपा कांग्रेस को बेदखल करने जा रही है। उन राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी, जैसे राजस्थान और छत्तीसगढ़। 2018 के चुनाव परिणाम से तो उसे मध्यप्रदेश में भी सरकार बनाने का अवसर मिला। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने मतदान के बाद एक बयान दिया कि इस बार हमारे विधायक टूटेंगे नहीं। यहां तक तो ठीक था। वे अपने विधायकों को निष्ठावान समझते हैं और भरोसा करते हैं कि वे निष्ठावान बने रहेंगे। लेकिन उसके बाद जो बात उन्होंने कही, वह उन्हें शोभा नहीं देती। यह बात अलग है कि वे अपनी बदजुबानी के लिए कुख्यात हैं। उन्होंने कहा कि विधायक इसलिए नहीं टूटेंगे क्योंकि कांग्रेस में अब कोई ‘ट्रेटर’ नहीं है।
उनका इशारा किसकी ओर था, यह बताने की जरूरत नहीं है, सभी जानते हैं। उनके बयान का उल्लेख इसलिए यहां जरूरी हो गया है क्योंकि दिग्विजय सिंह समझते थे कि कांग्रेस भाजपा के आस-पास रहेगी और सरकार भी बना सकती है। उन्हें कहां पता था कि भाजपा कांग्रेस को इतना पीछे छोड़ देगी कि वह अपना घाव पांच साल सहलाती रहेगी। चुनाव में पराजय चोट होती है और भारी पराजय गहरा घाव होता है। यही मध्यप्रदेश कांग्रेस के साथ हुआ है। इसी तरह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी हुआ। जो अनुमान में माहिर हैं वे भी इस समय हैरत में हैं। बहुत लोग हैं जो छिपा नहीं रहे हैं और बहुत है जो स्पष्टीकरण दे रहे हैं। उन्हें यहां बताने की जरूरत नहीं है। मीडिया में वह सब आ चुका है।
पूरी मीडिया इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का परिणाम बता रही है। ऐसा है भी। तब यह जानने की जरूरत है कि विपक्ष के दावे में बड़बोलापन कितना था और क्यों था? यह भी जानने लायक है कि जनता से विपक्ष कितना कटा हुआ है। यहां विपक्ष से आशय कांग्रेस से है। इस चुनाव को राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी ने 2024 का दरवाजा माना था। चुनाव परिणाम ने दरवाजे को दिवाल बना दिया है। दरवाजा बंद हो जाए तो वह खोला जा सकता है। लेकिन दरवाजा जब दिवाल बन जाए तो रास्ता रूक जाता है। इस चुनाव परिणाम ने आइएनडीए गठबंधन का नेतृत्व करने के सवाल को फिर से उठा दिया है। कर्नाटक की जीत से कांग्रेस को उम्मीद थी कि इन चुनाव परिणामों से वह अपने-आप आइएनडीए का नेतृत्व करने की पात्रता हासिल कर लेगा। वह उम्मीद खत्म सी हो गई है।
इसे दो उदाहरणों से जाना जा सकता है। पहला तो जदयू की प्रतिक्रिया है। जिसका सीधा हमला कांग्रेस पर है। जदयू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कांग्रेस ने घर बैठा दिया था। वे आइएनडीए के मंच से गायब कर दिए गए थे। जयदू की प्रतिक्रिया स्पष्ट है। वह यह कि यह पात्रता नीतीश कुमार में ही है। वे ही आइएनडीए का नेतृत्व कर सकते हैं। लेकिन चुनाव परिणाम से पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष मल्किार्जुन खरगे ने आइएनडीए की बैठक बुला ली। ऐसा लगता है कि संसद के इस अधिवेशन में विपक्षी तालमेल पर बातचीत के बहाने 2024 की नीति-रणनीति बनाने पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। आइएनडीए एक मंच है। उसे कांग्रेस ने अपनी ढाल बनाया है। जब उसे जरूरत पड़ती है तो वह उसे इस्तेमाल करती है और जब जरूरत नहीं लगती तब उसे गहरे गड्डे में दबा दिया जाता है।
यह बात पहले ध्यान नहीं खींचती थी। लेकिन अब इसे लोग जानने लगे हैं। इसलिए कांग्रेस को इस चुनाव से दोहरा आघात लगा है। जो लोग कांग्रेस को विपक्ष के विकल्प में नेतृत्व सौंपना चाहते थे वे आज विवश हैं। यह उनकी विवशता बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे उनकी विवशता बढ़ेगी, वैसे-वैसे यह बात उजागर होती जाएगी कि राज्य स्तरीय दल अपने गढ़ को बचाने के लिए कांग्रेस और आइएनडीए को लोकसभा के आम चुनाव से पहले ही तिलांजलि दे सकते हैं। कोई आश्चर्य नहीं होगा जब एक दिन खबर छपे कि आइएनडीए का विघटन हो गया है। इन राज्यों के चुनाव परिणाम के बारे में कांग्रेस को भारी गलतफहमी थी। इसीलिए आइएनडीए को मुर्च्छित कर सुला दिया गया था।
दूसरी बात वह है जो चुनावों के शोर में दब सी गई थी। इसका संबंध आइएनडीए से भी है। एक दिन दिल्ली के अखबारों में भी बड़ा विज्ञापन छपा कि पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की आदमकद प्रतिमा चैन्नई में लगाई गई है। उसका एक समारोह हुआ जिसमें विश्वनाथ प्रताप सिंह का परिवार तो शामिल ही था, लेकिन उस अवसर पर उत्तर प्रदेष के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी उपस्थित थे। अखिलेश यादव की उपस्थिति ही इस बात का संकेत देती है कि आइएनडीए का विघटन हो सकता है। इसका एक कारण कांग्रेस की सपा से दगाबाजी है। गठबंधन का भरोसा देकर भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने सपा से मुंह मोड़ लिया। इसकी प्रतिक्रिया में अखिलेश यादव ने उन दिनों जो वचन बोले वह गहराते मतभेदों के मात्र सबूत नहीं हैं, बल्कि इस बात के प्रमाण हैं कि राज्य स्तरीय दलों को कांग्रेस पर भरोसा नहीं है।
विश्वनाथ प्रताप सिंह पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने पिछड़ों की राजनीति का महत्व समझा। पिछड़े समाज की विभिन्न जातियों को आरक्षण दिलाया। राजनीति में उनके संख्याबल को परिवर्तन का माध्यम बनाया। इसलिए ही उन्हें सामाजिक न्याय का नेता माना जाता था। उनमें गरीबों के प्रति हमदर्दी थी। उस विश्वनाथ प्रताप सिंह की मूर्ति का अनावरण हो और चैन्नई में हो फिर भी कांग्रेस को मुख्यमंत्री स्टालिन न बुलाए यह आश्चर्य का विषय नहीं है। इसे समझना चाहिए कि ऐसा स्टालिन ने क्यों किया। इसका सीधा और सरल अर्थ है कि राहुल गांधी की कांग्रेस से स्टालिन का वह लगाव नहीं है जो विश्वनाथ प्रताप सिंह से वे अनुभव करते हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह का उदय ही कांग्रेस के अस्त का कारण बना था। क्या अब दक्षिण भारत पर अपनी उम्मीदें टिकाए राहुल गांधी को स्टालिन के कारण अपना राजनीतिक अंत दिख रहा है?
तीसरी बात का संबंध राजनीति की धमाचौकड़ी में संस्कृति और साहित्य से है। वामपंथी इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक लेख लिखा है जो दिल्ली के एक हिन्दी अखबार में छपा है। उसका शीर्षक है-‘पॉप कल्चर के रूप में हिन्दुत्व।’ यह लेख अपने अफसोस को एक तर्क पर खड़ा करने के लिए लिखा गया है। उस तर्क पर आने से पहले गुहा ने कुछ ऐसी बातें बताई हैं जो बहुत महत्व की हैं। उन्होंने यह बताया है कि ‘हाल के वर्षों में हिन्दुत्व पर अनेक किताबें आई हैं और पत्रिकाओं में भी बहुत कुछ छपा है। इन सबमें हिन्दुत्व की व्याख्या करने के साथ-साथ भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उत्थान का औचित्य ठहराया गया है। कुछ ने सांगठनिक विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए बताया है कि जमीनी स्तर पर सोशल नेटवर्क स्थापित कर किस तरह इन्होंने पार्टी के लिए वोट बैंक तैयार किया है। कुछ दूसरे लोगों ने विचारधारा की भूमिका, हिन्दुत्व के प्रति गर्व करने की सोच और अल्पसंख्यकों के विनाश पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। कुछ दूसरे लोगों ने जीवनी लेखन का रास्ता अपनाया और हिन्दुत्व के उत्थान में गोलवलकर, सावरकर, वाजपेयी, आडवाणी और मोदी की भूमिकाओं पर किताबें लिखी। हिन्दुत्व पर अब इतनी किताबें आ चुकी हैं कि एक लाइब्ररी भरी जा सकती है।’…‘लेकिन अब भी इसमें नवाचार और दक्षता की गुंजाइश है। पिछले महीने आई एक किताब में ये दोनों गुण हैं। इस किताब का नाम है-‘एच पॉप: द सीक्रेटिव वर्ल्ड ऑफ हिन्दुत्व पॉप स्टार्स।’ इसके लेखक मुंबई के एक युवा कुणाल पुरोहित हैं। हालांकि मैं इनसे कभी नहीं मिला, न ही इनके बारे में सुना, इसके बावजूद इस पुस्तक की एक साफ्ट काफी पिछले दिनों मेरे इनबाक्स में आई। जितना मैं जानता हूं, एच पॉप पहली किताब है, जिसमें दक्षिणपंथी हिन्दुओं द्वारा पॉपुलर कल्चर का इस्तेमाल करने और गाली देने की गहन पड़ताल की गई है।’ यह तीसरी बात ही अपने आप बताती है कि चाहे सामाजिक विमर्श हो, या साहित्यिक हो, या सांस्कृतिक हो, या आर्थिक हो, या राजनीतिक हो, सब पर मोदी युगीन विचार समाज के मन-मश्तिष्क पर छाया हुआ है। वह राष्ट्रीयता का है। नए भारत का है। दुनिया में भारत के संदेश को पहुंचाने की ललक का भी है। इन तीनों बातों का संबंध चुनाव परिणाम से भी है।