पच्चीस जून की रात रामलीला मैदान में जेपी का भाषण खत्म हुआ तो हम उन्हें गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में उनके कमरे में छोड़कर अपने घर गांधी निधि की राजघाट कॉलोनी में आ गए। रात में ही पता चला कि जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया है। छब्बीस जून की सुबह इन्दिरा गांधी को आकाशवाणी से इमरजेंसी लगाते सुना। जेपी की गिरफ्तारी और इमरजेंसी का एक कारण यह बताया गया कि उन्होंने रामलीला मैदान से सेना और पुलिस को बगावत करने के लिए भड़काया।
जेपी का पूरा भाषण मैंने खुद हूबहू नोट किया था। क्या कहा था उन्होंने- ‘जब ये लोग देशभक्ति के नाम पर, लोकतंत्र के नाम पर, कानून के नाम पर जो भी हुक्म दें और उसका आप पालन करें तो यह पालन है या उसका अपमान है? यह सोचने के लिए मैं बराबर चेतावनी देता रहा हूं। सेना को यह सोचना है कि जो आदेश मिलते हैं उनका पालन करना चाहिए कि नहीं? देश की सेना के लिए आर्मी एक्ट में लिखा हुआ है कि भारत के लोकतंत्र की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। लोकतंत्र की, संविधान की रक्षा करने का। हमारा कांस्टीट्यूशन डेमोक्रेटिक है और इसलिए कह रहा हूं कि लोकतंत्र की रक्षा उसका कर्तव्य है… और यह प्रधानमंत्री उसको आदेश दे तो उसके पीछे कौन-सी ताकत होगी? जिस प्रधानमंत्री के हाथ-पैर इतने बंधे हों, जो पार्लियामेंट में बैठ तो सकती हों, पर वोट नहीं दे सकती हों उनके आदेश?’
डेढ़ घंटे के उस भाषण में सेना को ‘भड़काने’ की यही बात थी और यह भी उन्होंने कोई पहली बार नहीं कही थी। वे तीन-चार महीने से कह रहे थे कि सेना और पुलिस को गैरकानूनी आदेश नहीं मानने चाहिए। अपने अखबार ‘एवरीमेंस’ में दिये एक इंटरव्यू में उन्होंने अप्रैल, 75 में ही कहा था- ‘पुलिस को यह बताना, मैं अपना कर्तव्य समझता हूं कि मैं उन्हें बगावत करने को नहीं कह रहा हूं। उन्हें अपना कर्तव्य करना चाहिए। लेकिन उन्हें ऐसे आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए जो गैरकानूनी हों और जिन्हें उनकी आत्मा न मानती हो।’
(जैसा जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी ने अपनी पुस्तक
‘घंटी तो बजनी है’ में लिखा है।)