
जिस इंदिरा गांधी ने सिर्फ अपने पद के लिए इमरजेंसी लगाकर देश पर तानाशाही थोप दी, क्या उन्हें लोकतांत्रिक भी कहा जाना चाहिए? यह प्रश्न आज स्पष्ट उत्तर चाहता है। विद्वान लेखक इस संबंध में बहुत घालमेल करते रहे हैं। वे इंदिरा गांधी को इमरजेंसी की अवधि (25 जून, 1975 से 23 मार्च, 1977) का तानाशाह तो मानते हैं, सच तो यह है कि उन्हें यह मानना पड़ता है। लेकिन वे अपने लेखन में इसे अपवाद ठहराने के लिए तर्क का एक ऐसा जंगल बनाते हैं, जिसमें भटकने-भटकाने का सिलसिला अब तक खत्म नहीं हुआ। क्यों? इसे समझने और समझाने का यही सही समय है। इंदिरा गांधी के राजनीतिक उदय के दौर का विहंगावलोकन कर उनके व्यक्तित्व को जानना संभव है। व्यक्तित्व और पर्सनालिटी में बड़ा अंतर है। ग्रीक नाटकों में जिसे परसोना कहा जाता था, वह मुखौटा होता था। उसी परसोना से अंग्रेजी का पर्सनालिटी शब्द बना है। इंदिरा गांधी का राजनीतिक उदय 1956 में हुआ। वह उनकी राजनीतिक पर्सनालिटी की शुरुआत थी।
उनका राजनीतिक उदय कैसे हुआ और किन परिस्थितियों में हुआ? यह विश्लेषण का विषय है। ऐसे विषय में जो विश्लेषण करता है, वह अपनी दृष्टि से करता है। वह घटनाओं को उसी दृष्टिकोण से प्रस्तुत भी करता है। इसलिए यहां विश्लेषण से ज्यादा महत्व तथ्य का है। वह जानना चाहिए। जैसे ही इंदिरा गांधी 1956 में कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य बना दी गई, उससे दो राजनीतिक घटना हुई। एक, वे कांग्रेस की एक राजनीतिक पर्सनालिटी हो गई। यह विधिवत हुआ या नहीं, यह खास मायने नहीं रखता। इस घटना से वे कांग्रेस पार्टी की एक महत्वपूर्ण नेता हो गई। जो उनके राजनीतिक उदय में बड़ा सहायक हुआ।
आज की कांग्रेस सोनिया कांग्रेस है। एक परिवार की कांग्रेस। तब की कांग्रेस में देश भर के ज्यादातर परिवार थे। उसका संगठन देशव्यापी था। उसकी जड़ें गांव-गांव में थी। लोकतांत्रिक ढंग से वह कांग्रेस चलती थी। चुनाव होते थे। मनोनयन अपवाद स्वरूप होता था। उस समय कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्यों का भी निर्वाचन होता था। इंदिरा गांधी के समय में आखिरी बार निर्वाचन 1972 में हुआ। वह शिमला कांग्रेस थी। जिसमें उनकी मर्जी के खिलाफ चुनाव लड़कर जो जीते, वे चंद्रशेखर थे। पी.वी. नरसिम्हा राव ने भी अपने कार्यकाल में एक बार चुनाव करवाया था। वह समय है, 1992 का। निर्वाचित राष्ट्रीय कार्यसमिति कांग्रेस की नीति-नियंता का कार्य करती थी। जो बहुत बाद में सिमट कर ‘आलाकमान’ हो गई।
कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य होते ही दूसरी घटना घटित हुई। इंदिरा गांधी कांग्रेस के ‘आलाकमान’ की टोली में स्वत: शामिल हो गई। कांग्रेस के इतिहास में कम ऐसे उदाहरण हैं कि कार्यसमिति का सदस्य तीन साल में ही अध्यक्ष बना दिया गया हो। इसे अगर राजनीतिक अपवाद कहें तो उदाहरण में इंदिरा गांधी का नाम सबसे पहले आता है। नागपुर में कांग्रेस अधिवेशन था। वह 1959 का वर्ष था। कांग्रेस में अटकलें लग रही थी कि यू.एन. ढेबर की जगह कौन आएगा! सारे अनुमान एक नाम पर टिक जाते थे। वह नाम एस. निजलिंगप्पा का था। इंदिरा गांधी का नाम चर्चा में भी नहीं था। इस बारे में चर्चित और सुनिश्चित कहानियां हैं। उन्हें अनेक संस्मरणों में पढ़ा जा सकता है। एक संस्मरण जो मशहूर है, वह पत्रकार दुर्गादास का है। पुस्तक है, ‘फ्राम कर्जन टू नेहरू’।
अध्यक्ष बनते ही इंदिरा गांधी का पहला कार्य क्या था? इसका उत्तर है, संविधान का दुरुपयोग। संविधान की धारा-356 के सहारे उन्होंने राष्ट्रपति शासन लगवाया। भारतीय राजनीति में सड़ांध की वह शुरुआत थी। उसके पहले शिकार कम्युनिस्ट हुए। इंदिरा गांधी की सत्तावादी राजनीति का वह पहला नमूना है। क्या कम्युनिस्ट इसे याद रख पाए हैं? इंदिरा गांधी 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। उनके पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। इंदिरा गांधी की जिद्द से जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने केरल में राष्ट्रपति शासन लगाया था। दुनिया में संसदीय चुनाव के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पार कर जो पहली कम्युनिस्ट सरकार केरल में बनी थी, उसे इंदिरा गांधी ने बर्खास्त करवाया। उनके दिमाग में तानाशाही की जो ग्रंथि थी, उसकी पहली झलक देश ने तब देखी। हर लोकतांत्रिक मर्मांहत हुआ। बड़ी बहस छिड़ी।
वह बहस संविधान के दुरुपयोग पर थी। केरल की सरकार संविधान सम्मत थी। उसे एक तानाशाही प्रवृत्ति से हटाया गया। 5 अप्रैल, 1957 को ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में वह सरकार बनी थी। उस प्रयोग पर पूरी दुनिया चकित थी। उस पर चर्चा हो रही थी। इंदिरा गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही एक प्रस्ताव पारित किया गया कि ‘केरल सरकार अब किसी भी रूप में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती।’ यह प्रस्ताव 29 जून, 1959 को पारित किया गया। बेटी कांग्रेस अध्यक्ष थी और पिता प्रधानमंत्री थे। कांग्रेसी कहते रहे हैं कि बेटी की जिद्द पर पंडित नेहरू ने राष्ट्रपति शासन लगवाया। जो भी हो, दूसरा किस्सा भी उतना ही चर्चित है। एक पुस्तक में उसका वर्णन है।
इसे संयोग न माने, सच्चाई जानें। पुस्तक है, ‘फिरोज: द फॉरगॉटन गांधी’। यहां याद करना चाहिए कि यह पुस्तक इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी पर है। इसके लेखक स्वीडिश पत्रकार बर्टिल फाक हैं। घटना तीनमूर्ति भवन की है। समय दोपहर के भोजन की मेज का है। फिरोज गांधी साउथ एवेन्यू में अलग रहते थे। वे थे, कांग्रेस के रायबरेली क्षेत्र से लोकसभा सदस्य, लेकिन उस समय फिरोज गांधी विपक्ष के महानायक थे। क्यों थे और कैसे थे, यह कभी और। इस समय यह जानना चाहिए कि उन्हें जैसे ही यह पता चला कि केरल की सरकार बर्खास्त इसलिए की जा रही है, क्योंकि जिद्द इंदिरा गांधी की है तो वे तीनमूर्ति पहुंचे। दोपहर के भोजन पर इंदिरा गांधी को खूब खरी-खोटी सुनाई। फिरोज गांधी इतने भड़के कि इंदिरा गांधी को फासिस्ट बताया और बात खत्म कर दी। आखिरकार 21 जुलाई, 1959 को जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने केरल में राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला कर ही लिया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान की धारा-356 का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया। यानी निर्वाचित राज्य सरकारों को मनमाने तरीके से राष्ट्रपति शासन लगाकर अपनी कैद में रखा। इसकी शुरुआत उनके कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुई।
ताशकंद में लालबहादुर शास्त्री के निधन से प्रधानमंत्री पद रिक्त हुआ। जिस पर इंदिरा गांधी आईं। सिर्फ 18 महीने पहले ही जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ था। लालबहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन एक रहस्यमय राजनीतिक घटना आज भी बनी हुई है। तब शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में इंदिरा गांधी सूचना प्रसारण मंत्री थीं। कांग्रेस की अपनी खींचतान में बाजी उनके हाथ लगी। अपने राजनीतिक उदय के ठीक 10वें साल में वे प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गई। यह वह समय है, जब इंदिरा गांधी के सोच-विचार और कार्य करने के तरीके सर्वज्ञात हैं। उस समय की देश-समाज और राजनीतिक घटनाओं पर अनेक पुस्तकें हैं।
उनमें स्वतंत्र भारत के इतिहास की एक कड़वी सच्चाई झांकती है। वह क्या है? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1967-1977 के दशक में लगातार अपने मुखौटे बदले। उनके असली चेहरे से देश 25 जून, 1975 को जब परिचित हुआ तो पहले उसे सदमा लगा, फिर जो भ्रम में थे, वे आश्चर्यचकित रहे। इंदिरा गांधी ने समय-समय पर मुखौटे बदल कर कांग्रेस में भ्रम फैलाया। कांग्रेस के एक उत्साही समूह ने देश को भी अर्से तक भ्रम में रखा। उनकी इस चाल से परंपरागत कांग्रेसी झुंझला उठे। कांग्रेस टूटी। इंदिरा कांग्रेस बनी। उसी मोड़ पर राष्ट्रपति का चुनाव अचानक आया। वराह वेंकट गिरि और नीलम संजीव रेड्डी प्रतिद्वंदी थे। समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने इंदिरा कांग्रेस को सहारा दिया। भ्रम का वह काल चल ही रहा था। राष्ट्रपति बने, वराह वेंकट गिरि। उस निर्वाचन ने इतिहास की धारा बदल दी। इंदिरा गांधी ने नया मुखौटा लगाया, गरीबी हटाओ।
वह लोकसभा का पहला अकेला चुनाव था। सबसे खर्चीला चुनाव था। सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण उस 1971 के लोकसभा चुनाव के खर्चीलेपन से चिंतित हो उठे। चुनाव सुधार का बिगुल फूंका। वे सही थे। लोकतंत्र पर खतरा उसी चुनाव से मंडराने लगा। उससे ही भारतीय राजनीति में सडांध के टापू बनने लगे। जिसके खिलाफ पहली बुलंद आवाज का आगाज बिहार छात्र आंदोलन से हुआ। जेपी उससे जुड़े। कुछ इंदिरा परस्त लेखक उस आंदोलन को इमरजेंसी का कारण बताते हुए अपनी बुद्धि और तर्क का नाजायज इस्तेमाल करते चले आ रहे हैं। ऐसा करते हुए वे इंदिरा गांधी के तानाशाही चेहरे पर एक नया मुखौटा लगाने का बौद्धिक जुगाड़ करते हैं कि वे लोकतांत्रिक थीं।
राजनीतिक अभिनय से वास्तविकता नहीं बदलती। इंदिरा गांधी अगर लोकतांत्रिक होतीं तो हाईकोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस संसदीय दल की बैठक बुलातीं। उसमें कांग्रेस के समक्ष उपस्थित राजनीतिक संकट पर विचार होता। उनके शुभचिंतक और लोकतंत्र में निष्ठा रखने वाले पढ़े-लिखे नागरिक भी यही चाहते थे कि जब तक सुप्रीम कोर्ट उन्हें राहत नहीं देता, तब तक कांग्रेस का कोई दूसरा नेता प्रधानमंत्री बने। यही सोचकर विपक्ष ने भी इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की थी। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की राह चुनी। इमरजेंसी में उन्होंने पहला काम क्या किया? संसद का अधिवेशन बुलाकर संविधान में इस तरह संशोधन करवाया, जिससे लोकसभा की उनकी सदस्यता बहाल हो गई। यह भी हुआ कि किसी हाईकोर्ट को प्रधानमंत्री के विरोध में दायर चुनाव याचिका को सुनने का अधिकार नहीं रहा। हाईकोर्ट का अधिकार छीनकर संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया।
इमरजेंसी में संविधान के दुरुपयोग की वह पहली घटना है। इसके बारे में चर्चा कम होती है। जो बहुत चर्चित है, वह संविधान का 42वां संशोधन है। इस संशोधन की भाषा रचना में इंदिरा गांधी की प्रेतबाधा को स्पष्ट देखा जा सकता है। उसे पढ़ा जा सकता है। उसे पहचाना जा सकता है। वह है, कोर्ट। ऐसा हर कोई मानेगा कि इस संशोधन में बार-बार कोर्ट का उल्लेख आया है। क्या इसलिए आया कि वह जरूरी था? नहीं, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तानाशाही मानसिकता का वह शब्द प्रतिनिधित्व कर रहा था। संविधान संशोधन के ड्राफ्ट में बार-बार कोर्ट का उल्लेख बताता है कि जजों को डराया जा रहा है। यह भी सच है कि बड़े नामी जज इमरजेंसी में पीपल के पत्ते की तरह कांपते नजर आ रहे थे। एक तानाशाह से वे डरें नहीं तो क्या करें! लोकतांत्रिक किसे कहेंगे? जो अपने विरुद्ध प्रश्नों को आमंत्रित करता है। इंदिरा गांधी तो प्रश्नों से भयभीत हो जाती थीं।