जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य को ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिलने के बाद एक वर्ग काफी व्यथित है। उनकी ओर से बार-बार पूछा जा रहा है कि उन्हें ये सम्मान क्यों दिया गया है? ये सवाल पूछने वाले वही लोग हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति, परंपराओं एवं इतिहास से घृणा है। ये घृणा उन्हें अविद्या की तरफ ले जाती है और ये अविद्या उन्हें हर गंभीर कार्य करने वाले का विरोध करने के लिए उकसाती है। ऐसा नहीं है कि वे अनभिज्ञ हैं।
ज्ञानपीठ पुरस्कार भारत का सबसे पुराना और सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार है। यह पुरस्कार किसी लेखक को उसके साहित्य के क्षेत्र में दिए गए उत्कृष्ट योगदान के लिए हर साल प्रदान किया जाता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसे भारतीय नागरिकों को ही दिया जाता है। यह पुरस्कार अंग्रेजी के साथ ही आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों को दिया जाता है। इसका उद्देश्य भारतीय साहित्य में उत्कृष्ट योगदान को मान्यता देना है। चित्रकूट स्थित तुलसी पीठ के पीठाधीश्वर और रामानंदी संप्रदाय के जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया। साल 1944 में स्थापित ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार प्रतिवर्ष साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले लेखकों को प्रदान किया जाता है।
भारतीय ज्ञानपीठ न्यास की ओर से पहली बार साल 1965 में ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए मलयालम कवि जी शंकर कुरुप का नाम चुना गया था। उनको कविता संग्रह ‘ओडक्कुझल’ के लिए इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया था। साहित्य का सर्वोच्च सम्मान माने जाने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार में 11 लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्ति पत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। भारतीय मान्यताओं में विद्या और वाणी की देवी माता सरस्वती को ही वाग्देवी भी कहा जाता है। ज्ञान, बुद्धि, कला और संगीत की देवी के रूप में ज्ञानपीठ पुरस्कार के साथ वाग्देवी की प्रतिमा दी जाती है। उद्योगपति साहू शांति प्रसाद जैन और उनकी पत्नी रमा जैन ने साल 1944 में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की थी। यह एक प्रतिष्ठित साहित्यिक और अनुसंधान संगठन है। साहित्य और संस्कृति के लिए काम करने वाला भारतीय ज्ञानपीठ कई दशकों से प्रकाशन, पुरस्कार, फेलोशिप और अनुसंधान को सक्रिय रूप से बढ़ावा देता आ रहा है।
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार की स्थापना साहू शांति प्रसाद जैन ने अपने 50वें जन्मदिन पर साल 1961 में की थी। इसके लिए एक न्यास बनाया गया था। 2023 के ज्ञानपीठ पुरस्कार हेतु संस्कृत के लिए जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य और उर्दू के लिए जाने-माने गीतकार गुलजार को चुना गया था। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में संस्कृत के प्रकांड विद्वान जगद्गुरु रामभद्राचार्य को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 16 मई को 58वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया। हालांकि स्वास्थ्य कारणों से गीतकार गुलजार कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पाए। भारतीय ज्ञानपीठ के महाप्रबंधक आरएन तिवारी की ओर से इसकी जानकारी दी गई। जानी-मानी कथाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रतिभा राय की अध्यक्षता में हुई चयन समिति की बैठक में सर्वसम्मति से जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य और गुलजार को सम्मान देने का फैसला हुआ था। सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, अमृता प्रीतम, महाश्वेता देवी, निर्मल वर्मा, केदारनाथ सिंह और कृष्णा सोबती जैसे बड़े नामों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। अब इस सूची में स्वामी रामभद्राचार्य का नाम भी जुड़ गया है।
रामकथा के माध्यम से कई दशकों से समाज को ऐतिहासिक व आध्यात्मिक ज्ञान से लाभान्वित कर रहे स्वामी रामभद्राचार्य ने प्रज्ञाचक्षु होने के बावजूद दिव्यांग छात्र-छात्राओं के लिए एक पूरी की पूरी यूनिवर्सिटी खोल दी। दो महीने की उम्र में नेत्र चले गए, लेकिन दृष्टि उन्होंने श्रम व साधना से अर्जित की। 1991 में उन्होंने पीएचडी की और 1998 में डी लिट। पोस्ट डॉक्टरेट की डिग्री उन्हें भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन के हाथों मिली थी, जो दलित समाज से थे। हिन्दू एकता को खंडित करने के लिए द्रविड़ बनाम आर्य का कुचक्र रचने वालों को निश्चित तौर पर ये पसंद नहीं आएगा।
यही कारण है कि जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य को ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिलने के बाद एक वर्ग तिलमिला गया है। उनकी ओर से बार-बार पूछा जा रहा है कि उन्हें ये सम्मान क्यों दिया गया है? ये सवाल पूछने वाले वही लोग हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति, परंपराओं एवं इतिहास से घृणा है। ये घृणा उन्हें अविद्या की तरफ ले जाती है और ये अविद्या उन्हें हर गंभीर कार्य करने वाले का विरोध करने के लिए उकसाती है। ऐसा नहीं है कि वे अनभिज्ञ हैं। दरअसल, उन्होंने अनभिज्ञता के कुएं में रहना स्वयं ही चुना है। यही नहीं, आम लोगों को भी अपने भ्रमजाल में फंसाने के लिए यह अनभिज्ञ गिरोह इस तरह के तमाम कुचक्र रचता रहता है। इनमें से अधिकतर को यह तक पता नहीं है कि भारतीय साहित्य के बड़े नाम कौन से हैं, महत्वपूर्ण पुस्तकें कौन सी हैं अथवा भारतीय साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न कालों में किन-किन प्रकार की रचनाओं का प्रभुत्व रहा है।
इनकी सबसे बड़ी पीड़ा है कि भगवा वस्त्र धारण करने वाले एक नेत्रहीन साधु को ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ क्यों? सेक्युलरिज्म की बीन बजाने वाले इस बात से व्यथित हैं कि राष्ट्रपति के हाथों से हिन्दू धर्म का साधु कैसे सम्मानित हो सकता है? यह पीड़ा तब है, जबकि 22 भाषाओं के विद्वान स्वामी रामभद्राचार्य 240 से अधिक पुस्तकें और 50 से अधिक शोधपत्र लिख चुके हैं। स्वामी रामभद्राचार्य को मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार इस बात की उद्घोषणा है कि वक्त बदल चुका है। भारत-भूमि पर इस भूमि के धर्म एवं संस्कृति को आगे बढ़ाने वाले व्यक्ति का सम्मान किए जाने को किसी भी शब्द की दुहाई देकर रोका नहीं जा सकता है। वे तुलसीपीठ, चित्रकूट के अधिष्ठाता हैं और शिक्षा, दिव्यांगजन सेवा व धर्म के क्षेत्र में अनेक संस्थाओं के माध्यम से कार्य कर रहे हैं। रामभद्राचार्य के मार्गदर्शन में ऐसे अनेक प्रकल्प चल रहे हैं, जो नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं।
साहित्य के क्षेत्र में जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य का योगदान किसी भी आम लेखक से कहीं बहुत अधिक है। स्वामी रामभद्राचार्य अधिकतर संस्कृत में लिखते हैं। एक ऐसी भाषा जिसमें हमारे वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण और महाभारत लिखे गए। वह भाषा जिसे संरक्षण की आवश्यकता है। वह भाषा जिसमें रचित साहित्य कई पीढ़ियों की परवरिश के तौर-तरीकों को प्रभावित करते आए हैं। माता-पिता-गुरु के सम्मान से लेकर धर्म की रक्षा के लिए युद्ध तक की प्रेरणा हमें इन्हीं साहित्यों से मिली है। स्वामी रामभद्राचार्य इसी संस्कृत भाषा के मौजूदा युग के विरले विद्वानों में से एक हैं।
वे देश की राष्ट्रभाषा हिंदी में भी लिखते हैं, जो देश के अधिकतर लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है। वे देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्यों उत्तर प्रदेश-बिहार की स्थानीय भाषाओं अवधी और भोजपुरी में भी साहित्य रचते आए हैं। यानी, स्वामी रामभद्राचार्य के कार्य शोधार्थियों के भी काम आते हैं और आम लोगों को भी प्रभावित करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास पर उनका अध्ययन इतना व्यापक है कि उन्हें रामचरितमानस पर अघोषित अंतिम प्राधिकरण माना जाता है। जिज्ञासा, समीक्षण, श्रद्धा एवं विश्वास की सनातन नीति पर चलते हुए उन्होंने रामचरितमानस का प्रामाणिक संस्करण प्रस्तुत किया। रामचरितमानस ही वह काव्य है जिसने उत्तर भारत में रामकथा को पुन: हमारे जीवन में स्थापित किया।
रामभद्राचार्य जी की इतनी रचनाएं हैं कि उन पर बात करते-करते ही सुबह से शाम हो जाए। उन्हें पढ़ने, समझने और उनकी मीमांसा या उन पर टीका करने में कितने साल लग जाएंगे, बस इसकी कल्पना ही की जा सकती है। साहित्य, समाज और संस्कृति, तीनों क्षेत्र में उनका योगदान अभूतपूर्व है। स्वामी रामभद्राचार्य के कार्य सनातन पर हैं और सनातन हैं। उन्होंने विद्वता के शिखर को छूकर यह संदेश दिया है कि सफल न होने के पीछे कोई भी बहाना नहीं होता। श्रम एवं साधना से सब कुछ संभव है। जिस बच्चे को अपशकुन मानकर परिवार-समाज के शादी-विवाह व अन्य शुभ कार्यक्रमों में हिस्सा तक नहीं लेने दिया जाता था, वो शुभ-लाभ का चलता-फिरता प्रतीक बन गया। तभी अपनी शुरुआती रचनाओं के दौरान वे स्वयं को ईश्वर के समक्ष ‘अनाथं जडं मोहपाशेन बद्धं’ कहकर संबोधित करते हैं अर्थात – ‘जो अनाथ है, जड़ है, और मोह के बंधन में जकड़ा हुआ है।’
बचपन से लेकर अब तक लगभग 5000 बार जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य रामचरितमानस कथा का प्रवचन देश-विदेश में कर चुके हैं। आठ वर्षों के गहन शोध एवं इस अमर साहित्य के 27 संस्करणों के अध्ययन के बाद उन्होंने ‘तुलसी पीठ’ के माध्यम से अपना संस्करण पेश किया। हालांकि, पुस्तक से छेड़छाड़ के कारण उनके विरुद्ध विरोध प्रदर्शन भी हुए। लेकिन भारतीय इतिहास में शास्त्रार्थ की परंपरा रही है और शंकराचार्य भी जगद्गुरु तभी हुए, जब उन्होंने वाद-विवाद के माध्यम से देश भर के विद्वानों का हृदय जीता। अत:, महत्वपूर्ण ये है कि हमारे प्राचीन साहित्य विलुप्त न हों और उन पर श्रद्धाभाव से शोधकार्य होता रहे। इलाहाबाद हाईकोर्ट में श्रीराम जन्मभूमि मामले के अंतिम जजमेंट में उनकी गवाही और उनके द्वारा दिए गए साक्ष्यों का जिक्र हुआ। राम मंदिर को लेकर उन्होंने शास्त्रों से ऐसे-ऐसे साक्ष्य दिए कि जज भी दंग रह गए।
यही नहीं, 9000 पृष्ठ, 50000 श्लोक और 9 खंड। पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण ‘अष्टाध्यायी’ पर उन्होंने जो महाभाष्य लिखा है वैसा आज तक नहीं लिखा गया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका विमोचन किया था। ‘अष्टाध्यायी’ साधारण पुस्तक नहीं है, पतंजलि ने इसे ‘सर्ववेद-परिषद्-शास्त्र’ कहकर संबोधित किया है। फरवरी 2025 में चित्रकूट पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वामी रामभद्राचार्य की तीन पुस्तकों पाणिनि का ‘अष्टाध्यायी’ महाभाष्य, रामानंदाचार्य चरितम और राष्ट्रलीला ऑफ़ लार्ड श्री कृष्णा का विमोचन किया। प्रधानमंत्री मोदी ‘विकास भी, विरासत भी’ की नीति लेकर चलते हैं, ऐसे में उस ‘विरासत’ के मुख्य स्तंभ बनकर स्वामी रामभद्राचार्य के कार्य स्वत: ही स्थापित हो जाते हैं।
अष्टाध्यायी’ ईसा के जन्म से भी सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखी गई संस्कृत व्याकरण की पुस्तक है, जिसके आधार पर वैदिक काल के बाद के साहित्य रचे गए। यहां तक कि ग्रीक और लैटिन जैसी प्राचीन विदेशी भाषाओं में भी इस तरह की किसी पुस्तक का कोई उदाहरण नहीं मिलता। स्वामी रामभद्राचार्य को तो केवल एक इस कार्य के लिए ही ज्ञानपीठ जैसे कई पुरस्कार मिल जाने चाहिए थे। उन्होंने इसका कई गुना कार्य कर दिया। उनका एक और महत्वपूर्ण कार्य है ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और 11 उपनिषदों पर आधारित ‘श्रीराघवकृपाभाष्यम्’। अप्रैल 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस पुस्तक का विमोचन किया था। ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और गीता को मिलाकर ‘प्रस्थानत्रयी’ कहते हैं। पांच सौ वर्षों से इन पर कोई संस्कृत भाष्य नहीं लिखा गया था। यह कार्य स्वामी रामभद्राचार्य ने किया।
मानस मर्मज्ञ जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य महाराज को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने को बड़ी उपलब्धि करार देते हुए मध्य प्रदेश के उप मुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल ने कहा कि यह सम्मान भारतीय संस्कृति और परंपरा के गौरव का सम्मान है। उप मुख्यमंत्री शुक्ल ने कहा कि जगद्गुरु रामभद्राचार्य का संपूर्ण जीवन त्याग, तपस्या, विद्वता और करुणा का अनुपम संगम है। उन्होंने शारीरिक सीमाओं के बावजूद ज्ञान, संस्कृति और संस्कृत साहित्य के संवर्धन हेतु जो कार्य किया है, वह समूचे विश्व के लिए प्रेरणास्रोत है। उनका यह सम्मान वास्तव में उस सनातन चेतना का सम्मान है, जो भारत की आत्मा में प्रवाहित होती है। संस्कृत भाषा और दर्शन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जगद्गुरु ने जो अनथक साधना की है, वह एक युगद्रष्टा संत की पहचान है। ज्ञानपीठ जैसा सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान उनके तप और कर्म की स्वीकृति है। यह केवल एक संत का नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति और परंपरा का गौरव है।
महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने जगद्गुरु रामभद्राचार्य को 58वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करने के उपरांत अपने संबोधन में कहा कि साहित्य समाज को जोड़ता भी है और जगाता भी है। 19वीं सदी के सामाजिक जागरण से लेकर 20वीं सदी के हमारे स्वतंत्रता संग्राम तक, कवियों और रचनाकारों ने जन-जन को जोड़ने में महानायकों की भूमिका निभाई है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित ‘वंदे मातरम’ गीत लगभग 150 वर्षों से भारत माता की संतानों को जागृत करता रहा है और सदैव करता रहेगा। वाल्मीकि, व्यास और कालिदास से लेकर रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे शाश्वत कवियों की रचनाओं में हमें जीवंत भारत का स्पंदन महसूस होता है। यह स्पंदन ही भारतीयता का स्वर है।
राष्ट्रपति ने 1965 से विभिन्न भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्यकारों को पुरस्कृत करने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट की सराहना की। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्यकारों को पुरस्कृत करने की प्रक्रिया में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के चयनकर्ताओं ने श्रेष्ठ साहित्यकारों का चयन किया है तथा इस पुरस्कार की गरिमा का संरक्षण और संवर्धन किया है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित आशापूर्णा देवी, अमृता प्रीतम, महादेवी वर्मा, कुर्रतुल-ऐन-हैदर, महाश्वेता देवी, इंदिरा गोस्वामी, कृष्णा सोबती और प्रतिभा राय जैसी महिला रचनाकारों ने भारतीय परंपरा और समाज को विशेष संवेदनशीलता के साथ देखा और अनुभव किया है तथा हमारे साहित्य को समृद्ध किया है। उन्होंने कहा कि हमारी बहनों और बेटियों को इन महान महिला रचनाकारों से प्रेरणा लेकर साहित्य सृजन में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए तथा हमारी सामाजिक सोच को और अधिक संवेदनशील बनाना चाहिए।
राष्ट्रपति ने तुलसी पीठ के संस्थापक स्वामी रामभद्राचार्य के बारे में कहा कि उन्होंने श्रेष्ठता का प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनके बहुमुखी योगदान की प्रशंसा करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि दृष्टि बाधित होने के बावजूद उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से साहित्य और समाज की असाधारण सेवा की है। उन्होंने साहित्य और समाज सेवा, दोनों ही क्षेत्रों में व्यापक योगदान दिया है। राष्ट्रपति ने विश्वास व्यक्त किया कि उनके यशस्वी जीवन से प्रेरणा लेकर आने वाली पीढ़ियां साहित्य सृजन, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण के सही मार्ग पर आगे बढ़ती रहेंगी।
( साभार नवोत्थान )