ये पत्रकारिता की दुर्गति है

शिवेन्द्र सिंह राणा

पिछले दिनों एक चर्चित हिंदी समाचार चैनल की महिला उद्घोषिका का वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें वे स्टूडियो में छाता लेकर एंकरिंग कर रही हैं. पीछे विशालकाय स्क्रीन पर एक वीडियो चल रहा है, जिसमें तूफ़ानी हवा चल रही है और एंकर स्टूडियो में हिल रही थीं और यह सब वे पूरी गंभीरता के साथ कर रही थीं. इस घटना ने ये ध्यान दिलाया कि इलेक्ट्रॉनिक मिडिया वर्ग की पत्रकारिता ऐसे ही गर्त में नहीं पहुँची है. ऐसे ही अगंभीर प्रकृति क़े पत्रकार मित्रों ने इसके लिए अनवरत योगदान दिया होगा.

इसी सन्दर्भ में प्रो.आनंद रंगनाथन द्वारा कुछ दिनों पूर्व एक सार्वजानिक कार्यक्रम में लगाया गया आरोप याद आता कि, ‘मीडिया को बर्बाद प्रिंट मीडिया ने किया है.’ सम्भवतः उन्होंने सत्य को एकांगी नजरिये से देखा है. वास्तव में मिडिया की बर्बादी का मुख्य जिम्मेदार इलेक्ट्रॉनिक मिडिया है. कोई भी विवादित वीडियो पोस्ट करना, आधी अधूरी जानकारी क़े आधार पर खबरें दिखाना और विवाद होने पर उसे डिलीट करके भाग जाना, किसी बलात्कार की शिकार युवती का नाम उजागर करना तो किसी यौन हिंसा पीड़ित बच्ची की तस्वीर प्रकाशित करना, बिना नागा हर रोज निम्न स्तर की भाषा यानि गाली-गलौच से भरी अनुत्पादक बहसें आयोजित करना, हिंसा भड़कने की हद तक धार्मिक विषयों की बदजुबानी करवाना आदि. अमर्यादित भाषा से फैलने वाले विषाक़्त वातावरण की बड़ी जिम्मेदारी भी इन मिडिया संस्थानों की ही है. इतनी गैर-जिम्मेदार प्रिंट मिडिया तो कल भी नहीं थीं और आज भी नहीं है. चूंकि प्रिंट मिडिया तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता करता है, अपने लेखों, खबरों की निर्भीक जिम्मेदारी स्वीकार करता है इसलिए उसके लिए यह आरोप सर्वथा अनुचित है. साथ ही वह इलेक्ट्रॉनिक मिडिया की अपने प्रदर्शन क़े लिए चीखता-चिल्लाता नहीं है इसलिए उस पर ऐसे तोहमत लगाना आसान है. इसी परिपेक्ष्य में मदन मोहन दानिश की नज्म याद आती है,
‘ये हासिल है मिरी ख़ामोशियों का
कि पत्थर आज़माने लग गए हैं.’
 कम से कम प्रिंट मीडिया की मूर्खता इस स्तर की नहीं है कि सरसों के खेतों को धान-गेहूं के खेत बताने वाले महान पत्रकारों, जो एनडीटीवी से लेकर दूरदर्शन में काम कर रहे हैं, क़े सहारे अपना कार्य कर रहा है. इनका ज्ञान इस स्तर का है कि निर्धारित विषयों पर दस लाईनें भी लिख नहीं सकते, उनकी तुलना प्रिंट मिडिया क़े कलम क़े सिपाहियों से की भी नहीं जानी चाहिए. रही बात टीवी पर डिबेट करने की तो उसके लिए आप बिहार और यूपी के किसी भी चौराहे पर चाय की दुकान में जाइए उनसे अच्छे वक्ता आपको वहां पर मिल जाएंगे.
 आप देखेंगे कि भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मिडिया का रवैया दिनोदिन गैर-जिम्मेदार होता जा रहा है.रूस-युक्रेन संघर्ष क़े शुरूआती दिनों को याद करिये. इसके युद्धोन्माद की गंभीर आलोचना पच्छिमी जगत में हुई.अब राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा का उदाहरण लीजिये. चर्चा की आवश्यकता उन मुद्दों की थीं जिनपर उनकी यह यात्रा आधारित है. लेकिन मिडिया की तवज्जो उनके टीशर्ट और स्वेटर ना पहनने और उनके हिंदू दिखने के प्रयास पर थी. और सबसे बढ़कर इलेक्ट्रोनिक मिडिया जो पिछले कई सालों से धर्म आधारित डिबेट से बाहर ही नहीं निकल पा रहा. यदि धर्म आधारित विषयों पर ही टीवी डिबेट आयोजित किये जाने है तो बहसों का प्रारूप बदलना चाहिए. यदि पूर्व की सरकारों पर धार्मिक तुष्टिकरण का आरोप लगाने से फुर्सत मिले तो कुछ प्रश्न वर्तमान सरकार से भी पूछे जाने चाहिए जैसे कि, अब तक मंदिरों को सरकारी संरक्षण से मुक्त क्यों नहीं किया गया? अब तक कश्मीरी पंडितों का पुर्नवास क्यों नहीं हो पाया? अगर डीएमके क़े शासन में तमिलनाडु में प्राचीन हिंदू मंदिर गिराये जाने की आलोचना हो रही है तो भाजपा शासित राज्यों में मंदिरों क़े ध्वंस पर विमर्श क्यों नहीं होना चाहिए?
देश के सारे मीडिया संस्थानों ने भले ही पत्रकारी नैतिकता और शुचिता का आडम्बर खड़ा कर रखा है लेकिन वास्तविकता से सभी परिचित हैं. वे सभी विषय पर बात करना चाहतें हैं, बस पत्रकारिता में आयी गिरावट को छोड़कर. इलेक्ट्रोनिक मिडिया चैनल उन भौतिकतावादी-धनपिपासु संस्थान सरिखे हो गये हैं जहाँ नैतिकता की कोई जगह नहीं बची है. और ज़ब नैतिकता पर व्यावसायिक की धुंध छाती है तो आत्मचेतना लुप्त हो जाती है. भले ही यह व्यावसायिक पत्रकार वर्ग स्वयं को शिक्षित समझें लेकिन शिक्षा वह होती है जो सकारात्मक परिवर्तन लाये. ओशो ठीक ही कहते हैं, जो ज्ञान मुक्ति न दे वह ज्ञान नहीं. ज्ञान की परिभाषा यही है, जो मुक्त करे.
पत्रकारिता समाज का आईना होती है किंतु पेशेगत यह मूल तथ्य मिडिया जगत कब का बिसरा चुका है.शिक्षा के प्रभाव के विषय में रुसो का अभिमत था कि इससे मनुष्य अच्छा नहीं, चालाक बनता है.वर्तमान क़े तकनीकी प्रधानता क़े युग में सूचनाओं की अतिशयता ने ज्ञान की नैतिक की लकीर को धुंधला किया है. पत्रकारिता से जुड़ी नई पीढ़ी के ज्ञान के न्यूनतम विमर्श का स्तर भी नीचे गिरा दिया है.इनके पास तर्क है. दुनिया बदल रही है सभी व्यावसायिकता की दौड़ में आगे निकलना चाहतें हैं भले ही उसके लिए जिस निम्नकोटि क़े मार्ग का अनुसरण करना पड़े.
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने के पीछे मूल कारण है उसके आम जनता यानी ‘हम भारत क़े लोग’ क़े संप्रभुता की आवाज बनना बनना था लेकिन राजनीतिक मुद्दों पर बढ़ती निर्भरता, जनमुद्दों की अनदेखी आदि ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को संसदीय राजनीति के स्तंभ में लगभग एकाकार का कार्य कर दिया है और उसमें भी यह निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ट नहीं रहा बल्कि खेमेबंदी में बँटा है. जहाँ पत्रकार वर्ग या तो सत्ताधारी दल क़े साथ हैं या विपक्षी जमात क़े साथ किंतु कोई भी भारतीय जनता क़े साथ खड़े होने को तैयार नहीं है.
   स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता क़े इतिहास पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होता है कि मुख्यधारा क़े एक बड़े मिडिया वर्ग का सत्ता के साथ रहना उसकी नियति रहीं है. अधिक नहीं तो पिछले दो दशकों क़े इतिहास पर ही नजर डाल लें. पिछले सप्ताह लेखक एवं पत्रकार संदीप देव ने एक टिप्पणी की, ‘सोनिया की मनमोहनी सरकार क़े समय ”पेटीकोट पत्रकारिता’ होती थी, अब ‘खाकी निक्कर’ पत्रकारिता चल रही है! वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता तो कब का दम तोड़ चुकी है!” भाषाई आक्रामकता की अनदेखी करते हुए इस कथन को निरपेक्ष भाव से देखें. आपको पत्रकारिता की वर्तमान विद्रुपता स्पष्ट समझ आयेगी.
 नेता, राजनेता, राजनीति और अपराध के अतिरिक्त भी अन्य मूलभूत समस्याएं इस देश में हैं जिन पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तवज्जो की दरकार है. मिडिया ने अब तक जितनी बहस नेताओं के मात्र विवादित बयानों पर की हैं, उसका दशांश भी घटती रोजगार दर, आरक्षण की समीक्षा, जातिगत जनगणना के औचित्य, जनसंख्या विस्फोट, देश के उच्च शिक्षित प्रतिभाओं के यूरोप-अमेरिका पलायन, उच्च शिक्षा की निम्न उत्पादकता, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण, पंचायती राज या तीसरी सरकार, देश में आकंठ व्याप्त भ्रष्टाचार, संसदीय मर्यादाओं एवं जनप्रतिनिधित्व का गिरता स्तर, ग्लोबल वार्मिंग एवं धारणीय विकास जैसे तमाम संवेदनशील एवं अतिआवश्यक मुद्दों पर नहीं की जिनपर भावी भारत का भविष्य निर्भर करता है. उससे अधिक मिडिया कवरेज अतीक, मुख़्तार और लारेंस विश्नोई जैसे अपराधियों को मिलता रहा है मानो वे कोई मसीहा हो. जैसे फला समय इनकी गाड़ी जेल से निकली, फला समय कोर्ट पहुंचेगी, फला समय वहां पहुंचेगी आदि.
   पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक ने अपने ऑनलाइन संस्करण में सिनेमाई विवादों की जानकारी देने क़े लिए ‘विवाद बॉलीवुड के’ नाम से एक सीरीज शुरू की है. जिसमें फ़िल्मी हीरोइनों क़े आपसी झगड़ो से जनता को रूबरू कराने का वादा किया गया है. यही नहीं आजकल इंटरनेट पर ख़बरें पढ़ने की कोशिश में आपका सामना कुछ ऐसे शीर्षक से हो सकता है जैसे, ‘फला हीरोइन ने हॉट ड्रेस फोटो शूट में कहर ढ़ाया’ ‘फला की बिकनी की तस्वीरें आपको आह भरने पर मजबूर कर देंगी’, ब्रालेश ड्रेस में फला हीरोइन छा गई, इत्यादि. क्या आप इन पंक्तियों को पढ़ के असहज महसूस कर रहे हैं? किंतु ये पंक्तियां पत्रकारिता के नये मानको से आपका परिचय करवाएंगी. 
आजकल विभिन्न प्रकार क़े कल्चरल फेस्ट, संवाद-परिचर्चा वगैरह आयोजित किये जा रहें हैं. ऐसे आयोजनों में आजकल पत्रकारों क़े समकक्ष ‘सोशल मीडिया इनफ्लुएंसरों’ को बहस क़े लिए आमंत्रित किया जा रहा है और आम-गुमनाम क्या देश क़े वरिष्ठ पत्रकार ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं. तो अब
 पत्रकारिता का विमर्श अब इस स्तर पर आ गया है.
पत्रकार एवं पत्रकारिता की आज जो दुर्दशा है उसकी एक बड़ी वजह इसका कोई स्थापित मानक नहीं होना है. आजकल कोई भी जो छोटी मोटी खबरें लिख सकता है वह स्वयं को पत्रकार कहने के लिए तैयार बैठा है. साथ ही मीडिया जगत में विज्ञापन का कारोबार करने वाले भी खुद को पत्रकार बताते हैं. असल में भारतीय मिडिया की एक बड़ी समस्या अल्पज्ञ एवं त्वरित प्रगति को आतुर वर्ग है जो दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से पत्रकार श्रेणी में शामिल हो गया है.
राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी जैसे लोगों ने पत्रकारिता के मानक स्थापित किए थे. खुशवंत सिंह चाहे जितना विवादित लेखन करते रहे हों लेकिन उनके बारे में कहा जाता था कि वे अपने लिए प्रकट अभद्र आलोचना तक अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर दिया करते थे. आज ना हो पत्रकारिता की वो नैतिकता बची है ना ही मूल्य.
 हालांकि इस घुप अंधकार में पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग भी है जो मौन होकर अपनी साधना में रत है. यह वर्ग ‘कैमरा फ्रेंडली’ नहीं हैं किंतु इसे पता है कि किन मुद्दों पर समाज की जागरूकता जरूरी है. यह सार्वजनिक मंचों पर लंबी-लंबी डिबेट नहीं करता किंतु यह जानता है कि उसकी कलम को किसे कटघरे में खड़ा करना है.यह वर्ग किसी दल या विचारधारा के साथ नहीं है बल्कि लोकतंत्र का हामी है. इसकी आस्था का केंद्र केवल और केवल देश एवं संविधान है. इसी पत्रकारिता धर्म क़े अनुयायियों ने लोकतंत्र क़े चौथे स्तम्भ की मर्यादा को बचाकर रखा है और आम जनता क़े भरोसे को भी.तेज भागती इस दुनिया में कलम से पैदा होने वाली जुम्बिश कुछ मंद जरूर पड़ी है और कैमरे वाली मिडिया ने अपना कृत्रिम आभामण्डल जरूर प्रसारित कर रखा है किंतु पत्रकारिता की यात्रा का यह प्रस्थान बिंदू है नियति नहीं. याद रखिये घोर काली रात क़े पश्चात् सुबह बड़ी खूबसूरत होती है. पत्रकारिता उसी भोर की प्रतीक्षा में है.

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