भारतीय स्वतंत्रता समर का गौरव काल : स्वतंत्र भारतीय सरकार एवं आजाद हिंद फ़ौज का संघर्ष

शिवेंद्र सिंहहीगेल के अनुसार, “चेतना सार्वभौमिक एवं अनश्वर है. प्रत्येक युग की ऐतिहासिक घटनाएं चेतना द्वारा प्रभावित होती हैं.” यही चेतना मानवीय मस्तिष्क को प्रभावित कर अपने अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित करती है. आधुनिक भारतीय इतिहास में 21 अक्टूबर एक विशेष घटना का गवाह हैं.  21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में भारत की स्वतंत्र सरकार की स्थापना हुई थी. जुलाई, 1940 में सुभाषचंद्र बोस की गिरफ़्तारी एवं 1941 को नजरबंदी से फरार होकर पेशावर फिर बर्लिन पहुंचने की कहानी सर्वविदित ही है.
 रासबिहारी बोस की पहल पर मार्च 1942 को टोकियो सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें भारत की स्वतंत्रता के के लिए युद्ध को अपरिहार्य माना गया. इसके निमित्त भारतीयों की एक सेना को संगठित करने का प्रस्ताव पास हुआ. इसके पश्चात जून 1942 में आयोजित बैंकाक सम्मेलन, जिसमें दक्षिण-पूर्वी एवं पूर्वी एशिया के विभिन्न देशों में प्रवासी भारतीय सम्मिलित हुए उसमें सुभाषचंद्र बोस को नेतृत्व संभालने के लिए निमंत्रण देने का निश्चय किया गया. जिसके पश्चात् जर्मन एवं जापानी सेना की सहायता से सुभाष बाबू सिंगापुर पहुँचे और नेतृत्व ग्रहण किया.
 इससे सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया था कि जो सेना रासबिहारी बोस के नेतृत्व में जापानी फ़ौज का अंग मानी जाती थीं, वह अब भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का भाग बन गई थी. यह नेताजी के अतीत  के स्वप्न की यथार्थ परिणीति का प्रारब्ध प्रदत्त अवसर था. 1929 के लाहौर अधिवेशन के दौरान उन्होंने स्वतंत्रता के प्रस्ताव को व्यावहारिक  रूप प्रदान करने के लिए एक समानान्तर सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा जिसे गाँधी जी द्वारा गैर-जिम्मेदाराना कहे जाने पर कांग्रेस द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया. लेकिन नें उन्हें यूँ अवसर प्रदान किया था.
सरकार गठन के पश्चात् नेताजी बोस इसके मुखिया और सेना के सुप्रीम कमांडर बने. ए.सी. चटर्जी वित्त विभाग के प्रमुख, एस.ए. अय्यर प्रचार विभाग के प्रमुख तथा लक्ष्मी स्वामीनाथन स्त्री मामलों के विभाग की प्रमुख घोषित की गई. रंगून और सिंगापुर को मुख्यालय बनाकर सेना का पुर्नगठन और धन इकठ्ठा करना प्रारंभ हुआ जिसमें प्रवासी भारतीय ने उत्साहपूर्वक योगदान किया. इस सरकार को जर्मनी, जापान, इटली, चीन, कोरिया, मांचूको, आयरलैंड, बर्मा, फिलीपीन्स जैसे नौ देशों की मान्यता प्राप्त थीं. इसने 23 अक्टूबर, 1943 ई. को धुरी देशों के पक्ष में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी.
 सेना के तीन डिवीजन गाँधी, सुभाष और नेहरू की स्थापना हुई. रानी झाँसी रेजिमेंट के नाम से महिला ब्रिगेड का गठन हुआ. आजाद हिंद सरकार ने एक  सुव्यवस्थित प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की जिसमें बैंक, मुद्रा, डाक विभाग एवं गुप्तचर विभाग की व्यवस्था थी. आजाद हिंद बैंक ने दस रूपये से लेकर एक लाख तक के नोट जारी किये थे. राष्ट्र ध्वज के रुप में तिरंगा अपनाया गया. गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर रचित ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगीत की मान्यता दी गई. आपस में अभिवादन के लिए ‘जय हिंद’ का प्रयोग प्रारंभ हुआ. आजाद सरकार ने स्वयं को मान्यता प्रदान करने वाले देशों में अपने दूतावास भी खोले. इसने हिंदी के उत्थान के लिए अभूतपूर्व प्रयास किए. फौज में प्रशिक्षण के दौरान सेना में प्रयोग किए जाने वाले अंग्रेजी शब्दों का स्थान हिंदी ने ले लिया.
स्वतंत्र भारतीय सरकार के लक्षणों की घोषणा करते हुए सुभाष बाबू ने कहा, “अस्थाई सरकार का यह कर्तव्य होगा कि वह भारत भूमि से ब्रिटिश लोगों एवं उनके मित्रों को भगाएं. भारतीय जनता का विश्वास ग्रहण करके उनकी मर्जी के मुताबिक उनकी स्थाई सरकार बनाना इसका दूसरा कर्तव्य होगा.” दूसरा कर्तव्य लोकतंत्र की पवित्र भावना का उद्घोष है ना कि सर्वाधिकारवाद का.
अतीत के गर्भ से ही वर्तमान का आविर्भाव होता है. धुरी देशों में नेताजी को यकायक अपने अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं मिली बल्कि यह पिछले तीन-चार दशकों के भारतीय प्रवासी क्रांतिकारियों के परिश्रम का प्रतिफल था. इनमें रासबिहारी बोस, डॉ. चम्पक पिल्लै आदि के योगदान प्रमुख थे जिन्हें सुभाषचंद्र बोस का अग्रगामी माना जा सकता है. प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने के लिए रासबिहारी के साथ-साथ स्वामी सत्यानंद पुरी और श्री प्रीतम सिंह बरानी ने सहयोग किया. जिन्हें भी यह भ्रम है कि देश को ब्रिटिश दासता से मुक्ति मात्र कांग्रेस के अहिंसक आंदोलन से मिली उन्हें  प्रवासी भारतीय क्रांतिकरियों के संघर्ष, त्याग और मातृभूमि के प्रति समर्पण को जानना आवश्यक है.   स्वतंत्र भारत सरकार की सेना आई.एन.ए. ब्रिटिश सेना से दुर्घष संघर्ष प्रारंभ किया और महत्वपूर्ण सफलतायें प्राप्त कीं. उसने नवम्बर 1943 में अंडमान और निकोबार द्वीप पर अधिकार कर लिया. फरवरी, 1944 तक अंग्रेजी सेना पर हमला प्रारंभ किया और उसको पीछे धकेलती हुई रामू, कोहिमा, पलेल, तिद्दीम इत्यादि भारतीय प्रदेशों तक पहुंच गई. मार्च में मणिपुर रियासत पर हमला हुआ. अप्रैल,1944 में  इम्फाल संघर्ष क्षेत्र बना. सितंबर में आई.एन.ए कोहिमा तक पहुँच गई. ऐसा लग रहा था कि भारत मां की बेड़िया कटने का समय निकट आ चला था. शहादत का हौसला लिए क्रांतिदूत अब मातृभूमि तक आ पहुँचे थे. किंतु नियति पुनः भारत के विपरीत रही.
रतीय स्वतंत्रता के इस गौरवमय संघर्ष का अंत दुःखद रहा. 1943 से धुरी राष्ट्रों का पक्ष कमजोर पड़ने लगा. यहाँ तक कि 1945 की शुरुआत में जर्मनी एवं जापान मित्र देशों की सेनाओं से घिरने लगे. अगस्त, 1945 तक इनके आत्मसमर्पण के पश्चात् विश्वयुद्ध की समाप्ति हो गई. जर्मन-जापानी सहायता बंद हो जाने से आजाद हिंद फ़ौज का विजय अभियान थम गया. नेताजी बोस को शत्रु देशों से बचाकर निकालने की योजना के अंतर्गत  टोकियो लाया गया जहाँ से 18 अगस्त 1945 को फोरमोसा के पास एक विमान दुर्घटना में उनकी संदेहास्पद मृत्यु की सूचना प्रसारित हुई.
 भारतीय  क्रांतिकारी संघर्ष का यह अप्रतिम नायक अपने अनुगामियों के साथ मातृभूमि के मार्ग में अपनी शहादत दे गया. अगस्त,1945 ई. की टोकियो की अपनी अंतिम यात्रा के पूर्व सुभाष बाबू ने अपने साथी से कहा कि- ”हबीब, मैं अनुभव कर रहा हूँ कि शीघ्र ही मै मर जाऊंगा. मैं भारत की स्वतंत्रता के लिए अंत तक लड़ता रहा. मेरे देशवासियों से कहना कि भारत शीघ्र स्वतंत्र हो जाएगा. स्वतंत्र भारत चिरंजीवी हो. ‘जय हिंद’. जिस विजिगीषु भावना को लेकर नेताजी आत्मबलिदान के क्रांति-पथ पर अग्रसर हुए थे, उसका तादातम्य विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम के उस बयान से किया जा सकता है जो उन्होंने 1922 में स्वलिखित राष्ट्रगीतों के कारण गिरफ्तार होने पर कोर्ट में दी थी, “मैंने अन्यायपूर्ण शासन द्वारा सत्य पर लगी चोट की आह को आवाज़ दी, इभासीलिए मैं विद्रोही हूँ? विनाश का यह नृत्य नये सृजन की पृष्ठभूमि है. मैंने असीम शक्तिशाली शिव की तेज चुभती आवाज़ सुनी, मैंने उनके लाल नेत्रों के निर्देश को समझा. मैं फिर से आश्वासन देना चाहता हूँ कि मैं भयभीत नहीं हूँ और न कोई पछतावा है. मैं अमर पिता का पुत्र हूँ. मैं जानता हूं कि सत्य को पीड़ित करने का अंत समय आ चुका है.” वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंत निकट था.
 नेताजी क्रांति पथ पर अपूर्ण लक्ष्य लिए शहीद हो गये किंतु राष्ट्र उनका संघर्ष नहीं भूला. आजाद हिंद फ़ौज के संघर्ष उत्पन्न उत्साह से अनुप्राणित वह शक्ति का प्रतिकार शक्ति से करने हेतु उद्धत हो चुका था. अतः  ब्रिटिश शोषक-प्रताड़क रावणी शक्ति का अंत भारतीय जनमानस में व्याप्त ‘निसिचर हीन करउँ महि’ की रघुवीरी भावना से संभव हुआ.
 आजाद हिंद सरकार की स्थापना का महत्व एवं प्रभाव—
आधुनिक भारतीय इतिहास में इस घटना का वृहद तथा विशेष महत्व है. ऐसा नहीं था कि इससे पूर्व ऐसा कोई प्रयास नहीं हुआ था. सन् 1915 को काबुल में एक अस्थायी सरकार के गठन का हो चुका था. किंतु सुभाष बाबू के नेतृत्व में गठित स्वतंत्र भारत की सरकार पूर्व की भांति प्रतीकात्मक नहीं थीं. इसने बकायदा एक नियमित फ़ौज के माध्यम से स्वघोषित लक्ष्यों की प्राप्ति का भगीरथ प्रयास किया. इसके लिए ब्रिटेन के प्रतिद्वंदी देशों के सहायता अपेक्षित थी.
 तत्समय भारत इस दुरावस्था में था कि वह पिछले 150 सौ वर्षों से जमी ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने में सक्षम नहीं था और आधुनिक विश्व इतिहास पर गौर करें तो यह एक सामान्य नियम था. जर्मनी ने अपने एकीकरण (1862-1871 ई.) के लिए पहले आस्ट्रिया के विरुद्ध इटली का समर्थन लिया और फिर फ्रांस के विरुद्ध आस्ट्रिया का. इसी प्रकार इटली ने अपने एकीकरण (1815-1870 ई.) के आस्ट्रिया के विरुद्ध फ़्रांस, प्रशा और ब्रिटेन का समर्थन अर्जित किया. बोअर युद्ध के समय जर्मनी ने बोअरों की अस्त्र-शस्त्र द्वारा सहायता तथा तुर्की में कमाल पाशा के विद्रोह के समय फ्रांसीसीयों ने उनकी सहायता की थी. भारतीय क्रांतिकारी वर्ग भी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध वैदेशिक सहायता का समर्थक और आकांक्षी था. क्रांतिकारी नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल अपनी आत्मकथा ‘बन्दी जीवन’ में लिखते हैं, “भारत की विप्लव चेष्टा को सार्थक करने के लिए विदेशी राजशक्ति की सहायता अत्यंत आवश्यक है, यह बात भारत के प्राय: सभी विप्लवादी स्वीकार करते थे. वे जानते थे कि पृथ्वी पर अंग्रेजों के जो अनेक शत्रु हैं, सुविधा और सुयोग पाने पर वे भारतवासियों को भी अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने में पीछे न रहेंगे, और यदि भारतवर्ष में वैसे उपयुक्त नेताओं का आविर्भाव हो जाए तो वे एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय समस्या की सृष्टि कर सकेंगे जिसके द्वारा पृथ्वी के शक्तिशाली साम्राज्यों के बीच प्रतिद्वंद्विता और ईष्या का सदुपयोग करके वे भारतवर्ष को स्वाधीनता के उच्च शिखर पर ले जाने में समर्थ हो जायें. संसार में ऐसी दृष्टांतों का अभाव नहीं है जहाँ प्रबल राजशक्तियों के परस्पर के द्वन्द के कारण अपेक्षाकृत दुर्बल जातियाँ प्रबलों के ग्रास से छुटकारा पा गई हैं.”
  क्रांतिकरियों के इस ध्येय को यथार्थ में परिणीत करने का बीड़ा नेताजी ने उठाया. आजाद हिंद सरकार ने भारत की स्वाधीनता संघर्ष के प्रश्न को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के संकुचित दायरे से बाहर खींचकर विस्तृत अंतरराष्ट्रीय फलक पर लाकर खड़ा कर दिया. धुरी राष्ट्रों का एक शक्तिशाली गठबंधन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का पक्षधर बन गया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में इस आंदोलन की शक्ति और विस्तार कांग्रेस के आंदोलनों की सीमाओं से कहीं अधिक विस्तृत नजर आती हैं. अगस्त क्रांति के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष की  प्रेरणा मुख्यत: विदेशों में सुभाषचंद्र बोस और उनके साथियों के अभियानों से मिली. स्वतंत्र भारतीय सरकार और आजाद हिंद फौज के कारण ही बहुत से भारतीयों के मन में यह विश्वास था कि दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार अथवा भारत पर कब्जा करने के विषय में नहीं सोचेगा.
  सुभाषचंद्र बोस ने दक्षिण पूर्व एशिया के सभी जातियों, पंथों व धर्मों के भारतीयों को एकजुट करने का प्रयास किया. खान-पान, छुआछूत, जातिभेद के सारे संघर्ष मिट गये. सिर्फ एक लक्ष्य याद रहा, मातृभूमि की आजादी. इतिहास में पानीपत की पराजय का मुख्य कारण भारतीय समाज की एकता के अभाव को माना जाता हैं. जो कार्य पानीपत के तृतीय युद्ध में सदाशिव राव भाऊ और मराठा सेना नहीं कर पाई वह कार्य नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फ़ौज ने कर दिखाया. अपने पूर्वजों की असफलता का परिमार्जन करने के लिए एक नायक राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत अपने अनुयायियों के साथ साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध सन्नद्ध हो गया.
आजाद हिंद फौज के संघर्ष ने भारतीय समाज के उस संघर्षशील तक के गौरव की पुनर्स्थापना की जो  अहिंसा एवं सत्याग्रह के आवरण में कहीं गुम हो गई थी. श्रीमती एनी बेसेंट ने कोलकाता में 26 दिसंबर 1917 को दिए गए अपने भाषण में कहा था, “कुरुक्षेत्र में अपनी तलवार टूटने के बाद भारत को जिस पीड़ा का सामना करना पड़ा है, वैसी पीड़ा किसी देश ने नहीं भोगी है.” अब भारत ने पुनः अपनी टूटी तलवार जोड़ ली थीं और आताताई सत्ता के विरुद्ध प्रयोग के लिए तत्पर था. हालांकि इस दौर तक आते-आते आम-जनमानस ही नहीं कांग्रेस नेतृत्व भी इन शाब्दिक प्रवचनों के प्रति अरुचि प्रकट करने लगा था. स्वतंत्रता के सैनिकों के नाम पत्र’ लोकनायक जेपी लिखते हैं, “मैं नि:संकोच स्वीकार करता हूं कि यदि वीरों की अहिंसा का एक बड़े रूप में प्रयोग किया जाए तो हिंसा की आवश्यकता न रह जाएगी, लेकिन जहाँ इस प्रकार की अहिंसा का अभाव है तो मैं नहीं चाहता कि कायरता शास्त्रीय एवं सिद्धांतगत सूक्ष्मताओं के आवरण में प्रकट होकर हमारे आंदोलन को विफल करने में सहायक हो सके. वही डॉ राममनोहर लोहिया ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लिखते हैं, “सिविल नाफरमानी के मार्ग से अगर अहिंसा आदमी के सामूहिक जीवन का चौखट कभी बन सकी, तो भारतीय स्वाधीनता-संग्राम की विपत्तियों का औचित्य स्वयंसिद्ध होगा. कहा जाएगा कि संसार के हित के लिए भारत बलि का बकरा बना. राष्ट्र को प्राप्त हितों के दृष्टिकोणों से अहिंसा की जो बात करते हैं वे लोग दयनीय और अबोध हैं. अहिंसा नि:संदेह वीरों में वीर का हथियार है, लेकिन वे उसका इस्तेमाल नहीं करते. उनकी अपनी बंदूकें हैं और अपने न्यूक्लीयर बम हैं इसलिए उसका इस्तेमाल करने की जिम्मेदारी अपेक्षाकृत कमजोर और हीन लोगों पर आ पड़ी हैं.”  इसी भावना को मदुरई में दिसंबर 1940 में अपने  भाषण स्पष्ट करते हुए वीर सावरकर ने कहा था, “संपूर्णता में तुलनात्मक अहिंसा एक ऐसा गुण है जो मानवीय अच्छाइयों में योगदान करती हैं, जिससे मानव-जीवन चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामाजिक, अपनी एक नीति तय करता है तथा सभी सामाजिक सुविधाएं विकसित होती हैं. लेकिन संपूर्ण अहिंसा, मतलब की सभी परिस्थितियों में अहिंसा और वह भी उस समय जब व्यक्ति या राष्ट्रीय मानव जीवन को सहायता करने के बदले, मानवता के खिलाफ अपरिचित हानि करती है, उसकी नैतिक पतनशीलता के रूप में निंदा की जानी चाहिए.”
पिछले ढ़ाई दशकों से जिस भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को ‘नारित्व के गुणों’ से भर दिया गया था वही अब अपनी भावुकता का परित्याग कर अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध सन्नध था. सनातन परंपरा सीख है, शक्तिशाली होने का अर्थ यह नहीं होता कि किसी भी किसी को भी समाज के सीने में उतर जाने का अधिकार मिल गया. सुभाष बाबू ने तय कर लिया था कि वे अहिंसा और सत्याग्रह के वे सभी वैचारिक आभूषण उतार फेंकेगे जो तत्कालीन कांग्रेसी आंदोलन का श्रृंगार बने हुए थे. सुभाषचन्द्र बोस के जीवन दर्शन का अवलोकन करें तो वे सदैव गाँधीवादी आंदोलन के तौर-तरीको के लिए अयुक्त (MISFIT) नजर आते हैं. सन् 1928 को कलकत्ता अधिवेशन के अवसर पर वे सैनिक पोशाक पहनकर घोड़े पर चढ़कर सात हज़ार सुसज्जित स्वयंसेवकों के नेता के रूप में सामने आए.” नेताजी ने सनातन परंपरा को पूर्ण आत्मसात किया जो कहती हैं “अहिंसा परमो धर्म: धर्म हिंसा तथैव च“ अर्थात् धर्म रक्षार्थ हिंसा सर्वोच्च कर्तव्य है. जब मातृभूमि साम्राज्यवाद के पैरों तले कुचली जा रहीं तब एकमात्र कर्तव्य ऐसी दुराचारी-आसुरी शक्ति का पूर्ण उच्छेद एवं उन्मूलन ही हर भारतीय का एक मात्र कर्तव्य बन जाता है.
  आजाद हिंद फौज के भारतीय जनमानस पर पड़ने वाले विराट प्रभाव को देखकर अब तक सुभाष बाबू के प्रयत्नों की कटु आलोचक रही कांग्रेस भी उसके समर्थन में आ गए. पद्मा श्रीवास्तव के शब्दों में कहें तो आजाद हिंद फौज समर्थक समग्र आंदोलनों का समर्थन करने के साथ ही आजाद हिंद के सिपाहियों के मुक़दमों की पैरवी एवं उनके सहायतार्थ कमेटी आदि गठित कर कांग्रेस ने इस संघर्ष से उत्पन्न सभी ‘यश’ को स्वयं ग्रहण कर लिया. इस होड़ में मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट दल भी शामिल थे, जो संपूर्ण अगस्त क्रांति के दौरान ब्रिटिश समर्थक रहे थे.
 आजाद हिंद सरकार का सबसे प्रमुख प्रभाव यह पड़ा कि इसके फौजियों पर चलने वाले मुक़दमों ने पिछले ढ़ाई दशक के चल रहे अहिंसक़ कांग्रेसी आंदोलन का तिलस्म ध्वस्त कर दिया और समूचे राष्ट्र ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हिंसक संघर्ष के लिए तत्पर हो उठा. आजाद हिंद फौज के मुकदमों ने पूरे भारत को आलोडित कर दिया. आजाद हिंद फौज यू पर ब्रिटिश सत्ता द्वारा वफादारी की शपथ तोड़ने और विश्वासघात के आरोपों के विरोध में राष्ट्र उबल पड़ा. 1946 में क्रांति की जो जबरदस्त लहर अस्तित्व में आई उसके मूल में नेताजी बोस और आजाद हिंद फ़ौज का संघर्ष था. तत्कालीन गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक ने स्वीकार किया कि “शायद ही कोई और मुद्दा हो जिसमें भारतीय जनता ने इतनी दिलचस्पी दिखाई हो और यह कहना गलत नहीं होगा कि जिसे इतनी व्यापक सहानुभूति मिली हो.” द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत जर्जर हो सके चुके ब्रिटिश साम्राज्यवाद को आजाद हिंद फौज के संघर्ष के माध्यम से यह संदेश मिला कि सम्मानपूर्वक उपनिवेशों का परित्याग ही उसकी अंतिम नियति है. रजनी पामदत्त अपनी की प्रसिद्ध किताब आज का भारत में आजाद हिंद फौज के ब्रिटिश भारतीय सेना पर पड़े प्रभाव की व्याख्या इस प्रकार करते हैं, भारतीय जवानों में देशभक्ति का संचार हो रहा था और ब्रिटिश सैनिक द्वितीय महायुद्ध के उपरांत ब्रिटिश साम्राज्य के खोने के कारण पास होकर लौट रहे थे ब्रिटिश हुकूमत को एहसास हो चुका था कि यदि भारत का स्वतंत्रता बंद करने की चेष्टा की गई तो भारतीय जवान उसका साथ में देकर बगावत कर देंगे.”  यह अंदेशा सत्य साबित हुआ. जब जनवरी 1946 में बंबई में वायुसैनिकों ने हड़ताल कर दी. इसके पश्चात् फरवरी में नौसेना ने विद्रोह कर दिया. इस पर तत्कालीन एडमिरल गॉडफ्रे ने कहा था, ” यह तो एक तरह से खुली बगावत है जो 1857 के गदर की याद दिलाती है.” ब्रिटिश सत्ता का भारत में स्थायित्व का सबसे प्रमुख आधार सैन्य शक्ति थी, किंतु आजाद हिंद सरकार और आई.एन.ए. के प्रभाव ने ब्रिटिश भारतीय का आधार ही समाप्त कर दिया.
ब्रिटेन की भारत से विदाई के पीछे सैनिक विद्रोह को मानने वालों में सुमित सरकार भी शामिल है. वे लिखते हैं, “बहुत संभव है कि अंग्रेजों के शीघ्र ही भारत छोड़ देने के निर्णय के पीछे यही अकेला सबसे बड़ा निर्णायक कारण रहा हो.”
  28 जनवरी, 1920 को लिखे गये गये पत्र में लोकमान्य तिलक ने लिखा है, “राजनीति सांसारिक लोगों का खेल है, साधुओं का नहीं और बुद्ध द्वारा प्रचारित ‘अवकोधेन जिने कोधे’ (क्रोध को अक्रोध से जीतो) के सिद्धांत से अधिक मैं श्रीकृष्ण के सिद्धांत पर आस्था रखता हूं कि ‘ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (मैं अपने भक्तों को उसी तरीके और उसी हद तक पुरस्कृत करता हूं जैसी भी मेरी पूजा करते हैं.) इसी प्रकार सुभाष बाबू अपने आलेख ‘देश की पुकार’ (11 पौष, 1932, बांग्ला) में लिखते हैं, ‘गीता में कृष्ण ने कहा है, ” स्वधर्मे निधनं श्रेय: पर धर्मों भयावह:”. मैं इसी उक्ति में विश्वास रखता हूँ. बंगाली के लिए स्वधर्म का त्याग आत्महत्या के समान पाप है.’ वास्तव में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ही तिलक एवं अरविन्द घोष की परंपरा के वास्तविक उत्तराधिकारी थे. स्वतंत्रता भारत की जिम्मेदारी थीं कि वह नेताजी बोस का उत्तराधिकारी पैदा करता. चुकीं देश इसमें असफल रहा जिसके परिणामस्वरुप यह 1948, 1962, 1965 एवं 1971 तक निरंतर बाह्य हमले झेलने को अभिशप्त रहा बल्कि 1962 में पराजय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपमान का भागी बना.
परन्तु भारत कृतघ्न राष्ट्र नहीं है. वह आज भी सुभाष बाबू को अपना नेता मानता है और आजादी के संघर्ष के सैकड़ों सेनानियों के बीच अब भी उन्हें ‘नेताजी’ के रूप में सम्बोधित करता है. आज भी ‘डॉ. लोहिया की भाषा में कहें तो नेताजी देश में कर्म के प्रतीक’ माने गये हैं. राष्ट्र ने उन्हें कर्तव्य का साक्षी मानकर उनके सम्मान में  ‘कर्तव्य पथ’ की स्थापना की हालांकि इसमें कई दशकों की देर हुई. कुछ राजनीतिक प्रतिद्वंदिता, नेतृत्व की व्यक्तिगत कुंठा और नेताजी की कीर्ति से ईर्ष्या, जनता को बरगलाने, नैतिकताविहीन ‘तथाकथित’ बुद्धिजीवियों की आलोचना और अफवाहों जैसी रूकावटें आयी लेकिन भारत ने अपने नायक में आस्था का परित्याग नहीं किया. जैसा कि काजी नजरुल इस्लाम कहते हैं, “सत्य अपने को प्रकट करता है. कोई क्रोधित नजर या शाही दंड इसे दबा नहीं सकता.” आज भी सेना और पुलिस समेत सभी सशस्त्र बलों में ही नहीं बल्कि आम भारतीय अपने रोजमर्रा के जीवन में अभिवादन के लिए ‘जय हिंद’ का प्रयोग करते हैं. ये प्रमाण है कि शरीर नश्वर है, विचार नहीं. व्यक्ति मिटता है, उसकी कीर्ति नहीं. नायक सदैव राष्ट्र की चेतना में अमर रहते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *