अंततः अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही भाजपा का राजयोग सुनिश्चित हो गया उधर राहुल गाँधी अपनी चुनावी यात्रा की अगली कड़ी के रूप में अब न्याय यात्रा पर निकले हैं.इसमें कोई शक नहीं की उनकी यह यात्रा कांग्रेस के चुनावी संघर्ष के लिए एक सकारात्मक आधार तय करेगी लेकिन मूल समस्या इस बात की है कि पार्टी इस लाभ को कितना संचित कर पाती है. भारत जोड़ो यात्रा ने कर्नाटक एवं तेलंगाना में जो चुनावी लाभ की अग्रता दिखाई वो कांग्रेस ने म. प्र., राजस्थान, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में आसानी से गवाँ दी.
हालांकि वास्तविकता यह है कि इन तीनों राज्यों में भाजपा की जीत असल में विकल्पहीनता की जीत ज्यादा थी. कांग्रेस सत्ता विरोधी भावना अपने साथ जोड़ने में असफल रही है साथ ही वह जनता के समक्ष कोई विश्वासनीय वैकल्पिक कार्यक्रम भी रखने में अक्षम रही. इन नतीजों ने यह भी दिखाया कि चुनावी रण में यथार्थवादी मुद्दों से कही अधिक आवश्यक नेतृत्व क्षमता एवं जनविश्वासनीयता का आधार चुनावी जीत तय करता है. ये चुनाव विपक्षी गठबंधन के लिए 2024 के आम चुनावों के समर के पूर्वांभ्यास हेतु पूर्वपिठिका बन सकते थे यदि उन्होंने लोकतान्त्रिक ईमानदारी कायम रखी होती.
इंडिया गठबंधन की वास्तविक परिणीति भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ होती किन्तु सत्य तो यह है कि यहाँ राजनीतिक वर्ग की स्वयं की क्षँद्र स्वार्थ के आगे लोकतान्त्रिक मूल्य बेमानी हो गये हैं.वास्तव में यह असंभव सी दिख रही विपक्षी एकता यदि आम चुनाव से पूर्व सिद्ध हो भी जाए तब भी मूल प्रश्न यथावत रहेगा कि नेतृत्वकर्ता कौन होगा? मल्लिकार्जुन खड़गे सर्वोत्तम विपक्षी विकल्प हो सकते हैं. दलित जाति से आते हैं, लंबा राजनीतिक अनुभव है, राष्ट्रीय दल कांग्रेस के नेता है किन्तु विपक्षी दलों की उनपर सर्वसम्मति नहीं दिखती और युवराज गाँधी के राजनीतिक भविष्य के लिए चाटुकार कांग्रेसियों को वे बाधा भी दिख रहे होंगे.
कांग्रेस से इतर विपक्षी पाले में पांच ऐसे नेता है राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का नेतृत्व कर सकते है एवं प्रधानमंत्री पद का विकल्प बन सकते हैं. इनमें एम. के. स्टालिन, ममता बनर्जी, मायावती, नीतीश कुमार एवं नवीन पटनायक है. इन सभी के पास अपने गृह राज्य में व्यापक जनाधार है,लंबा राजनीतिक अनुभव हैं. लेकिन इनके साथ समस्याएं भी हैं.
स्टालिन तमिलनाडु की राजनीति में बुरी तरह घिरे हैं. एक तरफ विपक्ष, जिसमें अब भाजपा भी शामिल है, धीरे-धीरे स्थानीय राजनीति में पैर ज़माने का प्रयास कर रहे हैं. दूसरे, एशिया के सबसे अमीर परिवारों में गिना जाने वाला करूणानिधि परिवार भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहा है.आज भी टूजी स्पेक्टर्म घोटाले के लिए सबसे अधिक द्रमुक सांसदों क़ो ही याद किया जाता है.
ऐसा ही कुछ ममता दीदी के साथ है. भतीजे अभिषेक और उनके मंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों ने ममता बनर्जी की राजनीतिक-आर्थिक शुचिता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. साथ ही दीदी का अस्थिर स्वभाव अन्य विपक्षी दलों के लिए हमेशा परेशानी भरा रहा है.नीतीश कुमार इसलिए यह विकल्प नहीं हो सकते क्योंकि अपनी तिकड़मी मानसिकता एवं वैचारिक प्रतिबद्धताहीन सत्ता गठजोड़ के कारण वे नितांत अविश्वासनीय हो चले हैं. मायावती यहाँ सबसे दमदार विकल्प बन सकतीं थीं लेकिन पिछले एक दशक में भाजपा संग उनका सम्बन्ध तथा उसे अपरोक्ष समर्थन विपक्षी गठबंधन से जुड़ने में सबसे बड़ी बाधा है. और उनके स्वतंत्र चुनाव लड़ने की घोषणा ने इस विकल्प को बिलकुल विमर्शहीन कर दिया है.
रहे नवीन पटनायक तो इनके साथ ऐसी कोई भी समस्या नहीं है. वास्तव में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय व्यक्तित्व के समक्ष अगर वर्तमान भारतीय राजनीति में कोई निर्विवाद श्रेष्ठ विकल्प है तो वे केवल नवीन पटनायक है. जो शालीन, मृदुभाषी, विश्वसनीय, परिवारवाद के पोषण से दूर एवं बेहतरीन चुनावी रणनीति द्वारा लगातार सत्ता साधना में माहिर है. किंतु पिछले दस सालों के उनके राजनीतिक सफर पर नजर डालें तो उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में गंभीर हस्तक्षेप की महत्वकांक्षा नहीं प्रदर्शित की बल्कि वे अभी भी इसके लिए अनिक्छुक दिखाई देते हैं. उधर विपक्षी गुट भी उन्हें लेकर कभी सकारात्मक नहीं रहा. यहां तक कि राष्ट्रपति चुनाव के आयोजित विपक्षी दलों के सम्मेलन में बीजद को आमंत्रित तक नहीं किया गया था.
वैसे आत्मप्रशंसित उम्मीदवारों की कमी नहीं है जिनमें राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव जैसे कई नेता हैं. कुल मिलाकर स्थिति यह है कि विपक्ष एक ऐसी बारात साजने में लगा है जहाँ बहुतेरे दूल्हा बनने को आतुर है किन्तु ना किसी को समधी बनना है ना ही बाराती और फूफा बनने का तो सवाल ही नहीं है. हाँ, फूफा से याद आया, उसमें एक स्वयंभू प्रधानमंत्री केजरीवाल हैं, जो सत्ता के लिए कब क्या कर बैठे और क्या कह बैठे, ये कोई नहीं जानता. फिर भी यदि तमाम विपक्षी दल अपने से एक सर्वमान्य नेतृत्व स्वीकार कर भी लें तो भी भाजपा सरकार के विरुद्ध कोई भी महाज कांग्रेस के समर्थन के बिना संभव नहीं है. और कांग्रेस जो पिछले साठ सालों में देश की सत्ता पर र्निद्वन्द राज कर चुकी है वह किसी क्षेत्रीय दल का नेतृत्व स्वीकारेगी अथवा किसी गठबंधन में कनिष्ठ भूमिका में रहेगी, इसकी संभावना न्यूनतम है. और उसे यह स्वीकारना भी नहीं चाहिए.
ये कहना भी गलत होगा कि कांग्रेस सीट बटवारे में अकड़ दिखा रही है. असल में क्षेत्रीय दलों का मोलभाव पूरी तरह अनुचित है. सपा यूपी में कांग्रेस को दस सीटों में समेट देना चाहती है जबकि वो स्वयं पांच सीटों पर सिमटी है. उधर तृणमूल को पूरा बंगाल चाहिए. बिहार में लालू- नीतीश खुद बादशाह बने रहना चाहते हैं. पंजाब में आप एक भी सीट देने को तैयार नहीं है. ऐसा लगता है कि भाजपा के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की मुहिम को परिणाम तक पहुंचाने का जिम्मा विपक्षी गठबंधन ने उठा रखा है. ये तो गठबंधन के नाम पर कांग्रेस को ही निपटाने में लग गये हैं.
हालांकि ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे के बावजूद भाजपा क्षेत्रीय दलों की क़ीमत पर विपक्षी नेतृत्व के तौर पर कांग्रेस को ही चुनावी मैदान में प्रासंगिक बनाये रखना चाहती है क्योंकि मजबूत स्थानीय समीकरणों वाले क्षेत्रीय दलों के बजाय कमजोर राष्ट्रीय दल कांग्रेस भाजपा के विजयी अभियान के लिए अधिक मुफीद है. क्षेत्रीय दलों का जाति आधारित तथा स्थानीय भावनात्मक मुद्दों से जुड़ा अपना एक मजबूत समर्थक वर्ग होता है, जिससे निपटना भाजपा के लिए अधिक कठिन होगा. जबकि क्षेत्रीय दल यदि अपने लय में होंगे तो भाजपा के लिए अधिक कठिन प्रतिद्वंदी साबित होंगे. बंगाल में तृणमूल, बिहार में जदयू-राजद, उड़ीसा में बीजद आदि के विरुद्ध भाजपा अपनी पूरी ताकत झोंकने के बावजूद परिणाम देख चुकी है.
लेकिन राष्ट्रीय हितों के लिए यह उचित है कि आम चुनाव में राष्ट्रीय पटल पर प्रतिद्वंदी राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां ही हों और यथार्थ में केवल भाजपा एवं कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल है बाकी बसपा, माकपा या आप का राष्ट्रीय दल का ओहदा सिर्फ सांविधिक नियमों पर आधारित है.विस्तृत परिदृश्य में संकीर्ण राजनीति के पर्याय क्षेत्रीय दलों की संकुचित मुद्दों पर आधारित राजनीति राष्ट्रीय पटल के लिए अशुभ है.क्षेत्रीयता को उभारकर और स्थानीय मुद्दों की आड़ में इन्होंने विघटनकारी मतभेद पैदा किये हैं, जैसे द्रमुक का द्रविड़वाद एक हिन्दी विरोधी आंदोलन, पूर्वोत्तर के नृजाति आधारित आंदोलन.ऐसे में क्षेत्रीय दलों का सिमटे रहना एवं राष्ट्रीय पटल पर तवज्जो ना मिलना भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए अधिक सार्थक होगा.
अतः मात्र चुनावी लाभ की दृष्टि से कांग्रेस का इन क्षेत्रीय दलों के सामने नहीं झुकना उचित निर्णय है.लेकिन कांग्रेस खुद भी बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं दिख रही और इसके पीछे सबसे बड़ी समस्या परिवारवादी मोह है. विश्व के लिए ये सीख हो न हो, किन्तु भारत के लिए पुत्र मोह एवं गहरे विषाद का कारक रहा है. इसी पुत्र मोह ने महाभारत का युद्ध करवा दिया. महाभारत के युद्ध में मरने वाले हजारों-हजार, लाखों-लाख शवों का उत्तरदायित्व सिर्फ इसी धृतराष्ट्रवादी भावना का है जो अपनी संतति के स्वर्णिम भविष्य के लिए राष्ट्र के भविष्य को दांव पर लगाने से नहीं हिचकती. इसी भावना से पीड़ित कांग्रेस की राजमाता अभी भी ये समझने को तैयार नहीं हैं कि उनका पुत्र-पुत्री मोह इस जम्हुरियत के लिए कितना घातक है.
यह कटु वास्तविकता है कि भविष्य में ज़ब भी इस दौर के जनतान्त्रिक इतिहास का मूल्यांकन होगा तब परिवारवाद-वंशवाद को लोकतान्त्रिक मूल्यों के क्षरण जा मूल कारण माना जाएगा.हालांकि कांग्रेस की निरंतर हार से अधिक पीड़ादायक है देश की सबसे पुरानी पार्टी का वैचारिक पतन. कांग्रेस इतनी भ्रमित है कि वह तय ही नहीं कर पा रही है कि उसकी वैचारिक दिशा क्या हो. कभी मण्डल कमीशन एवं जाति आधारित जनगणना की विरोधी रही कांग्रेस आज स्वयं इसी संकुचित मुद्दे को अस्त्र बनाकर चुनावी लड़ाई जीतना चाहती है. ये उसके सैद्धांतिक पतन का सबसे सटीक उदाहरण है.
सिर्फ इतना ही नहीं कांग्रेसी नेताओं एक उनके गठबंधन साझीदारों की असभ्य-अनियंत्रित बयानबाजी उसकी चुनावी अभियान की ‘डिरेल’ अवश्यंभावी ‘डिरेल’ करेगी. इसमें कोई शक-सुबहा नहीं कि लोकतान्त्रिक राजनीति में अपने प्रतिद्वंदी के हर कार्य का वैचारिक विरोध विपक्ष का अधिकार है किन्तु यह विरोध कहा रुक जाये और कहा मौन हो जाना चाहिए इसकी व्यवहारिक समझ भी विपक्ष को होनी चाहिए. कांग्रेसी नेतृत्व का राममंदिर प्राण प्रतिष्ठा के आमंत्रण को अस्वीकृत करना समझ आता है किन्तु उसके विरुद्ध बयानबाजी की कोई आवश्यकता नहीं थी बल्कि इसने विपक्ष की चुनावी रणनीति को नुकसान ही पहुंचाया हैं इसकी सामान्य सी समझ भी इन सत्ता के दावेदार नेताओं को नहीं है बल्कि इतनी तो मूलभूत समझ होनी चाहिए. दिग्गी राजा, प्रियांक खड़गे जैसे कांग्रेसी तो मौजूद हैं ही. उधर स्टालिन के मंत्री बेटे उदयानिधि सनातन धर्म को कोस रहें हैं तो समाजवादी मुहिम के राजपुत्र अखिलेश के सिपहसालार स्वामी प्रसाद मौर्या आये दिन हिन्दू समाज की मान्यताओं को गलियां देने में लगे रहते हैं. जिसका प्रत्यक्ष लाभ भाजपा को उपलब्ध होता है. उसे केवल ऐसे बयानों को हवा देनी है. कभी कभी प्रतीत होता है कि विपक्ष के कुछ नेताओं पर लगने वाले भाजपा के एजेंट होने के आरोपों को मान लेना चाहिए क्योंकि ये समझना कठिन है कि ये बयानबाजी अपने पार्टी को चुनाव जिताने के लिए करते हैं या भाजपा को सत्ता में बनाये रखने के लिए.
ख़ैर वर्तमान लब्बोलुवाब ये है कि लम्बे समय से विपक्ष के गठबंधन की गाँठ ऐन चुनावी रण के समय खुलने लगी है. बसपा के ना के बाद तृणमूल भी अलग राह पकड़ने को है. द्रमुक रुचिहीन दिख रही है. जदयू के मुखिया अविश्वासनीय पलटीमार है. सपा का स्वार्थ अलग है. वामदल भ्रमित हैं और इन सबके बीच कांग्रेस किंकर्तव्यविमूढ़ दिखाई दे रही है. कुल मिलाकर अब भाजपा के लिए विपक्षी गठबंधन ने मैदान लगभग साफ छोड़ दिया है. यानि अब ‘ना नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी.’ दूसरे शब्दों में कहें तो 2024 के आम चुनाव के परिणाम स्पष्ट हैं.तो फिर लोकतंत्र के नये प्रहसन के मूक पर्यवेक्षक बने रहिये और यदि भूलवश जनवादी भावनाएं अंतर्मन में उफ़ान मारे तो उन्हें गोस्वामी तुलसीदास द्वारा मंथरा के मुँह से कहलाई गईं उक्ति याद दिलाईये, “कोउ नृप होई हमै का हानि, चेरी छांड़ि कि होइब रानी.” आखिर आम भारतीय सोच इसी भावना का प्रतिनिधित्व तो करती है.