जुलाई,1896 में तत्कालीन बंबई के ‘वाटसन होटल’ में ज़ब लुमियर बन्धुओं ने अपने ‘सिनेमेटोग्राफ’ प्रदर्शित किये तब उन्हें भी कहा ज्ञात था कि वे सैल्यूलॉयड’ के ऐसे आभासी संसार की रचना का आधार रख रहें हैं जो आगे इस देश को अपने ऐंद्रजालिक सेहर से जकड़ लेगा. आकर्षण ऐसा कि सिनेमाघर सामाजिक संवेदनाओं के रूपाकारों के गढ़ने वाले प्राथमिक पाठशालाएं बन जाएंगे.आज सिनेमा भारतीय समाज में यूँ रच-बस गया है मानों उसका अविभाज्य अंग हो. स्थिति यह है कि सिनेमा की चर्चा राष्ट्रीय विमर्श से होड़ लेती दिखती हैं. इस समय बड़ी व्यवसायिक सफल फ़िल्म ‘एनीमल’ अपने अतिशय हिंसा,.उन्मुक्त यौनिकता, नारीवाद विरोधी दृश्यों के कारण इस प्रश्न के साथ चौतरफ़ा चर्चा में छायी हुई है कि क्या सिनेमा पथभ्रमित हो चुका है?
यदि ऐसा है तो यह पतनशीलता एक लम्बे संक्रमण का परिणाम है. सिनेमा समेत कला के किसी भी रूप की अपने समय को अभिव्यक्त करने के प्रयास को समझने के लिए उस दौर के राजनैतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि की बेहतर विवेचना जरूरी है. इस विमर्श के भावार्थ तीन बिंदुओं में तलाशे जा सकते हैं, पूँजीवाद-बाजारवाद, साहित्यिक विफलताएं तथा आधुनिक समाज की प्रेरणा.
सिनेमा का विकास मनोरंजन उद्योग के रूप में हुआ है. और उद्योग, जिसकी प्रेरणा ही पूंजीवादी मूल्यों पर टिकी है. जैसा कि तापस चक्रवर्ती लिखते हैं, ‘हर युग अपने युगबोध को समाने के लिए – दास निज़ाम में संगीत, दासमुक्त निज़ाम में नाटक और सामन्ती कृषि युग में वास्तुकला और चित्रकारी मुनासिब साबित हुए. पूंजीवादी व्यवस्था में सिनेमा बना.’ वस्तुत: लोकप्रिय सिनेमा का विस्तार पूँजीवाद के प्रसार का ही प्रतीक है. अतः बीतते समय के साथ कला का यह रूप बॉक्स ऑफिस की दासता को अभिशप्त हो गया.अब सिनेमा की उत्कृष्टता का मूल्यांकन उसके ‘कलेक्शन’ पर निर्भर है.कला की उत्कृष्टता एवं उन्नति का प्रतीक जब अधिकाधिक धन-लाभ हो जाए तो कला पतित होती जाती है.यही हिंदी सिनेमा के साथ हुआ है.लेकिन क्या श्रेष्ठ साहित्य इस भटकाव को रोकने में सक्षम था क्योंकि साहित्य और सिनेमा आपस में आबद्ध है. प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं साहित्यकार डॉ.सच्चिदानंद जोशी कहते हैं, ‘साहित्य और सिनेमा को दो अलग अलग खांचो में बांट कर नहीं देखा जाना चाहिए और ना उनके बीच में ऐसी कोई रेखा खींची जानी चाहिए.’
साहित्य की सृजनशीलता समाज को संस्कार एवं दिशा प्रदान करने का बायस बनती है.वह सिनेमाई कला का भी आधार है. शुरुआती दौर से लेकर 70 के दशक तक सिनेमा ने अपने कथानक के केन्द्र में आदर्शवाद को रखा और सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण के बायस बनने का प्रयास किया. चंडीदास, रोटी, दो आँखें बारह हाथ, नया दौर, सुजाता,चांडालिका, गाइड से लेकर गर्म हवा, अंकुर, निशांत तक सिनेमा की यही मुख्य कलात्मकता थी. लेकिन बीतते वक्त के साथ यह भाव वित्तीय नियमों के अधीन हो गया. सो पुराना उद्देश्य कही पीछे छूट गया. आदर्शवाद की उत्प्रेरणा ने पूँजीवादी यथार्थ के समक्ष घुटने टेकने शुरू कर दिये.
फिर यूँ हुआ कि 70 के दशक तक सलीम-जावेद मार्का पटकथा-संवाद लेखन का व्यावसायिक युग उरुज की ओर पहुंचने को आतुर था. तब तक 40 के दशक की सांस्कृतिक सिने विरासत मर रही थी और प्रगतिशील नये दौर का सिनेमाई आंदोलन थकने लगा था. 90 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के समाजवाद को मनमोहनी उदारवाद के नये कलेवर में ढाल दिया गया. सो देश को तुरत-फुरत अमीर बनने का खुली आजादी मिल गईं. अब सिनेमा भी कहा पीछे रहने वाला था. तो अब बढ़ते-बदलते दौर में सस्ते तुकबंदी करने वाले तथाकथित लेखकों की पौ-बारह हो गईं.. इसे यूँ भी कह सकते हैं कि ज़ब साहित्य की उत्कृष्ट धारा सूखने लगती है तो नीचे बचा गन्दला तरल और कीचड़ उसका प्रतिनिधित्व करने लगता है. सिनेमा अपनी जड़ो से कटने लगा.भाषाई आत्मीयता नदारद होने लगी. चुकीं भाषा संस्कृति की प्रवक्ता होती है, सभ्यता का आयाम गढ़ती है. लेकिन जब भाषा स्थानीय मूल्यों को छोड़कर बाहरी तत्वों से मिश्रित यहाँ तक विद्रुप होने लगे तो सिनेमा की पतनशीलता तो स्वाभाविक ही है.
ऊपर से श्रेष्ठ साहित्यकारों की किल्लत. कभी मुंशी प्रेमचंद, सहादत हसन मंटो, फणीश्वरनाथ रेणु, अमृतलाल नागर, अश्क़, राजेंद्र बेदी, भगवती चरण शर्मा से लेकर कमलेश्वर तक ने सिनेमा के पटकथा एवं संवाद लिखे लेकिन सभी ने धीरे – धीरे इसे छोड़ते चले गये. क्योंकि सिनेमाई जगत उनकी साहित्यिक प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर पा रहा था और. पूँजीवादी मूल्यों के साथ उनका सामंजस्य दुष्कर था.जैसा कि सुप्रसिद्ध सोवियत फ़िल्म निर्माता-निर्देशक आन्द्रेई तारकोवस्की कहते थे, ‘आखिर साहित्यिक प्रतिभा से लैस कोई व्यक्ति सिनेमा में पटकथा लेखक क्यों बनना चाहेगा, बशर्ते उसे धन कमाने का लालच न हो.’
लेकिन मूल त्रासदी कला-साहित्य की जिम्मेदारियों से विमुखता ने उत्पन्न की. समझना था कि कृतिकार साधारण नहीं होता. वह अपने समाज का सर्वाधिक संवेदनशील व्यक्ति होता जिसमें अपने परिवेश के शोषण, दमन और अन्तर्विरोधों के प्रति विकलता एवं विद्रोह उत्पन्न होता है और जिसकी अभिव्यक्ति के लिए वह माध्यम तलाशता है. लेकिन क्या हो यदि वह समाज में अंतर्निहित पीड़ा और प्रतिवाद को गलत संदर्भों में देखें और उसी रूप पाठक या दर्शकों के रूप में व्यक्त करें.त्रासदी की मुख्य शर्त यही है कि वह भयपूर्ण श्रद्धा का भाव पैदा कर दे, एनिमल के माध्यम से सिनेमा यही तो कर रहा है.
लेकिन क्या वास्तव में समाज वही देखना चाहता है जो सिनेमा उसे दिखा रहा है? असल में सिनेमाई कला ज़ब व्यापार के जद में आई तो पूँजीवाद ने दर्शकों के भटकाव के प्रपंच रचने प्रारम्भ किये.उसने समाज के अंतस के एकाकीपन में व्याप्त यौनिकता जनित कुंठा एवं हिंसात्मक मनोवृतियों को उभारा. जुगुप्सा का भाव जहाँ कथानक के केन्द्र में आ गया. जिसमें ‘तथाकथित’ साहित्यिक वर्ग की बड़ी भूमिका रही.
अब चुकी समाज नकारात्मक या सकारात्मक के मध्य का भेद खुद मिटाकर ‘कुछ भी गलत नहीं’ के नजरिये में जी रहा है इसलिए सिनेमा को भी नायक-खलनायक के बीच लकीर खींचने की जरुरत नहीं है. अब सब समिश्रित है और इस समिश्रण ने ही ‘अल्फ़ा मेल’ तथा ‘कूल-हॉट चिक्स’ पैदा किये है. अल्फ़ा मेल नायक अब खलनायकों की कमी खलने नहीं देते और आधुनिक सिनेमाई नायिकाएँ अब कहा भारतीय नारियां रहीं है उन्हें ना धुएं के छल्ले बनाने से परहेज है और शराब पीकर ‘टल्ली’ होने से. गालियां बकती, नगईं तथा यौन क्रियाओं को आतुर दिखती ‘हॉट चिक्स’ नायिकाओं ने सामाजिक शुचिताओं को रौंदकर अपने और ‘वैम्प’ खलनायिकाओं के बीच की दूरी पाट दी है.अब पूरब और पश्चिम के भारत और ओमकार में कोई विशेष अन्तर नहीं रहा.श्री 420 की विद्या और माया एकाकार हो चुकी हैं. अब सिनेमा एंग्री यंगमैन विजय की जरूरत नहीं है क्योंकि पहले से ही नशेड़ी और कुंठित कबीर सिंह मौजूद है. मदर इंडिया की राधा अब अप्रासंगिक हो चुकी है क्योंकि गली बॉय की सफीना और फुकरे की भोली पंजाबन चलन में हैं. दूसरी ओर भाषा का सम्मान नेपथ्य में है.अंग्रेजी मिश्रित हिंदी के संवाद की फूहड़ता आदि सिनेमाई साहित्य का हिस्सा बन गये.
यह तर्क ठीक है कि साहित्य का आधुनिक मूल्यों से प्रभावित होना लाजमी है किन्तु तब भी आधुनिकता की उन्माद में आधारभूत सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों का ध्वँस अनुचित है. सिनेमा को पुराने सेलूलाइड स्वप्नलोक से मुक्त कर नवीन ठोस यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करना अनुचित नहीं, लेकिन क्या कलात्मक यथार्थ इतना वीभत्स होना चाहिए? यह सही है कि उत्कृष्ट कला-साहित्य यथार्थ से ही उपजते हैं किन्तु इनका प्रेरक भाव उन्माद नहीं अपितु अपने श्रेष्ठ स्वरुप में ‘सिद्ध यथार्थ’ (Mastered reality) के रूप में प्रकट होता है.
हालांकि इस विमर्श के इस दूसरे पहलू को भी थोड़ी शर्मिंदगी और कुछ क्षॉभ के साथ स्वीकार करना होगा कि सिनेमा में आये इस छिछलेपन के लिए आम जनता भी बराबर की भागीदार है. सामाजिक संस्कृति-संस्कारों को रौंदती फिल्मों के निर्माण की अधिकता के लिए बाजारवादी शक्तियों को दोष देते वक्त हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब दिल्ली दूर नहीं, बूट पॉलिश, जागते रहो, मेरा नाम जोकर जैसी सारगर्भित सन्देश वाहक फिल्मों की असफलता के पश्चात् ही राजकपूर संगम, सत्यम शिवम सुन्दरम एवं बॉबी जैसी फिल्मों के निर्माण को प्रेरित हुए.’तीसरी कसम’ जैसी मार्मिक कृति के निर्माण और फिर उसकी असफलता से गीतकार शैलेन्द्र दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गये. प्यासा और कागज के फूल जैसी कालजयी सेल्यूलायड़ काव्य उकेरने वाले गुरुदत्त की व्यावसायिक असफलता सर्वविदित है.धर्मेंद्र एवं संजीव कुमार आज भी ‘सत्यकाम’ से अधिक शोले के लिए जाने जाते हैं. उस दौर में भी जौहर की फूहड़ फिल्मों का बड़ा दर्शक वर्ग था और आज भी इन्द्र कुमार की मस्ती और ग्रैंड मस्ती जैसी घटिया फिल्मों को व्यावसायिक सफलता दिलाने वाला दर्शक वर्ग है. इसलिए आलोचना से पूर्व हमें अपनी कसौटी का भी मूल्यांकन कर लेना चाहिए.
कला की वैचारिकता एवं इसके प्रदर्शन दर्शकों की अभिरुचि के मध्य के अंतर्द्वंद को डॉ.सच्चिदानंद जोशी यूँ समझाते है, ‘एनिमल के समानानंतर 12th फेल प्रदर्शित हुई जो बहुत लोकप्रिय और सफल रही तथा उतनी ही प्रशंसा प्राप्त कर रही है.ऐसी फ़िल्म जिसमें कही कोई हिंसा, अतिरंजना, कोई वीभत्सता या सेक्स प्रदर्शन नहीं है. इसके बावजूद भी वो दर्शकों को उतनी ही गहराई स्पर्श करती है. आपने देखा कि जिस समय शाहरुख़ खान की ब्लॉकबस्टर पठान प्रदर्शित थी उसी समय कटहल जैसी एक बहुत ही छोटे से सेटअप पर आई फ़िल्म लोगों को प्रभावित करती है. वैसे ही रॉकी और रानी की प्रेम कहानी जैसी सफल पूर्णतः कमर्शियल फिल्म में इतना गंभीर सामाजिक संदेश है कि आप चौंक जाते है.इसलिए ये कहना कि एक एनिमल जैसी फ़िल्म की सफलता से दर्शकों की अभिरूचि बदल गईं या अच्छी साहित्यिक कृतियों को लोग पसंद नहीं करते, गलत होगा.और ऐसा पहले भी होता रहा है.मैला आँचल,एक चादर मैली सी या गुनाहों का देवता जैसे अपने समय के सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों पर आधारित फ़िल्म बहुत प्रसिद्ध नहीं हुई. वही परिणीता पर एक-दो नहीं पूरे चार बार फ़िल्में बनी. तो ये पैमाना नहीं हो सकता. किसी एक गंदी फ़िल्म के दुर्घटनास्वरुप सफल हो जाना दर्शकीय अभिरूचि का मानक नहीं हो सकता और नाही एक हिट या फ्लॉप से सिनेमाई कला के पैमाने बना सकते हैं.’
जोशी जी का तर्क एवं विश्लेषण उचित है. ऐसा नहीं है कि आम सिने दर्शकों में कला की मूलभूत की संचेतना बिल्कुल लुप्त हो चुकी है वरना ‘कला’ और ’12th फेल’ जैसी फिल्म इतनी प्रशंसित ना होती. लेकिन क्या मुक्त बाजारवाद, श्रेष्ठ साहित्यकारों की स्वयं के प्रति अरुचि एवं ‘दर्शकों की मांग’ की आड़ में सिनेमा को अपने सामाजिक दायित्वों से पीछा छुड़ा लेना चाहिए? जैसा कि जार्ज बर्नार्ड शॉ कहते हैं, ‘सिनेमा लोगों के दिलोदिमाग़ को गढ़ेगा और इसके आचरण को प्रभावित करेगा. पर हर कला में अच्छी और बुरी दोनों तरह की शक्ति होती है. जब आप किसी को लिखना सिखाते हैं तो उसे कविता लिखना भी सिखाते हैं और फर्जी चेक बनाना भी.’ यानि सिनेमा को अपनी मर्यादा तय करनी चाहिए.उसे बाहरी ‘एनीमल’ से पूर्व अपने अंदर के ‘एनिमल’ से लड़ना होगा.सिनेमाई जगत को सुनिश्चित करना होगा कि उसके संदेशों की दिशा क्या हों, क्योंकि उसका निर्णय ही यह तय करेगा कि क्या पूँजीवादी मान्यताओं की प्रबलता इतनी तीव्र है कि सामाजिक नैतिकता का दमन कर दे?