हिंद पर तिरंगा पहले सुभाष ने फहराया था ! अतः वे ही पीएम.

के .विक्रम रावलोकसभा चुनाव में नए कलेवर में एक पुराना विवाद अब वागवितंडा के आयाम लिए सर्जा है। बांग्लाभाषियों का आग्रह है कि नेताजी सुभाष बोस को प्रथम प्रधानमंत्री माना जाए। शेरनिये-बांग्ला कुमारी ममता बनर्जी की राय है कि अविभाजित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बोस थे, जब उन्होंने अंडमान द्वीप में आजाद भारत सरकार रची थी। सुभाष बोस के अनुज के पडपोते श्री चंद्र कुमार बोस की भी ऐसी ही मान्यता है कि जब बंगाल और पंजाब एक थे उस समय भारत के नेता उनके दादाजी थे। याद रहे अंडमान द्वीप में पोर्ट ब्लेयर में 21 अक्टूबर 1943 सुभाष बोस ने अविभाजित भारत की आजाद सरकार बनाई थी।
इसी अवधारणा को मंडी (हिमाचल) से भाजपा प्रत्याशी तथा फिल्मी सितारा कंगना रानावत ने एक मांग के रूप में उठा दी। इस पर सोनिया-कांग्रेस ने आपत्ति जताई। हालांकि जवाहरलाल नेहरू को ब्रिटिश राज ने सत्ता हस्तांतरण द्वारा विभाजित भारत का प्रधानमंत्री नामित किया। हिंदुस्तान को काटकर पाकिस्तान मोहम्मद अली जिन्ना को सौंपा था।
 कंगना की अवधारणा के समर्थन में विधिसम्मत तर्क ”हिन्दुस्तानी” नाम के एक ग्रुप के विस्तृत विवरण में है : ”सिंगापुर में 21 अक्टूबर 1943 को अस्थायी भारत सरकार ‘आजाद हिन्द सरकार’ हुयी थी। इस अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री व विदेशमंत्री का जिम्मा संभाला। जापान के अलावा नौ देशों की सरकारों ने आजाद हिंद सरकार को अपनी मान्यता दी थी, जिसमें जर्मनी, फिलीपींस, थाईलैंड, मंचूरिया और क्रोएशिया आदि राष्ट्र शामिल थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर के कैथी सिनेमा हॉल में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की घोषणा की थी। वहां पर नेताजी स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री, युद्ध और विदेशी मामलों के मंत्री और सेना के सर्वोच्च सेनापति निर्वाचित हो गए थे। वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। बाद में अय्यर साहब स्वाधीन भारत सरकार के सूचना विभाग के निदेशक बने थे। इसके साथ ही सुभाष चंद्र बोस ने जापान-जर्मनी की मदद से आजाद हिंद सरकार के नोट छपवाने का प्रबंधन किया और डाक टिकट भी तैयार करवाए। जुलाई, 1943 में बोस पनडुब्बी से जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुंचे। वहां उन्होंने ”दिल्ली चलो” का प्रसिद्ध नारा दिया। फिर 4 जुलाई 1943 को बोस ने ‘आजाद हिन्द फौज ‘ और ‘इंडियन लीग’ की कमान को संभाला। उसके बाद उन्होंने सिंगापुर में ही 21 अक्टूबर 1943 में सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की तथा दिसंबर 1943 को ही अंडमान निकोबार में पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने तिरंगा फहराया था। ये तिरंगा आजाद हिंद सरकार का था।” तर्क और प्रमाण वाजिब हैं। 
   
 अंतर्राष्ट्रीय कानून भी इसी प्रावधान की पुष्टि करता है कि राष्ट्र के लिये निश्चित भूभाग, स्वायत प्रशासन और वित्तीय तथा सैन्य व्यवस्था हो। अंत: सुभाष बोस ने 29 दिसम्बर 1943 के दिन शहीद तथा स्वराज द्वीप घोषित कर दिया था। अण्डमान फिर उपविनेश नहीं रहा। मुक्त हो गया था। जबकि गुलाम भारत 15 अगस्त 1947 को स्वाधीन हुआ था। नेहरु ने लालकिले पर तब तिरंगा लहराया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार तो भागकर लंदन आये, पनाह पाये फ्रेंच, नार्वे, डेनमार्क आदि राष्ट्रों के समानान्तर अस्तित्व को कानूनी मान्यता दे दी थी। इन्हीं सब के देश पर हिटलर का कब्जा हो गया था। अत: मुक्त अण्डमान भी वैसा ही था, तो उसे अधिमान्यता क्यों नहीं ?
इससे भी ज्यादा अहम बात यह हे कि दिल्ली में शासक—ब्रिटेन ने अपनी संसद में अधिनियम पारित कर दिल्ली का राज कांग्रेस को हस्तांतरित किया था। “स्वतंत्र” शब्द कहीं उल्लिखित ही नहीं है। दूसरा भूभाग जिन्ना को सौंप दिया। बोस ने सैन्य शक्ति के बल साम्राज्यवादियों को शिकस्त देकर अण्डमान छीना था। स्वयं बोस कहा करते थे कि वे भीख में स्वतंत्रता नहीं लेंगे। वायसराय लुई माउंटबेटन ने नेहरु को स्वतंत्रता बख्श दी थी। वैधानिक स्थिति यहीं है। अर्थात आजाद हिन्द की सरकार ही प्रथम स्वाचालित स्वतंत्र शासन था। पर बोस के असामयिक निधन से स्थिति बदल गयी।
     
यूं नेताजी के बारे में मेरी मान्यता है कि नेताजी स्वतंत्रता इतिहास के सर्वाधिक त्रासदपूर्ण नायक हैं। शेक्सपियर होते तो एक दुखांत नाटक लिख डालते। एक संघर्षशील जननायक जो स्वनिर्मित था। दुनियादारीभरे प्रपंची उन्हें गिराने में दशकों तक ओवरटाइम करते रहे। गौर करें। डा. पट्टाभि सीतारामय्या (रिश्ते में मेरे सगे ताऊ) को बहुमत से पराजित कर नेताजी कांग्रेस अध्यक्ष (त्रिपुरी अधिवेशन : 1939) चुने गये थे। पहला प्रत्याशी गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरु को सुझाया था। तभी यूरोप में लम्बे विश्राम के बाद नेहरु भारत लौटे थे। उन्होंने खुद मौलाना अबुल कलाम आजाद का प्रस्ताव रखा। मगर निश्चित पराजय की आशंका से मौलाना ने भी किनारा कर लिया। सुभाष बाबू तब तक भारत के युवजन का सपना बन गये थे। नेहरु तब पचास के पार थे। नेताजी चालीस के थे। अजेय थे। आज्ञाबद्ध होकर पट्टाभि ने, जो साठ के करीब रहे, उम्मीदवारी हेतु हामी भर दी। मुझ जैसे गांधीवादी को अचरज होता है कि समभाव और मर्यादा के कठोर अनुयायी बापू को सुभाष से इतनी बेरुखी क्यों थी? शायद सुभाष की कार्ययोजना में हिंसा से वितृष्णा नहीं थी। खासकर चौरा—चौरी के बाद जनांदोलन को वापस लेने के कारण। मगर बापू को बोस ही ने सर्वप्रथम ”राष्ट्रपिता” कहकर रंगून रेडियो से संबोधित किया था। फिर भी उनकी उपेक्षा क्यों ? हिचक कैसी ?

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