भारतीय संस्कृति और परंपरा में कुंभ मेले का विशेष महत्व है। साल 2025 में महाकुंभ 13 जनवरी, 2025 से आरंभ हो रहा है और 26 फरवरी, 2025 को इसका समापन होगा। यह महाकुंभ मेला पूरे 45 दिनों तक चलेगा। इस बार प्रयाग का महाकुंभ विशेष है क्योंकि 144 साल बाद विशेष संयोग की वजह से इस महाकुंभ की महत्ता बढ़ गई है। दूसरे इसे पूर्णकुंभ भी माना जाता है। इसलिए इसका महत्व दोगुना हो गया है। आइए जानते हैं कुंभ पर्व की कथा और उसके प्रकार के बारे में …
कुंभ को भारतीय संस्कृति में महापर्व कहा गया है। इस महापर्व पर स्नान, दान, ज्ञान मंथन के साथ-साथ अमृत प्राप्ति की बात भी कही जाती है। कुंभ पर्व विश्व में किसी भी धार्मिक आयोजन हेतु भक्तों का सबसे बड़ा जमावड़ा है। बताते चलें कि यूनेस्को ने कुंभ मेला को 2017 में अपनी ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर’ की सूची में शामिल किया था। कुंभ का संस्कृत में अर्थ है- कलश। कलश यानी ‘घट’ अर्थात घड़ा। ज्योतिष शास्त्र में कुंभ राशि का भी यही चिह्न है। यह अद्वितीय मेला चार पवित्र स्थानों पर ही आयोजित किया जाता है, इसमें प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक शामिल हैं। हरिद्वार तथा प्रयागराज के मेले कुंभ के नाम से और उज्जैन व नासिक के सिंहस्थके नाम से जाने जाते हैं। यह न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि इसमें खगोलीय घटनाओं का भी गहरा प्रभाव माना जाता है।
कुंभ पर्व को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध कथा देव- दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूंदें गिरने को लेकर है। इस पौराणिक कथा के अनुसार, महर्षि दुर्वासा के श्राप से जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया था। तब सभी देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा वृतान्त सुनाया। इस पर भगवान विष्णु ने देवताओं को दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन कर अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर सभी देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने लगे। अमृत कलश के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गए। फिर दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार, दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ लिया। इसके बाद अमृत कलश पर अधिकार को लेकर देव-दानवों में बारह दिनों तक अविराम युद्ध होता रहा।
इस दौरान जयंत ने अमृत कलश को उसकी सुरक्षा हेतु 12 स्थानों पर रखा, जिससे अमृत की कुछ बूंदे कलश रखे जाने वाले स्थानों पर गिरीं। इन 12 स्थानों में से आठ स्थान स्वर्ग में स्थित है और चार स्थान पृथ्वी पर स्थित हैं। पृथ्वी पर जो स्थान हैं उनमें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व नासिक हैं। इसीलिए इन चारों स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्ष के पश्चात महाकुंभ का मेला आयोजित किया जाता है। ‘स्कन्द पुराण’ में यह भी कहा गया है कि देवताओं व दानवों का युद्ध समाप्त करने के उद्देश्य से भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत को देवताओं में बांट दिया परंतु एक दानव देव रूप धारण कर अमृत पीने में सफल हो गया। इस पर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका मस्तक काट दिया था। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, बृहस्पति और चन्द्रमा ने विशेष सहायता की थी। सूर्य ने कलश को फूटने से बचाया, चन्द्रमा ने कलश से अमृत को गिरने से रोका और बृहस्पति ने अमृत कलश को राक्षसों के पास जाने से रोका। यही कारण है कि सूर्य, बृहस्पति और चन्द्र ग्रहों के विशिष्ट संयोग से ही कुंभ महापर्व का योग बनता है। अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहां-जहां अमृत की बूंद गिरी थीं, वहां-वहां कुंभ पर्व का आयोजन होता है। कुंभ न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह आत्मशुद्धि, मोक्ष प्राप्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा को जागृत करने का अवसर भी प्रदान करता है। कुंभ में स्नान करने से पापों का नाश और पुण्य की प्राप्ति होती है। यह धार्मिक आयोजन सामाजिक और सांस्कृतिक समागम का भी प्रतीक है।
कुंभ स्नान की महिमा
कुंभ स्नान की शास्त्रों में बड़ी महिमा गाई गई है। स्कंद पुराण के अनुसार, जो पुण्य कार्तिक माह में हजार बार गंगा स्नान से प्राप्त होता है, माघ माह के सौ स्नान एवं वैशाख में एक लाख नर्मदा स्नान करने पर प्राप्त होता है, वह पुण्य कुंभ पर्व में एक स्नान से प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, हजार बार अश्वमेघ यज्ञ करने से, 100 बार वाजपेयी यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल एक बार कुंभ स्नान करने से मिलता है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो व्यक्ति कुंभ योग में स्नान करता है, वह अमरत्व यानी मुक्ति की प्राप्ति करता है। जैसे दरिद्र व्यक्ति धनवान व्यक्ति को नम्रतापूर्वक अभिवादन करता है, ठीक उसी प्रकार कुंभ पर्व में स्नान करने वाले मनुष्य को देवगण नमस्कार करते हैं।
कुंभ मेले के प्रकार
कुंभ मेले के चार प्रकार होते हैं। कुंभ, अर्धकुंभ, पूर्णकुंभ और महाकुंभ। इन सभी के बीच समयावधि, धार्मिक महत्व और खगोलीय कारणों के आधार पर विभिन्नताएं होती हैं। अक्सर लोगों में इन सब को लेकर काफी दुविधा रहती है। आइए जानते हैं इनके बीच के अंतर और ग्रहों के गोचर से इनके संबंध के बारे में :-
कुंभ : कुंभ हर 12 वर्ष में आयोजित होता है और इसे चारों तीर्थ स्थलों पर बारी-बारी से आयोजित किया जाता है। इसका आयोजन तब होता है जब सूर्य, चंद्रमा और गुरु ग्रह विशिष्ट खगोलीय स्थिति में होते हैं। इस अवधि में गंगा, क्षिप्रा, गोदावरी और संगम का जल विशेष रूप से पवित्र माना जाता है।
अर्धकुंभ : अर्धकुंभ हर 6 वर्ष के अंतराल पर आयोजित किया जाता है। यह भारत में सिर्फ दो जगहों हरिद्वार और प्रयागराज में ही आयोजित होता है। अर्ध का मतलब आधाहोता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ लगता है, इसलिए इसे कुंभ का मध्य माना जाता है।
पूर्णकुंभ : पूर्णकुंभ 12 साल में एक बार आयोजित होता है। पूर्णकुंभ केवल प्रयागराज में ही आयोजित होता है। हालांकि पूर्णकुंभ को भी महाकुंभ कहते हैं। इस बार यानी 2025 में 12 साल बाद प्रयागराज में पूर्णकुंभ लगने वाला है।
महाकुंभ : महाकुंभ 144 साल में सिर्फ एक ही बार लगता है। इसका आयोजन केवल प्रयागराज में होता है। महाकुंभ को अत्यंत दुर्लभ और विशिष्ट धार्मिक आयोजन माना जाता है, जो 12 पूर्णकुंभ के बाद लगता है। इस मायने में प्रयाग महाकुंभ 2025 ऐतिहासिक महाकुंभ है, क्योंकि इस साल बहुत ही दुर्लभ संयोग की वजह से (144 साल) इस महाकुंभ की विशिष्टता बढ़ गई है। इसमें लाखों श्रद्धालुओं का महासंगम होता है।
(युगवार्ता से साभार )